देश संविधान से चलेगा या शरियत से? All India Muslim Personal Law Board ने जो पांच प्रस्ताव पारित किये वह गलत संदेश दे रहे हैं

All India Muslim Personal Law Board
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने अध्यक्ष खालिद सैफुल्लाह रहमानी को यह सुनिश्चित करने के लिए अधिकृत किया है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले को ‘पलटने’ के लिए सभी ‘कानूनी संवैधानिक और लोकतांत्रिक’ उपायों को शुरू किए जाए।

मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के भरण-पोषण पर उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले की देशभर में सराहना हुई मगर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे इस्लामी कानून (शरीयत) के खिलाफ करार दिया है। सवाल उठता है कि देश संविधान से चलेगा या इस्लामी कानून से? इसके अलावा बोर्ड ने उत्तराखंड में लागू समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को राज्य के उच्च न्यायालय में चुनौती देने का भी निर्णय लिया। बोर्ड ने अपनी कार्यसमिति की बैठक में पांच प्रस्ताव पारित किए। बैठक में यह भी संकल्प लिया गया कि वक्फ संपत्तियां मुसलमानों द्वारा खास परोपकारी उद्दश्यों के लिए बनाई गई विरासत हैं, और इसलिए, सिर्फ उन्हें ही इसका एकमात्र लाभार्थी होना चाहिए। बोर्ड ने वक्फ कानून को कमजोर करने या खत्म करने के सरकार की किसी भी कोशिश की कड़ी निंदा की। बोर्ड की ओर से पारित प्रस्ताव में कहा गया कि संसदीय चुनावों के परिणामों से संकेत मिलता है कि देश की जनता ने ‘‘घृणा और द्वेष’’ पर आधारित एजेंडे के प्रति अपनी गहरी नाराजगी व्यक्त की है। बोर्ड के बयान में कहा गया है, ‘‘उम्मीद है कि अब भीड़ द्वारा हत्या का उन्माद खत्म हो जाएगा। सरकार भारत के वंचित और हाशिए पर पड़े मुसलमानों और निचली जातियों के नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के अपने दायित्वों को पूरा करने में विफल रही है।’’ 

एक अन्य प्रस्ताव में बोर्ड ने उपासना स्थल अधिनियम के कार्यान्वयन पर जोर दिया। बयान में कहा गया है, ''यह बहुत चिंता की बात है कि निचली अदालतें ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह से जुड़े नए विवादों पर किस तरह से विचार कर रही हैं। बोर्ड का मानना है कि बाबरी मस्जिद पर अपना फैसला सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा था कि 'पूजा स्थल अधिनियम 1991' ने अब ऐसे सभी (मामलों के) दरवाजे बंद कर दिए हैं।” बयान में कहा गया है कि बोर्ड को उम्मीद है कि उच्चतम न्यायालय सभी नए विवादों और मामलों को समाप्त कर देगा।

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जहां तक मुस्लिम महिलाओं के संबंध में उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले की बात है तो उस संदर्भ में कहा गया है कि मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के भरण-पोषण पर उच्चतम न्यायालय का हालिया फैसला ‘‘इस्लामी कानून (शरीयत) के खिलाफ है।’’ बैठक के बाद जारी एक बयान में एआईएमपीएलबी ने कहा कि पैगंबर मोहम्मद ने जिक्र किया था कि अल्लाह की निगाह में सबसे बुरा काम तलाक देना है, इसलिए शादी को बचाने के लिए सभी उपायों को लागू करना चाहिए और इस बारे में कुरान में जिन दिशा-निर्देशों का जिक्र है, उनका पालन करना चाहिए। बयान में कहा गया है कि अगर शादी को जारी रखना मुश्किल है तो मानव जाति के लिए समाधान के तौर पर तलाक की व्यवस्था की गई है। बयान के मताबिक, बोर्ड मानता है कि इस फैसले से उन महिलाओं के लिए और भी समस्याएं पैदा होंगी जो अपने पीड़ादायक रिश्ते से सफलतापूर्वक बाहर निकल चुकी हैं।

बोर्ड के प्रवक्ता एस.क्यू.आर. इलियास ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि एआईएमपीएलबी ने अपने अध्यक्ष खालिद सैफुल्लाह रहमानी को यह सुनिश्चित करने के लिए अधिकृत किया है कि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले को ‘पलटने’ के लिए सभी ‘कानूनी संवैधानिक और लोकतांत्रिक’ उपायों को शुरू किए जाए। 

गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मुस्लिम महिला दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण की मांग कर सकती है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि “धर्म तटस्थ” प्रावधान सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अगर मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम कानून के तहत विवाहित हैं और तलाकशुदा हैं, तो सीआरपीसी की धारा 125 के साथ-साथ मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 के प्रावधान लागू होते हैं। अदालत ने कहा कि मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के पास विकल्प है कि वे दोनों में से किसी एक कानून या दोनों कानूनों के तहत राहत मांगें। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि ऐसा इसलिए है कि 1986 का अधिनियम सीआरपीसी की धारा 125 का उल्लंघन नहीं करता है, बल्कि उक्त प्रावधान के अतिरिक्त है।

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