पर्यावरण हितैषी ईद मनाएँ, पशुओं को मारने की बजाय कुर्बानी का केक काटें
भविष्य में पार्यवरण हितैषी ईद मनाने के संबंध में एक सार्थक चर्चा तो शुरू हो ही गई है और इसको आगे बढ़ाने की जरूरत है। बात सिर्फ ईद तक ही सीमित नहीं है, दरअसल हरित दिवाली, गणेशोत्सव और होली मनाई भी जाने लगी है, हालांकि इनको और गति देने की जरूरत है।
अच्छे मित्र की पहचान है कि वह 'कर्णप्रिय' नहीं बल्कि 'मर्मप्रिय' बात करता है। हर साल दिल करता है कि ईद पर मुबारकबाद दूं, परन्तु ईद का नाम सुनते ही मन दहल-सा जाता है। कारण है कुर्बानी के नाम पर इस दिन लाखों-करोड़ों निरीह पशुओं की बेदर्दी से होने वाली हत्याएं। मैं इस्लाम का जानकार नहीं हूं, परन्तु इतना दावा अवश्य कह सकता हूं कि इन बेजुबानों पर होने वाले अत्याचारों को देख कर अल्लाह ताला का भी कलेजा कांप उठता होगा। आज पूरी दुनिया पशुओं पर हिंसा के फलस्वरूप पनपी कोरोना जैसी महामारी से जूझ रही है तो ऐसे में जरूरी हो जाता है कि प्रेम और शांति का संदेश देने वाले इस्लाम की भावना के अनुरूप ईद का स्वरूप भी समयानुकूल किया जाए। ईद को इको फ्रेंडली या कहें तो पर्यावरण हितैषी बनाया जाए। खुशी की बात है कि कुछ साल पहले इसकी शुरूआत हो भी चुकी है। सोशल मीडिया पर नजर दौड़ाई जाए तो पाएंगे कि केवल भारत ही नहीं, बल्कि इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान व कई अरब देशों में बकरे, ऊंट व गाय की कुर्बानी के स्थान पर कुर्बानी के केक काटने की शुरूआत हो चुकी है। जरूरत है इस बदलाव को जमीनी स्तर पर उतारने व जन-जन तक पहुंचाने की ताकि हर कोई कहे, 'ईद मुबारक।'
दरअसल, थोक में जानवरों की कुर्बानी के खिलाफ पूरी दुनिया में आवाजें पहले भी उठती रही हैं। बॉलीवुड एक्टर दिवंगत इरफान खान ने भी बीते रमजान में कहा था कि लोग बिना इसका मतलब और पीछे का संदेश जाने अंधानुकरण कर रहे हैं। कुर्बानी का मतलब अपनी कोई प्यारी सी चीज या किसी बुरी आदत को कुर्बान करना है, न कि ईद से दो दिन पहले एक बकरा खरीद लो और उसकी कुर्बानी दे दो- यह तो कोई कुर्बानी नहीं हुई न ?
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बेशक, अगर हम अपने खासमखास पर्वों को मनाने के तरीके में समयानुकूल कुछ बदलाव कर दें, तो क्या बुराई है। यानी पर्व इस तरह आयोजित हों ताकि सृष्टि का संतुलन न बिगड़ पाये। ईद से कुछ दिन पहले से ही सोशल मीडिया पर ईद पर पशुओं की बलि के वीडियो वायरल होने लगते हैं, उन्हें देखकर पत्थर दिल भी पसीज जाता है। इन सबके चलते भविष्य में पार्यवरण हितैषी ईद मनाने के संबंध में एक सार्थक चर्चा तो शुरू हो ही गई है और इसको आगे बढ़ाने की जरूरत है। बात सिर्फ ईद तक ही सीमित नहीं है, दरअसल हरित दिवाली, गणेशोत्सव और होली मनाई भी जाने लगी है, हालांकि इनको और गति देने की जरूरत है।
कोरोना वायरस के चलते दुनिया में नए सिरे से बहस छिड़ चुकी है कि हमें मांसाहार करना चाहिए या नहीं ? मांसाहार व कम हो रहे वनों के चलते जंगली जानवरों व मानव का संपर्क बढ़ने लगा है जिससे जानवरों से जुड़ी बीमारियां मनुष्य को घेरने लगी हैं। पिछली सदी में प्लेग, सार्स, इबोला, एड्स जैसी नामुराद बीमारियां जिन्होंने लाखों-करोड़ों इंसानों की जिंदगियां लील लीं वे जानवरों से ही मानव को मिलीं। जब कोई जानवरों के मांस का उपयोग करता है या इनके संपर्क में आता है तो लाख सावधानियों के बावजूद वह संक्रमित होने से अपने आप को बचा नहीं पाता। इन बीमारियों से बचने के लिए जरूरी हो गया है कि मनुष्य शाकाहार की तरफ मुड़े जोकि उसकी स्वाभाविक प्रकृति भी है।
दूसरी ओर मांस, चमड़े व अन्य जरूरतों के साथ-साथ शौकपूर्ति के लिए जानवरों की हो रही हत्याओं व शिकार से प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है। देश में गोमांस पर की गई सख्ती के बाद बीफ की पूर्ति के लिए कत्लगाहों में भैंसों की अंधाधुंध मांग बढ़ रही है। इससे कई स्वदेशी नस्ल की भैंसों के अस्तित्व पर संकट खड़ा होने लगा है। केवल भैंसें ही नहीं निरंतर कुर्बानी के चलते ऊंटों, बकरे-बकरियों, भेड़ों की कई नस्लें अस्तित्व के संकट में आ गई हैं। अगर यह क्रम यूं ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देश को दुधारू पशुओं की कमी से जूझना पड़ेगा और इसका सीधा असर देश की कृषि, स्वास्थ्य व अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
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वैसे तो हर समाज की अपनी रीति-नीति व गति है और दुनिया में शुरू हुए इको फ्रेंडली ईद के प्रचलन ने दिखा दिया है कि राज व्यवस्था व धर्म गुरुओं के बिना भी समाज अपने भीतर सुधार की प्रक्रिया शुरू कर सकता है। शुरूआती दौर में हर सुधार को विरोध के चरण से गुजरना पड़ता ही है और इको फ्रेंडली ईद का विरोध भी स्वाभाविक है। इससे घबराने की नहीं बल्कि आगे बढ़ते रहने व सुधार की गति तेज करने की जरूरत है। इस्लामिक धर्मगुरुओं, उलेमाओं, बुद्धिजीवियों का भी दायित्व बनता है कि वे मजहब की परम्पराओं की समयानुकूल, मानवतावादी, आधुनिक व्याख्याएं समाज को दें। इतिहास साक्षी रहा है कि दारा शिकोह, रहीम, रसखान, साईं मीयां मीर जैसे लाल पैदा करने वाले भारत के इस्लामिक समाज ने पूरे इस्लामिक जगत को मार्ग दिखाया है। आशा है कि भारत का इस्लामिक समाज ईद को भी आधुनिक व मानवतावादी रूप देने में सफल होगा, तब हर कोई मन से कहेगा 'ईद मुबारक।'
-राकेश सैन
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