करोड़ों का पुल गिर गया पर बिहार सरकार की सेहत पर जरा-सा भी फर्क नहीं पड़ा

aguwani sultanganj ganga bridge
Prabhasakshi
ललित गर्ग । Jun 7 2023 10:40AM

हादसों की जांच से काम नहीं चलने वाला। ऐसे निर्माण कार्यों में कमीशन-रिश्वतखोरी रोकने पर खास ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि जब ठेकेदार एक बड़ी राशि कमीशन के तौर पर दे देता है, तो फिर वह निर्माण कार्य भी गुणवत्ता बनाए रखने के प्रति लापरवाह हो जाता है।

बिहार के भागलपुर में गंगा नदी पर करीब 1700 करोड़ रुपए की लागत से बन रहे पुल के ढह जाने की घटना ने एक बार फिर यही साबित किया है कि निर्माण कार्यों में फैले व्यापक भ्रष्टाचार और शासन तंत्र में बैठे लोगों की मिलीभगत के बीच ईमानदारी, नैतिकता, जिम्मेदारी या संवेदनशीलता जैसी बातों की जगह नहीं है। आज हमारी व्यवस्था चाहे राजनीति की हो, सामाजिक हो, पारिवारिक हो, धार्मिक हो, औद्योगिक हो, शैक्षणिक हो, चरमरा गई है, दोषग्रस्त हो गई है। उसमें दुराग्रही इतना तेज चलते हैं कि ईमानदारी बहुत पीछे रह जाती है। जो सद्प्रयास किए जा रहे हैं, वे निष्फल हो रहे हैं। पुल के गिरने से जितने पैसों की बर्बादी हुई, उसकी भरपाई आखिर किससे कराई जाएगी? बिहार में पुल गिरने की ताजा घटना कोई पहली नहीं है। इससे पहले पिछले साल भर में सात पुलों के ढह जाने की खबरें आईं। पुलों के गिरने के लिए उसे बनाने वाली कंपनी की लापरवाही और भ्रष्टाचार जितना जिम्मेदार है, उससे ज्यादा जिम्मेदारी शासक एवं प्रशासक की है।

आजादी के अमृत-काल में पहुंचने के बाद भी भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, बेईमानी हमारी व्यवस्था में तीव्रता से व्याप्त है, अनेक हादसों एवं जानमाल की हानि के बावजूद भ्रष्ट हो चुकी मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं होता। गनीमत यह रही कि ताजा हादसे के समय पुल पर मजदूर काम नहीं कर रहे थे, वरना बड़ी जनहानि हो सकती थी। करीब सात महीने पहले हुए गुजरात के मोरबी पुल हादसे को लोग अब भी नहीं भूले हैं। इस हादसे में 135 लोगों की मौत हो गई थी। सात साल पहले कोलकाता में विवेकानंद पुल के ढहने से 26 लोगों की मौत की घटना भी सबको याद होगी। अचरज इस बात का है कि बिहार में रविवार को जो पुल ढहा वह पिछले साल भी ढह चुका था। इसके बावजूद सरकार ने न तो कोई सबक लिया और न ही किसी के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई की। यह जाहिर करता है कि सरकार, प्रशासन एवं ठेकेदारों के बीच कितनी सुदृढ़ मिलीभगत है।

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बिहार में गंगा नदी पर बन रहे इस पुल का निर्माण 2014 में शुरू हुआ था और इसे 2019 में ही पूरा हो जाना था। चार साल बाद भी वह पूरा बनकर तैयार क्यों नहीं हुआ, यह भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। देश का दुर्भाग्य है कि हादसे में अगर किसी की जान चली जाए तो हाय तौबा मच जाती है, अन्यथा ऐसे हादसों पर चर्चा तक नहीं होती। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों को दरकिनार कर दिया जाए, तो हादसे कमोवेश हर राज्य में और हर दल की सरकार के कार्यकाल में होते रहते हैं। विकसित देशों में भी ऐसे हादसे होते हैं, लेकिन अंतर यह है कि भारत में ऐसे हादसों से सबक नहीं लिया जाता। यह प्रवृत्ति दुर्भाग्यपूर्ण है। विडम्बना देखिये कि ऐसे भ्रष्ट शिखरों को बचाने के लिये सरकार कितने सारे झूठ का सहारा लेती है। हैरानी की बात यह है कि जब पुल के गिरने की घटना उसके वीडियो सहित सुर्खियों में आ गई तब सरकार की ओर से यह सफाई आई कि चूंकि इस पुल का डिजाइन गलत था और जोखिम से भरा था, इसलिए इसे गिराया जाना तय था। इतना तय है कि एक ही पुल अगर दो बार भरभरा कर गिरा तो यह डिजाइन गलत होने से लेकर उसमें उपयोग होने वाली सामग्री के घटिया होने का भी साफ संकेत है। लेकिन जिस तरह सरकार उस पुल की गुणवत्ता और जोखिम का अध्ययन करा रही थी, क्या उसके निर्माण के दौरान या उससे पहले डिजाइन सहित उसके हर कसौटी पर बेहतर होने के लिए जांच कराना सुनिश्चित नहीं कर सकती थी?

दूसरी बार गिर गये इस पुल को लेकर सरकारी दावे सामने आते रहे कि जल्दी ही इस पुल का निर्माण कार्य पूरा कर जनता के लिए खोल दिया जाएगा। जबकि बनने से पहले दो बार गिर चुका पुल कैसे जनता के लिये सुरक्षित हो सकता है? अगर उस पर वाहनों और लोगों की आवाजाही रहती तो अंजाम की त्रासदी का अंदाजा लगाया जा सकता है। बावजूद सच को झूठ साबित करने में जुटी सरकार इसको जानबूझकर गिराये जाने की बात कह कर भ्रष्टाचार को ढंकने की नाकाम कोशिश कर रही है। फिर भी इसे स्पष्ट किए जाने की जरूरत है कि पुल खुद ढह गया या फिर उसे गिराया गया। दोनों ही स्थितियों में यह तय है कि पुल के निर्माण में व्यापक खामियां थीं और वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। सवाल है कि जब सरकार किसी कंपनी को पुल निर्माण की जिम्मेदारी सौंप रही थी, उससे पहले क्या गुणवत्ता की कसौटी पर पूरी निर्माण योजना, डिजाइन, प्रक्रिया, सामग्री, समय-सीमा और संपूर्णता को सुनिश्चित किया जाना जरूरी समझा गया था?

देश में भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है, विशेषतः राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने देश के विकास को अवरुद्ध कर रखा है। यही कारण है कि पुल या दूसरे निर्माण-कार्यों के लिए रखे गए बजट का बड़ा हिस्सा कमीशन-रिश्वतखोरी की भेंट चढ़ जाता है। इसका सीधा असर निर्माण की गुणवत्ता पर पड़ता है। निर्माण घटिया होगा तो फिर उसके धराशायी होने की आशंका भी बनी रहती है। हादसों का एक बड़ा कारण जांच में दोषी और जिम्मेदार ठहराए गए अधिकारियों एवं ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का न होना भी है। मोरबी हादसे के दोषियों को बचाने के प्रयास भी सबके सामने हुए हैं। हर हादसे के बाद लीपापोती के प्रयास खूब होते हैं। हादसे में मरने वालों के परिजनों को मुआवजा बांटकर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी समझने वाली सरकारों को इससे आगे बढ़ना होगा। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की पारदर्शी नीति नियामक केन्द्र बनाने के साथ उस पर अमल भी जरूरी है।

हादसों की जांच से काम नहीं चलने वाला। ऐसे निर्माण कार्यों में कमीशन-रिश्वतखोरी रोकने पर खास ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि जब ठेकेदार एक बड़ी राशि कमीशन के तौर पर दे देता है, तो फिर वह निर्माण कार्य भी गुणवत्ता बनाए रखने के प्रति लापरवाह हो जाता है। लापरवाही की परिणति ऐसे हादसों के रूप में सामने आती है। प्रगतिशील कदम उठाने वाले नेतृत्व ने अगर भ्रष्ट व्यवस्था सुधारने में मुक्त मन से सहयोग नहीं दिया तो कहीं हम अपने स्वार्थी उन्माद एवं भ्रष्टता में कोई ऐसा धागा नहीं खींच बैठें, जिससे पूरा कपड़ा ही उधड़ जाए। राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार के मामले में एक-दूसरे के पैरों के नीचे से फट्टा खींचने का अभिनय तो सभी दल एवं नेता करते हैं पर खींचता कोई भी नहीं। रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं पर चन्द्रगुप्त किसी के पास नहीं है। घोटालों और भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनैतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। कारण अपने गिरेबां में तो सभी झांकते हैं वहां सभी को अपनी कमीज दागी नजर आती है, फिर भला भ्रष्टाचार से कौन निजात दिरायेगा? ऐसी व्यवस्था कब कायम होगी कि जिसे कोई ''रिश्वत'' छू नहीं सके, जिसको कोई ''सिफारिश'' प्रभावित नहीं कर सके और जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सके। ईमानदारी अभिनय करके नहीं बताई जा सकती, उसे जीना पड़ता है कथनी और करनी की समानता के स्तर तक। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। तभी इन भ्रष्ट पुलों का भर-भराकर गिरना बन्द होगा।

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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