दलितों को आगे बढ़ाकर कांग्रेस ने चल दी है नई चाल, क्या UP में पार्टी दिखा पायेगी कोई कमाल?
खड़गे के सिर कांग्रेस पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष होने का ताज भी सजा है। 80 साल के खड़गे बाबू जगजीवन राम के बाद पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष बने हैं। इस पद पर आज से 50 पहले 1970 से लेकर 1971 तक एक दलित के अध्यक्ष के तौर पर बाबू जगजीवन राम रहे थे।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने दलितों के नाम पर डबल धमाका किया है। पहले कांग्रेस आलाकमान या कहें गांधी परिवार ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष की कुर्सी अपने दलित नेता को सौंपी थी, अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर भी एक दलित चेहरे को बैठा दिया गया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अपनी पहचान के लिए मोहताज नहीं हैं। इसीलिए सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या कांग्रेस के दो नए नवेले दलित चेहरे उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के प्लान का 'ट्रंप कार्ड' साबित होंगे?
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर 22 साल बाद हुए चुनावों और कांग्रेस पार्टी के इतिहास में 52 साल बाद मल्लिकार्जुन खड़गे के तौर पर दूसरे दलित अध्यक्ष की एंट्री हुई है। पार्टी के 137 साल में ये छठा मौका है जब अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ है। दरअसल, देश में आजादी से पहले की इस ऐतिहासिक पार्टी की कमान अक्सर गांधी परिवार ने ही संभाली है। अध्यक्ष पद की इस चुनावी जंग में आखिरी वक्त में मल्लिकार्जुन खड़गे उतरे थे। उनकी जीत का रास्ता तभी साफ हो गया था जब गांधी परिवार ने अप्रत्यक्ष तौर पर उनके सर पर अपना हाथ रख दिया था। गांधी परिवार ने काफी सोच समझ के खड़गे को आगे बढ़ाया है।
खड़गे के उम्रदराज होने से भविष्य में उनके राहुल गांधी के लिए राजनीति में चुनौती बनने के आसार भी नहीं हैं, इसलिए भी वो इस पद के लिए गांधी परिवार के पसंदीदा उम्मीदवार के तौर पर देखे जा रहे थे। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के वफादार रहे इस नेता पर आलाकमान के भरोसे की बात भी जगजाहिर है। इतनी खासियतों में से खड़गे के दलित होने की खूबी को पार्टी आने वाले राज्यों के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भुनाने पर सोच सकती है।
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मल्लिकार्जुन खड़गे के सिर कांग्रेस पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष होने का ताज भी सजा है। 80 साल के खड़गे बाबू जगजीवन राम के बाद पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष बने हैं। इस पद पर आज से 50 पहले 1970 से लेकर 1971 तक एक दलित के अध्यक्ष के तौर पर बाबू जगजीवन राम रहे थे। दक्षिणी राज्य कर्नाटक से आने वाले खड़गे पार्टी के अहम दलित नेता के तौर पर अलग पहचान रखते हैं। उन्होंने इस सूबे में पार्टी को मजबूती देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
उनकी छवि भी बेहद साफ और पार्टी के लिए मुखर रहने वाले ईमानदार नेता की है। पार्टी के अंदर भी उनका किसी से मनमुटाव सामने नहीं आया है। हालांकि गांधी खानदान के अलावा पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं से उनका उतना अधिक जुड़ाव नहीं है। इस पर भी दलित कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे हैं कि उनके अध्यक्ष पद पर होने से पार्टी के पिछड़े और दलित समुदाय के लोगों की पार्टी में वापसी हो सकती है। यहां पर ये बात भी गौर करने लायक है कि खड़गे भले ही दलित समुदाय के हों, लेकिन दक्षिण भारत के बाहर उनका जनाधार बेहद कम है। उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश में वह कितना असर कर पाएंगे इस पर कयास लगाना या कुछ कहना अभी जल्दीबाजी होगी, क्योंकि राजनीति में कब बाजी पलट जाए इसे लेकर कोई कुछ नहीं कह सकता है।
अभी दलित नेता के तौर पर यूपी में बीएसपी सुप्रीमो मायावती को असरदार माना जाता है, लेकिन साल 2022 में विधानसभा चुनावों में हारने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे ने बसपा सुप्रीमो को अप्रैल में जो जवाब दिया था, उसे देखकर लगता है कि खड़गे यूपी में दलितों को लुभाने की जोरदार और पुरजोर कोशिश कर सकते हैं। कांग्रेस ने साल 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद मायावती को जवाब देने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को मैदान में उतारा था। दरअसल 9 अप्रैल शनिवार 2022 को राहुल गांधी ने कहा था कि उन्होंने मायावती से यूपी विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन के लिए संपर्क साधा था, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, शायद वो बीजेपी से डर गई हैं। इसके जवाब में 10 अप्रैल 2022 को मायावती ने कहा था कि राहुल गांधी को बोलने से पहले 100 बार सोचना चाहिए। उनका बयान उनकी जातिवादी सोच को दिखाता है। तब एआईसीसी ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता दलित समुदाय के मल्लिकार्जुन खड़गे को बसपा सुप्रीमो को जवाब देने के लिए आगे किया था।
तब खड़गे ने कहा था, "कांग्रेस ने प्रियंका गांधी जी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश का चुनाव अपनी पूरी ताकत से लड़ा। कांग्रेस ने मायावती जी से गठबंधन करने और बीजेपी के खिलाफ गठबंधन का नेतृत्व करने का आग्रह किया था, लेकिन वह किसी भी कारण से ऐसा नहीं कर सकीं। तब खड़गे ने ये भी कहा था, "लोग अब मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के कारण संघर्ष कर रहे हैं। संवैधानिक संस्थानों पर आरएसएस कब्जा कर रही है। इन हालातों में, हमारे लोकतंत्र और बाबा साहब के संविधान का क्या होगा? बीजेपी के खिलाफ इस लड़ाई में सभी विपक्षी दलों को एक साथ आना चाहिए।"
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उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहां इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने में कांग्रेस को दलितों का साथ मिला था। इसके पीछे इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का मशहूर नारा रहा। दरअसल यूपी में कभी दलित-ब्राह्मण और मुसलमान कांग्रेस का सबसे तगड़ा वोट बैंक हुआ करता था। इस बैंक में कांशीराम और मायावती ने सेंध लगाई और दलित एकजुट होकर बीएसपी के साथ हो लिए। ब्राह्मण अगड़ी जातियों के साथ ही बीजेपी की तरफ झुक गए तो मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी और कुछ बीएसपी का दामन थाम लिया। इससे कांग्रेस देश के इस सबसे बड़े सूबे में जातिगत राजनीति में पिछड़ने लगी। उसका ये कोर वोट बैंक इस सूबे से खिसकने लगा। अब कांग्रेस इसी वोट बैंक को वापस पाने की पुरजोर तैयारी कर रही है।
हाल ही में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के शिष्य रहे बृजलाल खाबरी को प्रदेशाध्यक्ष का पद सौंपा जाना इसका सबूत है। इस फैसले के पीछे प्रियंका गांधी को माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि ये लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर की गई खास तैयारी है। खड़गे के अध्यक्ष बनने से इससे सोने पर सुहागा हो गया है। वह भी दलित समुदाय से आते हैं और यहां उन्हें बृजलाल खाबरी का संग मिलेगा तो शायद यूपी के दलित वोट बैंक को खो चुकी कांग्रेस इसे वापस पा सके। प्रदेश अध्यक्ष खाबरी दलित समाज से आते हैं। वहीं, प्रांतीय अध्यक्षों में दो ब्राह्मण, एक मुस्लिम, एक भूमिहार और पिछड़ी जाति से दो प्रांतीय अध्यक्ष बनाए गये हैं। इसके अलावा, उनके कार्यक्षेत्रों का भी जातीय आधार पर विभाजन किया गया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति काफी दयनीय है। यहां से सोनिया गांधी के तौर पर एक मात्र कांग्रेस का सांसद है। 2019 के लोकसभा चुनाव में हार का सामना करने के बाद राहुल गांधी यहां से पलायन करके केरल चले गए हैं।
- अजय कुमार
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