अफगान फौज की आस्था दीन में थी इसलिए तालिबान का मुकाबला नहीं किया
अफगानिस्तान फौज तालिबान से काफी ज्यादा तादाद में थी। वह अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित सेना थी। संगठित सेना थी। उसके पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्र थे, किंतु मनोबल ना होने के कारण उसने अपने से कम संख्या में आतंकवादियों के सामने हथियार डाल दिए।
अफगानिस्तान में फ़ौज के तालिबान के सामने हथियार डालते ही तालिबान की बर्बरता की तस्वीरें सामने आने लगी हैं। तालिबान ने बामियान में हजारा समुदाय के नेता अब्दुल अली मजारी की मूर्ति को उखाड़ दिया। यह वही जगह है जहां तालिबान ने 20 साल पहले अपने पिछले शासन में बुद्ध की प्रतिमा को बारूद से उड़ा दिया था। महिलाओं पर ज्यादती होने लगी है। तालिबान के प्रतिनिधि ने घोषणा की है कि उनकी सरकार शरीयत के हिसाब से चलेगी।
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अफगानिस्तान फौज तालिबान से काफी ज्यादा तादाद में थी। वह अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित सेना थी। संगठित सेना थी। उसके पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्र थे, किंतु मनोबल ना होने के कारण उसने अपने से कम संख्या में आतंकवादियों के सामने हथियार डाल दिए। अगर वह कुछ हौसलों से काम लेती, बहादुरी दिखाती, लड़ने का बूता रखती तो हालात बदल सकते थे। अफगान फ़ौज ने जिस तरह से एकदम पूरी तरह समर्पण किया, उससे एक बात साफ हो गई कि उसकी आस्था अपनी सरकार में नहीं थी। उसकी आस्था दीन इस्लाम के प्रति जेहादी स्तर तक है। इस तरह से तालिबान के सामने हथियार डाल देना, यह भी स्पष्ट करता है कि अफगानिस्तानी सैनिकों के सामने धर्म पहले है और देश तथा देशवासी बाद में।
पूरी दुनिया ने अफगानिस्तान के विकास में बहुत बड़ा योगदान किया। वहां के लोगों के लिए विकास के रास्ते खोले। सड़क, बिजलीघर, बांध, बंदरगाह बनाए, लेकिन वहां के धार्मिक कट्टरवाद ने उस सबको एक झटके में तबाह कर दिया और धार्मिक कट्टरता को स्वीकार किया। यह कहा जा रहा है कि अमेरिका के सेना हटाने का आदेश से वहां के हालात बदले, पर ये भी देखना होगा कि जिनमें खुद लड़ने का बूता न हो, उन्हें कब तक सहारा देकर खड़ा किया जाता। कब तक उन्हें बैसाखी के सहारे खड़ा रखा जाता। एक न एक दिन तो ऐसा होना ही था।
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अफगान फ़ौज में शामिल जवानों के परिवार होंगे, उन्हें उनके बारे में सोचना था। उन्हें अपनी बेटियों, बहनों और परिवार की महिलाओं के लिए लड़ना था, किंतु उन्होंने तालिबान के सामने हथियार डाल कर ये बता दिया कि उन्हें इन सबसे कुछ लेना देना नहीं। दीन में जो कहा गया है, वही उनके लिए सब कुछ है। फौज ने भले ही तालिबान के सामने हथियार डाल दिये हों, घुटने टेक दिए हों लेकिन वहां से ऐसे संदेश, ऐसी तस्वीरें आ रही हैं, जो यह बताती है कि वहां की जनता और महिलाओं ने हार नहीं मानी। वह अपने अधिकारों के लिए अब भी संघर्ष कर रही हैं। काबुल में पांच महिलाओं ने अपने हक की बहाली के लिए प्रदर्शन किया। तालिबान उनसे घर के अंदर जाने को कहते रहे लेकिन वह नहीं गईं। प्रदर्शन जारी रखा। तालिबान की बर्बरता की तस्वीरें सामने आने के बावजूद अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं जो बहादुरी से तालिबान का विरोध कर रहे हैं। जलालाबाद में भी तालिबान का विरोध हो रहा है। वहां जनता अफगानिस्तान का झंडा लेकर सड़कों पर उतर आई। वह मांग कर रही थी कि अफगानिस्तान के ध्वज को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए। पाकिस्तान की सीमा से लगे खोस्त प्रांत में लोगों ने झंडा लेकर प्रदर्शन किया। ये छुटपुट है लेकिन है, ये बड़ी बात है। बंदूक थामे खड़े सिरफिरे जिहादियों के सामने खड़े होना भी गर्व की बात है। इतना सब होने के बाद भी निराश होने की बात नहीं है। पिछले 20 साल में अमेरिका समेत दुनिया के देशों ने अफगानिस्तान में जो कुछ किया शायद वह ऐसे ही बर्बाद नहीं होगा। 20 साल में युवक, युवतियों के शिक्षा के रास्ते खुले। कॉलेज यूनिवर्सिटी बनीं। इंटरनेट आया। इनके बीच से पढ़े-लिखे आगे बढ़े युवक−युवतियां उम्मीद है, ऐसे ही खामोश होकर घर पर नहीं बैठ जाएंगे। उम्मीद है यहां से फिर रोशनी नजर आएगी। नई दुनिया में जाने के रास्ते खुलेंगे, फिर बदलाव की बयार आएगी।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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