पाकिस्तान जा रहे अपने हिस्से के पानी को रोकने में बरसों लग जाएंगे
स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह संधि ही सारे फसाद की जड़ है। कश्मीर की बेरोजगारी तथा आर्थिक विकास न होने के लिए भी यही दोषी ठहराई जा सकती है। इस संधि के तहत कश्मीर सरकार अपने यहां बहने वाले तीनों दरियाओं के पानी को एकत्र कर नहीं रख सकती।
पंजाब में बहने वाली तीन दरियाओं के पानी को पाकिस्तान जाने से रोकने का फैसला भारत सरकार की नाकामी को दर्शाता है क्योंकि इतने सालों से वह उस पानी को रोक ही नहीं सकी जो उसके हिस्से का था। अब पुलवामा हमले के बाद इस दिशा में जो घोषणा की गई है वे कोई नई नहीं है क्योंकि शाहपुर कंडी बांध और उझ बांध की मंजूरी पिछले साल ही दी जा चुकी है जबकि इस घोषणा के प्रति एक कड़वी सच्चाई यह है कि पाकिस्तान जा रहे अपने हिस्से के पानी को रोकने में बरसों लगेंगे। ऐसे में अगर सिंधु जलसंधि तोड़ भी जाती है तो जम्मू-कश्मीर के दरियाओं के पानी को पाकिस्तान जाने से रोकना खाला जी का घर नहीं होगा।
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सच्चाई तो यह है कि कश्मीर की हालत यह है कि वह पानी पाने तथा उसके इस्तेमाल के लिए लड़ाई भी नहीं कर सकता क्योंकि उसका सही झगड़ा तो पाकिस्तान के साथ है जिस कारण न ही वह खेतों की सिंचाई के लिए पानी रोक सकता है और न ही अतिरिक्त बिजली घरों की स्थापना कर सकता है। यही कारण है कि पिछले 60 सालों से इस झगड़े के कारण वह प्रतिवर्ष अनुमानतः 8000 करोड़ की चपत सहन करने को मजबूर है।
यह चौंकाने वाला तथ्य है कि 19 सितम्बर 1960 को पाकिस्तान के साथ हुई सिंधु जलसंधि के दुष्परिणामस्वरूप कश्मीर को उन तीन पूर्वी दरियाओं पर बांध बनाने या सिंचाई की खातिर पानी रोकने को बैराज बनाने की अनुमति नहीं है जिसे एक तरह से इस संधि के तहत पाकिस्तान के हवाले किया जा चुका है। इतना जरूर है कि कश्मीरी जनता की कीमत पर जिन तीन तीन पश्चिमी दरियाओं- रावी व्यास और सतलुज के पानी को भारत ने अपने पास रखा था वे आज पंजाब तथा उसके पड़ोसी राज्यों के बीच झगड़े की जड़ बने हुए हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह संधि ही सारे फसाद की जड़ है। कश्मीर की बेरोजगारी तथा आर्थिक विकास न होने के लिए भी यही दोषी ठहराई जा सकती है। इस संधि के तहत कश्मीर सरकार अपने यहां बहने वाले तीनों दरियाओं के पानी को एकत्र कर नहीं रख सकती। अर्थात् उसे ऐसा करने का कोई हक नहीं तो साथ ही इन दरियाओं पर बनने वाले बांधों की अनुमति भी पाकिस्तान से लेनी पड़ती है। तभी तो दरिया चिनाब पर बन रही बग्लिहार पन बिजली परियोजना में पाकिस्तान अडंगा अड़ाए हुए है। इस परियोजना के डिजाइन के प्रति उसे आपत्ति है कि यह परियोजना प्रतिदिन 7000 क्यूसेक पानी के बहाव को प्रभावित करेगी।
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पाकिस्तान की बात तो भारत सरकार भी सुनती है। तभी तो पाक विशेषज्ञों की टीम को बग्लिहार परियोजनास्थल के निरीक्षण की अनुमति दे दी गई थी लेकिन जम्मू-कश्मीर सरकार की बातों को तो सुना-अनसुना कर दिया जाता रहा है। वह इसके प्रति भी कोई जवाब देने को तैयार नहीं है कि प्रतिवर्ष इस जलसंधि के कारण राज्य को होने वाले 8000 करोड़ रुपए के घाटे की भरपाई कौन करेगा। फिलहाल केंद्र ने न ही इसके प्रति कोई आश्वासन दिया है और न ही उसने कोई धनराशि बतौर भरपाई राज्य को दी है।
इस मुद्दे को माकपा विधायक युसूफ तारीगामी वर्ष 2001 में विधानसभा में उठा चुके हैं। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती भी मुद्दे के प्रति गंभीर हैं। मगर वर्तमान सरकार कोई ऐसा कदम नहीं उठा पाई है जिससे जलसंधि से होने वाली क्षति की भरपाई हो सके। इतना जरूर था कि तत्कालीन नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने तो इस जलसंधि को समाप्त करने के लिए बाकायदा एक नोट केंद्र सरकार को भिजवा दिया था। परंतु कोई प्रतिक्रिया केंद्र की ओर से व्यक्त नहीं की गई क्योंकि वह जानता था कि सिंधु जलसंधि को समाप्त कर पाना इतना आसान नहीं है जितना समझा जाता रहा है। असल में 19 सितम्बर 1960 को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच हुई इस जलसंधि को विश्व बैंक की गारंटी तो है ही साथ ही इस संधि में आस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, न्यूजीलैंड, ब्रिटेन तथ अमेरिका भी सीधे तौर पर शामिल हैं।
हालांकि भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद उड़ी और पुलवामा के हमलों के बाद यह चर्चाएं जोरों पर थीं कि भारत जलसंधि को समाप्त कर पाकिस्तान पर इस ‘परमाणु बम’ को फोड़ सकता है। लेकिन कुछ ऐसा होता दिख नहीं रहा है और जम्मू कश्मीर की जनता को उसी स्थिति में छोड़ दिया गया था जिसमें वह थी। याद रहे कि संधि को तोड़ने का सीधा अर्थ है कि पाकिस्तान को आर्थिक रूप से पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देना। पाकिस्तान भी इस सच्चाई से वाकिफ है। यहां तक कि पाकिस्तान इसे भी जानता है कि अगर इन तीनों दरियाओं के पानी के एक प्रतिशत को भी भारत रोक ले तो पाकिस्तान की कम से कम 14 लाख जनता अपने खेतों को पानी देने से वंचित हो जाएगी।
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और मुश्किल जम्मू कश्मीर की जनता की यह है कि वह पड़ोसी मुल्क के साथ होने वाली संधि के कारण नुकसान उठाने को मजूबर है पिछले 60 सालों से। यह कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता क्योंकि भारत सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए है तो जम्मू-कश्मीर के सूखे पड़े हुए खेत पानी की आस में केंद्र की ओर जरूर टकटकी लगाए हुए हैं।
-सुरेश डुग्गर
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