General Elections 2024: पत्रकारिता और राजनीति की दिशाहीनता का यक्ष प्रश्न

General Elections 2024
Prabhasakshi
कमलेश पांडे । May 31 2024 2:44PM

आम चुनाव 2024 के बाद यह सवाल सदैव मौजूं रहेगा कि आज 'बहुमत' के घमचक्कर में राजनीति और 'विज्ञापन' के चक्कर में पत्रकारिता जो अपने स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक चुकी है, उन्हें कैसे फिर से पटरी पर लाया जाए।

आम चुनाव 2024 के सातवें और अंतिम चरण का मतदान 1 जून को है और मतगणना 4 जून को होगी। शुरुआती रूझान शनिवार एक जून की शाम में और अंतिम परिणाम मंगलवार चार जून की रात तक मिल जाएंगे। अब इसका परिणाम चाहे जो भी आए, लेकिन ये परिणाम राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और इंडिया गठबंधन की निकट भविष्य की चुनौतियों को बढ़ाने वाले साबित होंगे। ये चुनाव परिणाम पत्रकारिता और राजनीति की दिशाहीनता को भी उजागर करेंगे, जिससे निकट भविष्य की नई सियासी दिशा भी तय होगी।

ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि कहीं भाजपा तो कहीं कांग्रेस को साधकर या फिर कहीं कहीं खुद अपने दम पर भी क्षेत्रीय दलों ने आशातीत सियासी मजबूती हासिल कर ली है। इसलिए उनके क्षेत्रीय आकांक्षाओं और सियासी स्वार्थ को पूरे करने में भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों की घिग्गी बंध जाएगी। इस चुनाव में जो मुद्दे उठे, उससे भी इसी बात के संकेत मिलते हैं।

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आम चुनाव 2024 के बाद यह सवाल सदैव मौजूं रहेगा कि आज 'बहुमत' के घमचक्कर में राजनीति और 'विज्ञापन' के चक्कर में पत्रकारिता जो अपने स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक चुकी है, उन्हें कैसे फिर से पटरी पर लाया जाए। क्योंकि जिन बेसिर-पैर के मुद्दों पर यह चुनाव लड़ा गया, उसका प्रत्यक्ष व परोक्ष असर कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ-साथ समाजपालिका (सिविल सोसाइटीज) पर भी पड़ेगा। 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि जनसंतुष्टिकरण के नाम पर तमाम सियासी उलटबांसी परोसने के बावजूद भी जब मतदाताओं ने अपनी खामोशी नहीं तोड़ी तो भारतीय जनता पार्टी अपने कोर राष्ट्रवादी मुद्दों पर एक बार फिर से लौटने को विवश हुई। वहीं, कांग्रेस पार्टी भी अपनी विवादास्पद तुष्टिकरण की नीति के साथ-साथ जनसामान्य से जुड़े मुद्दों पर सर्वाधिक मुखर नजर आई। वहीं, भाजपा और कांग्रेस के समर्थक दल अपने जातीय, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय मुद्दों पर सर्वाधिक कसरत करते नजर आए। 

इसका राजनीतिक दुष्परिणाम यह हुआ कि भाजपा भले ही सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सामने आए, लेकिन उसके नेतृत्व वाला गठबंधन भी बहुमत के जादुई आंकड़े 272 से दूर ही रहेगा। उधर कांग्रेस के साथ साथ उसके साथी दलों के बेहतर सियासी प्रदर्शन की उम्मीद के बावजूद भी इस बात के पक्के आसार हैं कि वह भी बहुमत के जादुई आंकड़े से दूर ही रहेगी। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, और बसपा आदि के सियासी पैंतरे यह तय करेंगे कि केंद्र में अगली सरकार किसकी बनेगी और कितने दिन तक चलेगी।

अब बात करते हैं उन चुनावी मुद्दों की जो उत्तर में राम-मंदिर से शुरू होकर दक्षिण में ध्यान-मुद्रा तक जाकर समाप्त हुए।हालांकि, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा जैसा सियासी शगूफा सब पर भारी पड़ा। क्योंकि इस मुद्दे ने कांग्रेस के अल्पसंख्यक और दलित वोट बैंक को एक बार फिर से उसके साथ जोड़ दिया। इससे उसके गठबंधन साथी भी लाभान्वित हुए। जनसंख्या नियंत्रण, आर्थिक और जातीय जनगणना, मतदाताओं के बीच मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय मुद्दों पर स्थानीय मुद्दों के भारी पड़ने आदि की बात है सो अलग। मीट और मुजरा आदि की बात करना तो बौद्धिक दिवालियापन का द्योतक होगा!

यदि निष्पक्षता पूर्वक कहा जाए तो एनडीए गठबंधन, इंडिया गठबंधन और बसपा-बीजद-टीएमसी जैसे गठबंधन रहित दल ने आम चुनाव 2024 में ऐसे-ऐसे आधारहीन और भावनात्मक मुद्दे उठाए, जो समाज को जागरूक बनाने और लोकतंत्र को मजबूत करने के सियासी पैमाने पर कहीं नहीं टिकते। वहीं, अपनी बातों-जज्बातों से अक्सर इन्हें जगाते रहने वाली मीडिया भी इस बार बिल्कुल असहाय नजर आई, क्योंकि सोशल मीडिया से उपजा जनज्वार उनको विभिन्न मोर्चों पर अप्रासंगिक बना दिया। 

इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यह है कि अब जनता भी राजनेताओं की तरह ही पत्रकारों की कथनी और करनी से वाकिफ हो चुकी है। इसलिए वह भी अब इन्हें गम्भीरता से नहीं लेती और सोशल मीडिया मंचों पर अपनी बात रखते हुए वहीं से रूझानों की फीडबैक भी लेती है। इससे जहां यूट्यूब चैनल और वेब मीडिया की मांग बढ़ी है, वहीं टीवी चैनल्स और अखबार अपने वजूद के लिए संघर्षरत हैं!

ऐसा इसलिए कि भले ही पत्रकारिता और राजनीति में चोली-दामन का रिश्ता बताया जाता है। लेकिन इनके बीच भी पारस्परिक विश्वसनीयता घटी है। जब से दलगत सांचे में भारतीय पत्रकारिता ढली है, तब से मुख्य धारा की पत्रकारिता बदनाम हुई है। इससे उनकी सहायक धाराएं भी अछूती नहीं बचीं हैं। इसलिए कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि जनहित की समग्र दृष्टि से आज राजनीति और पत्रकारिता दोनों पेशा दिशाहीन हो चुका है। समाज को जागरूक और लोकतंत्र को मजबूत बनाने का जो काम इन्हें करना चाहिए, वो आज निष्पक्षता पूर्वक नहीं हो पा रहा है।

बानगी स्वरूप यह बताया जा सकता है कि पीएम नरेंद्र मोदी के "अबकी बार, 400 पार" के नारे को तमाम मीडिया प्रोपगेंडा के बावजूद आम चुनाव के प्रथम चरण से अंतिम सातवें चरण तक कायम नहीं रखा जा सका। वहीं, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का नारा बिना किसी संगठित प्रयास के ही पहले चरण से अंतिम चरण तक अपना गम्भीर असर दिखाता रहा। जबकि मौखिक प्रचार और सोशल मीडिया के अलावा कहीं पर भी टीवी या अखबार में इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। 

यह स्थिति समसामयिक राजनीतिक चिंतन और मीडिया विमर्श के लिए एक अहम कड़ी है, जिसकी उपयोगिता को समझने और प्रोत्साहित करने की जरूरत है। चाहे सियासी मुफ्तखोरी पर न्यायिक स्टैंड का सवाल हो, या लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के नाम पर विदेशी ताकतों के हाथों खेलने की सियासी भूल हो, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से सियासी आंखमिचौली हो या फिर अग्निवीर और जनहित वाली गारंटियों का सवाल, जवाब मिलने में कुछ वक्त तो लगेगा ही। 

अब देखना यह है कि राजनीति और पत्रकारिता की दिशाहीनता के बीच इन बातों-जज्बातों से भारत का हित सधेगा या फिर पीएम मोदी विरोधी चीनी-अमेरिकी चाल सफल होगी, इसका जवाब तो बदलता वक्त देगा, हम और आप तो संघर्षरत भारत और भारतीयता के बीच केवल मुक़द्रष्टा होंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं!

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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