आधुनिक भारत की आर्थिक क्रांति के सूत्रधार थे मनमोहन सिंह

Manmohan Singh
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22 मई 2004 से 26 मई 2014 तक दो बार भारत के प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह की छवि बेहद कम बोलने वाले और शांत रहने वाले व्यक्ति की रही। हालांकि जब भी वे कुछ बोलते थे, वह सुर्खियां बन जाती थी।

देश के आर्थिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारत के 14वें प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के निधन के साथ ही एक ऐसे नेता के युग का अंत हो गया, जिसने आधुनिक भारत के आर्थिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मनमोहन सिंह ने 92 वर्ष की उम्र में 26 दिसंबर की रात दिल्ली के एम्स अस्पताल में अंतिम सांस ली। अपने शांत स्वभाव और बौद्धिक कौशल के लिए जाने जाने वाले मनमोहन सिंह ने भारत में ऐतिहासिक आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत करने में अहम भूमिका निभाई थी। 1991 में व्यापक सुधारों का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को खोला, तथाकथित लाइसेंस-परमिट राज को खत्म किया और वैश्विक मंच पर भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनने के मार्ग पर मजबूती से स्थापित किया। एक शिक्षाविद, अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी यात्रा न केवल प्रेरणादायक रही बल्कि उनके द्वारा किए गए आर्थिक सुधारों और राजनीतिक निर्णयों ने भारत के इतिहास में एक नई दिशा दी। उन्हें आधुनिक भारत के आर्थिक सुधारों का वास्तुकार भी कहा जाता है।

डा. मनमोहन सिंह ने जुलाई 1991 में अपने बजट भाषण के अंत में कहा था कि दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है, मैं इस सम्मानित सदन को सुझाव देता हूं कि भारत का दुनिया की प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उदय एक ऐसा विचार है, जिसका समय अब आ चुका है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने आर्थिक विकास में उल्लेखनीय वृद्धि की। 2004 से 2014 तक भारत 10वें स्थान से उठकर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था, जिससे लाखों लोगों का जीवन स्तर सुधरा और गरीबी में कमी आई थी। मनमोहन सिंह ने एक दशक से भी ज्यादा समय तक अभूतपूर्व विकास और वृद्धि की दिशा में देश को नेतृत्व प्रदान किया। उनके द्वारा किए गए प्रमुख सुधारों में उदारीकरण के तहत लाइसेंस राज की समाप्ति और व्यवसाय शुरू करने के लिए सरल प्रक्रियाओं का निर्माण, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के दरवाजे खोलना और विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित करना, कर ढ़ांचे को सरल और पारदर्शी बनाना, भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए बाजार पर आधारित सुधार लागू करना, ग्रामीण रोजगार और गरीबी उन्मूलन के लिए ‘मनरेगा’ लागू करना शामिल हैं। इन सुधारों ने भारत को आर्थिक संकट से बाहर निकाला और उसे विश्व अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया।

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भारत ने डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान ऐतिहासिक वृद्धि दर देखी, जो औसतन 7.7 प्रतिशत रही और उसी के परिणामस्वरूप भारत करीब दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में सफल रहा था। उन्हें न केवल उनके विजन के लिए जाना जाता है, जिसने भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनाया बल्कि उनकी कड़ी मेहनत और उनके विनम्र, मृदुभाषी व्यवहार के लिए भी जाना जाता है। वह एक ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जिन्हें न केवल उन कार्यों के लिए स्मरण किया जाता रहेगा, जिनके जरिये उन्होंने भारत को आगे बढ़ाया बल्कि एक विचारशील और ईमानदार व्यक्ति के रूप में भी याद किया जाएगा। उन्होंने न केवल आर्थिक विकास की गति को बनाए रखा बल्कि सामाजिक और विकासशील नीतियों पर भी जोर दिया। हालांकि उनका कार्यकाल आलोचनाओं से भी अछूता नहीं रहा। अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें आर्थिक चुनौतियों और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा और निर्णय लेने में धीमापन उनकी सरकार के लिए नकारात्मक साबित हुए। 2जी घोटाला उनके कार्यकाल के सबसे बड़े विवादों में से एक रहा। इसके अलावा कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले को ‘कोलगेट’ के नाम से जाना गया। उनके दूसरे कार्यकाल में आर्थिक सुधारों की गति धीमी रही।

22 मई 2004 से 26 मई 2014 तक दो बार भारत के प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह की छवि बेहद कम बोलने वाले और शांत रहने वाले व्यक्ति की रही। हालांकि जब भी वे कुछ बोलते थे, वह सुर्खियां बन जाती थी। मनमोहन सिंह ने ही कहा था कि राजनीति में लंबे समय तक कोई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। वह कहा करते थे कि मैं एक खुली किताब की तरह हूं और मेरे दस वर्ष का कार्यकाल इतिहासकारों के मूल्यांकन का विषय है। उन्होंने 27 अगस्त 2012 को संसद में कहा था कि हजारों जवाबों से अच्छी मेरी खामोशी है, जिसने न जाने कितने सवालों की आबरू रखी। डा. मनमोहन सिंह को उनके अलोचकों द्वारा ‘मूक प्रधानमंत्री’ की संज्ञा दी जाती थी लेकिन उन्होंने आमतौर पर इस पर कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं दी। इस पर उनकी पहली प्रतिक्रिया दिसंबर 2018 में उनकी पुस्तक ‘द चेजिंग इंडिया’ के विमोचन के अवसर पर सामने आई थी, जब उन्होंने कहा था कि जो लोग कहते हैं कि मैं एक मूक प्रधानमंत्री था, मुझे लगता है कि मेरी ये पुस्तकें बोलती हैं।

बतौर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह लोकसभा में 23 मार्च 2011 को विपक्ष के सवालों का जवाब दे रहे थे। उस दौरान सदन में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने उन पर तंज करते हुए कहा था, ‘तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि कारवां क्यों लुटा, मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।’ इसके जवाब में डा. मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘माना के तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक तो देख मेरा इंतजार तो देख।’ डा. मनमोहन सिंह ने जनवरी 2014 में बतौर प्रधानमंत्री अपनी आखिरी प्रेस कांफ्रैंस में मीडिया के उन सवालों का जवाब देते हुए, जिनमें कहा गया था कि उनका नेतृत्व कमजोर है और कई अवसरों पर वे निर्णायक नहीं रहे, कहा था कि मैं यह नहीं मानता कि मैं एक कमजोर प्रधानमंत्री रहा हूं बल्कि मैं ईमानदारी से यह मानता हूं कि इतिहास मेरे प्रति समकालीन मीडिया या संसद में विपक्ष की तुलना में ज्यादा उदार होगा, राजनीतिक मजबूरियों के बीच मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है। उन्होंने कहा था कि परिस्थितियों के अनुसार मैं जितना कर सकता था, उतना किया। यह इतिहास को तय करना है कि मैंने क्या किया है या क्या नहीं किया है। उनका कहना था कि मुझे उम्मीद है कि मीडिया की तुलना में इतिहास मेरा मूल्यांकन करते समय ज्यादा उदार होगा।

26 सितंबर 1932 को पंजाब (अब पाकिस्तान में) के गांव गाह में जन्मे मनमोहन सिंह का परिवार विभाजन के समय भारत आ गया था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हुई थी, जिसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गए, जहां उन्होंने अर्थशास्त्र में ट्रिपोस किया और फिर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी.फिल की उपाधि प्राप्त की। उनकी उच्च शिक्षा ने उन्हें न केवल एक उत्कृष्ट अर्थशास्त्री बनाया बल्कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य और आर्थिक सोच की गहराई भी प्रदान की। अपने कैरियर की शुरुआत उन्होंने भारतीय सिविल सेवा से की और बाद में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और भारतीय रिजर्व बैंक जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में भी कार्य किया। वे 1982 से 1985 तक भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे और उस दौरान उन्होंने वित्तीय स्थिरता बनाए रखने तथा मुद्रा प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत के आर्थिक इतिहास में 1991 का वर्ष एक निर्णायक मोड़ था क्योंकि उस समय देश गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री नियुक्त किया। वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने साहसिक आर्थिक सुधारों का नेतृत्व किया, जिनमें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण प्रमुख थे। बहरहाल, राजनीति में डा. मनमोहन सिंह जैसे विद्वान बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। उनकी सरकार के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी हमेशा संदेह से परे रही। वह एक ऐसा राजनेता थे, जिन्हें राजनीतिक सीमाओं से परे सम्मान प्राप्त था। कुल मिलाकर, तमाम आलोचनाओं के बावजूद डा. मनमोहन सिंह एक ऐसे नेता के रूप में याद किए जाएंगे, जिन्होंने भारत को वैश्विक मंच पर सम्मानजनक स्थान दिलाया और भारत को आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से एक मजबूत राष्ट्र बनाने में अहम योगदान दिया।

- योगेश कुमार गोयल

(लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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