ये हैं भारत की वो 7 वीरांगनाएं जिनके नाम से थर-थर कांपते थे मुगल और अंग्रेज शासक
अंग्रेजों ने करीब 150 सालों तक भारत में राज किया। उसके बाद स्वतंत्रता सेनानियों की मेहनत रंग लाई और 15 अगस्त, 1947 के देश आजाद हो गया लेकिन हम बात अंग्रेजों की नहीं बल्कि भारत पर हुए हमलों की कर रहे हैं, जिनके सामने पहाड़ की तरफ वीरांगनाएं खड़ी हो गईं।
आजाद भारत का इतिहास अपने आप में एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। बहुत से वीरों और वीरांगनाओं ने इस धरा को क्रूर शासकों और अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए समय-समय पर सशत्र विद्रोह किया है। कुछ महारथियों और महारानियों इसमें सफल भी हुईं तो कुछ विफल होने के बावजूद स्वतंत्रता की चिंगारी लगाने में सफल हुए। आज हम बात करेंगे भारत की उन सात वीरांगनाओं के बारे में जिनके जज्बे के सामने मुहम्मद ग़ौरी भी नहीं टिक पाया था।
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अंग्रेजों ने करीब 150 सालों तक भारत में राज किया। उसके बाद स्वतंत्रता सेनानियों की मेहनत रंग लाई और 15 अगस्त, 1947 के देश आजाद हो गया लेकिन हम बात अंग्रेजों की नहीं बल्कि भारत पर हुए हमलों की कर रहे हैं, जिनके सामने पहाड़ की तरफ वीरांगनाएं खड़ी हो गईं और उनकी बहादुरी को देख बड़े-से-बड़े क्रूर शासक अपना मनोबल खो बैठा।
नायकी देवी रानी
नायकी देवी ने अकेले अपने दम पर मुहम्मद ग़ौरी को भागने के लिए मजबूर कर दिया था। जिसके बाद मुहम्मद ग़ौरी ने 15 सालों तक गुजरात की तरफ देखने की हिम्मत तक नहीं की। नायकी देवी, एक वीरांगना, जिनकी सुंदरता के कई किस्से इतिहास में कैद हैं।
महाराजा शिवचित्ता परमांडी की बेटी नायकी देवी बचपन से ही युद्ध कला में निपुण थीं और समय के साथ-साथ कुशल कूटनीतिज्ञ भी बन गई थी। नायकी देवी का विवाह अजयपाल सिंह के साथ हुआ और वह गुजरात की रानी बन गई। लेकिन 1176 ईस्वी में अजयपाल सिंह की हत्या उन्हीं के अंगरक्षक ने की थी। जिसके बाद रानी नायकी देवी ने अपने पुत्र के साथ राज्य की सत्ता संभाली। उस वक्त मुहम्मद ग़ौरी की बुरी नजर रानी नायकी देवी के साम्राज्य पर थी और उसने रानी नायकी देवी की सुंदरता के किस्से भी सुने थे। ऐसे में वो साम्राज्य के साथ-साथ रानी नायकी देवी को भी जीतना चाहता था लेकिन भारत की वीरांगना ने ऐसा सबक सिखाया कि मुहम्मद ग़ौरी बुरी तरह से परास्त हो गया था।
1178 ईस्वी में रानी नायकी देवी ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ा से 40 मील दूर आबू पर्वत के पास मुहम्मद ग़ौरी के खिलाफ युद्ध लड़ा था। उस वक्त मुहम्मद ग़ौरी ने रानी नायकी देवी को संदेश भिजवाया था कि रानी और उसके बच्चों के साथ-साथ राज्य की सभी महिलाओं एवं कन्याओं को धन दौलत समेत मुझे सौंप दो लेकिन रानी नायकी देवी ने मुहम्मद ग़ौरी को सबक सिखाने का प्रण लिया और कहानी आप सभी को पता है कि क्या कुछ हुआ।
रामप्यारी गुर्जर
दिल्ली पर कब्जा करने की ख्वाहिश रखने वाले तैमूर के बारे में तो सभी जानते ही हैं। उस वक्त मध्य एशिया से दिल्ली जाते समय उसने 1,00,000 हिंदुओं को पकड़ लिया। जब वह दिल्ली पहुंचा तो उसने उन सभी को मार डाला। तैमूर ने दिल्ली आते वक्त हजारों अन्य लोगों का भी कत्लेआम किया और उनकी संपत्ति लूट कर मंदिरों को धराशायी कर दिया। 1398 ईस्वी में भारत पर क्रूर हमला हुआ था, यह ऐसा दौर था जब चारों तरफ अन्याय, अत्याचार और चीखें ही सुनाई देती थीं लेकिन कहा जाता है कि न हर क्रूर व्यक्ति का एक दिन अंत होता है, बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। रामप्यारी गुर्जर का जन्म सहारनपुर के एक चौहान परिवार में हुआ था और उन्होंने बचपन से ही योद्धा बनने की दिशा की ओर कदम बढ़ा दिए थे। रामप्यारी गुर्जर पर महाबली जोगराज सिंह गुर्जर का खासा प्रभाव था और इन्हीं के नेतृत्व में तैमूर के खिलाफ हमला बोला गया था। कहा तो यहां तक जाता है कि युद्ध में बुरी तरह जख्मी होने के कुछ दिनों बाद ही तैमूर की मौत हो गई थी।
तैमूर की क्रूरता को समाप्त करने के लिए उस वक्त एक महापंचायत बुलाई गई थी, जिसमें तैमूर के अत्याचारों को उजागर किया गया था और सभी के एकजुट होने का आह्वान किया गया था। तब महापंचायत ने तैमूर की सेना के खिलाफ छापामार युद्ध लड़ने की रणनीति बनाई। इसके लिए एक सेना तैयार की गई थी, जिसमें 80,000 योध्दा शामिल हुए थे। इन्हें समर्थन देने के लिए 40,000 महिला योद्धाओं की एक टुकड़ी बनाई गई, जिसकी अगुवाई रामप्यारी गुर्जर कर रही थी।
इस 40,000 महिला योद्धाओं में गुर्जर, जाट, अहिर, राजपूत, हरिजन, वाल्मीकि, त्यागी इत्यादि वीर जातियों की वीरांगनाएं शामिल थीं। इनमें कई महिलाएं तो ऐसी थीं जिन्होंने कभी अस्त्र, शस्त्र उठाए भी नहीं थे लेकिन रामप्यारी गुर्जर के आह्वान में उन्होंने तैमूर के खिलाफ मोर्चा बुलंद किया था।
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अवंतीबाई
स्वतंत्रता की चाहत रखने वालीं कई वीरांगनाओं ने युद्ध लड़ा है, जिन्हें इतिहासकारों ने हमेशा ही नजरअंदाज किया है लेकिन उनकी कहानियां आज भी लोगों के कानों में गूंजती हैं। मुगलों के अलावा अंग्रेजों की क्रूरता की भी कई भयावह कहानियां हैं लेकिन इनकी क्रूरता के खिलाफ कई युद्ध हुए उन्हीं में 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम शामिल है। चलिए आपको कहानी सुनाते हैं। रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य सिंह की तबियत खराब होने की वजह से अंग्रेजों ने जबरदस्ती उनके मामलों में दखल देना शुरू कर दिया था। लेकिन रानी अवंतीबाई लोधी ने उन्हें कई वर्षों तक रोकने की कोशिश की और फिर 1857 में हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गईं। रानी अवंतीबाई लोधी का एक ही उद्देश्य था, भारत की धरती से अंग्रेजों को भगाने का। उस वक्त रानी अवंतीबाई लोधी ने 4000 योद्धाओं की एक सेना बनाई, जिसे देखकर अंग्रेजों ने उनके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था लेकिन रानी अवंतीबाई लोधी की सेना के सामने अंग्रेज टिक नहीं पाए। यह लड़ाई रामगढ़ के नजदीक ही हुई थी। यह पहली लड़ाई थी जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद अंग्रेजों ने बदला लेने की ठान ली और एक विशालकाय सेना के साथ रामगढ़ में धावा बोल दिया। उस वक्त रानी अवंतीबाई लोधी को रामगढ़ से निकलना पड़ा लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें ढूढ़ लिया। इसके बाद अंग्रेज रानी अवंतीबाई लोधी को छू नहीं पाए थे क्योंकि रानी अवंतीबाई लोधी ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए खुद पर प्रहार कर लिया था।
झलकारी बाई
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह एक और वीरांगना इलकारी बाई थीं जिनके सिर पर कोई ताज तो नहीं था लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी धरा के लिए युद्ध छेड़ा हुआ था। इलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड के भोजला गांव में एक निर्धर परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सदोवा और माता का नाम जमुनाबाई था। बचपन से ही साहसी इलकारी बाई का बचपन में ही बाघ से सामना हो गया था और उन्होंने कुल्हाड़ी के एक प्रहार से ही उसका खात्मा कर दिया था। युद्ध कौशल में माहिर इलकारी बाई का विवाह झांसी की सेना के विख्यात योद्धा पूरन कोरी के साथ हुआ। इलकारी बाई की कहानियां बुंदेलखंड में काफी गूंजा करती थी और उनके साहस की कहानियां सुनकर रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें दुर्गा दल की प्रमुख कमांडर नियुक्त किया था। इसके अलावा रानी लक्ष्मीबाई के अहम निर्णयों में झलकारी बाई की अहम भूमिका रहती थी। अंग्रेजों के खिलाफ लड़े गए रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध के बारे में सभी को पता है। जब किले में अंग्रेजी हुकूमत के सिपाही घुस चुके थे तब झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई को किला छोड़ने के लिए कहा और खुद रानी लक्ष्मीबाई के वेश में किले में मोर्चा संभाला था और अंग्रेज भी उन्हें पहचान नहीं पाए थे। तब उन्होंने अंग्रेजों से कहा था कि मुझे फांसी पर लटका दो और उन्होंने ऐसा ही किया। जिसके बाद उन्हें अहसास हुआ कि वो जिसकी तलाश कर रहे थे इलकारी देवी वो नहीं थी।
ताराबाई भोसले
छत्रपति शिवारी महाराज की बहू ताराबाई भोसले मराठा साम्राज्य की एक महान वीरांगना थीं, उन्होंने मुगलों को भारत से मार भगाया था और औरंगजेब जैसे क्रूर शासक को नेस्तनाबूत किया था। ताराबाई भोसले का जन्म 1675 में महाराष्ट्र के तलबीड़ में हुआ। ताराबाई भोसले ने अपने पिता हंबीरराव मोहिते से बचपन में ही राजनीति और युद्धकौशल में महारत हासिल कर ली थी। 1684 में ताराबाई भोसले का विवाह छत्रपति राजाराम महाराज से हुई। 1689 में संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद रायगढ़ को मुगलों ने चारो तरफ से जब घेर लिया था तो वो राजाराम महाराज के साथ रायगढ़ से निकलने में सफल हुई थी।
इसके बाद उन्होंने स्वराज की दिशा की तरफ एक कदम बढ़ाते हुए 1700 से लेकर 1707 तक औरंगजेब की सेना के खिलाफ कड़ा मुकाबला किया था। उस वक्त उन्होंने सूरत और मालवा पर आक्रमण करके उसे जीत लिया था। ताराबाई भोसले ने औरंगजेब की सेना के लिए एक सुनियोजित और जोरदार विरोध के आयोजन में खुद को झोंक रखा था और देखते ही देखते 1750 तक मराठा साम्राज्य पंजाब तक पहुंच चुका था। लेकिन 1761 में ताराबाई भोसले ने पानीपत की लड़ाई में 2 लाख मराठाओं को मरते देखकर उस दुख को सह नहीं पाई और वीरगति को प्राप्त हो गई। ताराबाई भोसले ने मुगलो को अपनी रणनीतियों में उलझाकर रखा था तभी तो औरंगजेब का पूरे भारत पर कब्जा करने का सपना महज सपना मात्र रह गया।
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रानी कर्णावती
रानी कर्णावती बूंदी के शासक हाड़ा नरबध्दु की पुत्री थीं, जिनका विवाद मेवाड़ के राणा सांगा के साथ हुआ था और उन्होंने अल्प काल के लिए बूंदी पर शासन भी किया था। रानी कर्णावती दो महान राजाओं राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की मां थीं और महाराणा प्रताप की दादी थीं। पहले मुगल बादशाह बाबर ने 1526 में दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा कर लिया था, मेवाड़ के राणा सांगा ने उनके खिलाफ राजपूत शासकों के एकदल का नेतृत्व किया लेकिन अगले साल खानुआ की लड़ाई में राणा सांगा पराजित हो गए थे और कुछ वक्त बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। जिसके बाद रानी कर्णावती ने राणा विक्रमादित्य के माध्यम से मेवाड़ का राजपाठ संभाला था।
इसके बाद बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्जा करने के उद्देश्य से युद्ध छेड़ दिया था। तब रानी कर्णावती ने हुमायूं को राखी भेजकर उनसे मदद मांगी थी और हुमायूं मदद करने के लिए तैयार भी थे। जब हुमायूं चित्तौड़ पहुंचे उससे पहले ही बहादुरशाह चित्तौड़ में प्रवेश कर लिया था। तब रानी कर्णावती ने तमाम महिलाओं के साथ जौहर किया था और पुरुषों ने भगवा कपड़े धारण करके खुद को युद्ध में छोक दिया था। लेकिन चित्तौड़ पहुंचकर हुमायूं ने बहादुरशाह को परास्त किया और विक्रमादित्य को चित्तौड़ का राजपाठ सौंप दिया था।
शिवदेवी तोमर
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़ौत की 16 वर्षीय वीरांगना शिवदेवी तोमर तथा उनकी छोटी बहन जयदेवी तोमर ने अंग्रेजों को नाको चने चबबाए थे। 10 मई, 1857 को हिन्दुस्तानी सैनिकों ने मेरठ कैंट में अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही इस विद्रोह की आग आसपास के गांवों, शहरों तक में फैल गई। बड़ौत के शाहमल जाट ने इलाके पर घेरा डाल दिया और खुदमुख्तार आज़ादी घोषित कर दी। कहा जाता है कि 18 जुलाई 1857 को अंग्रेज़ फौज बड़ौत पहुंची और हमला कर दिया। भीषण युद्ध में शाहमल जाट वीरगति को प्राप्त हुए। हमले में अंग्रेज़ों ने क्रूरता की हदें पार कर दीं। अनुमान के अनुसार 30 स्वतन्त्रता सेनानियों को पकड़ लिया गया और पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई। गांव को बुरी तरह लूटा गया, तबाह बरबाद कर दिया गया। कहा यह भी जाता है कि अंग्रजों ने गांव का रसद पानी बंद कर दिया, अनाज, जानवरों, फसलों और संपत्ति पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया। 16 वर्षीय शिवदेवी तोमर ने अपनी आंखों के सामने अपने गांव वालों पर ये भीषण अत्याचार देखे। प्रतिशोध की भावना स्वाभाविक थी। वो और उनकी मित्र किशन देवी ने क्षेत्र के कुछ नौजवानों को एकत्र किया, बदला लेने का निर्णय लिया गया। उन्होंने बड़ौत में तैनात अंग्रेजी टुकड़ी पर जोरदार हमला किया। अचानक हुए आक्रमण से अंग्रेज़ सैनिक घबड़ा कर भागे। विभिन्न स्रोतों के अनुसार हमले का नेतृत्व शिवदेवी तोमर ने स्वयं किया और कई अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। बेहतर हथियार होने के बावजूद अंग्रेज़ सैनिक हमले का सामना न कर सके।
शिवदेवी तोमर की टुकड़ी का हमला इतना तेज़ था कि अंग्रेज़ बड़ौत छोड़ कर भाग खड़े हुए। कहा जाता है कि हमले में शिवदेवी तोमर स्वयं गंभीर रूप से घायल हो गईं। जब गांव वाले उनके घावों का उपचार कर ही रहे थे तभी अंग्रेज़ टुकड़ी वापस लौटी और उसने उस घायल युवा वीरांगना पर एक के बाद एक कई गोलियां दाग दीं। युवा वीरांगना ने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए शहादत का वरण किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। लेकिन शिवदेवी तोमर की शहादत व्यर्थ नहीं गई। कहा जाता है कि उनकी 14 वर्षीय छोटी बहन जयदेवी तोमर ने अपनी बहन की मृत्यु का बदला लेने की शपथ ली। उन्होंने गांव के युवाओं को ललकारा और अगल बगल के गावों के युवाओं का दल बना कर, लखनऊ तक अंग्रेज़ टुकड़ी का पीछा किया। रास्ते में उन्होंने बुलंदशहर, मेरठ, अलीगढ़, ऐटा, मैनपुरी, इटावा की जनता को भी अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए ललकारा। लखनऊ पहुंचने पर यह दल, कई दिनों तक बिना किसी रसद, बिना किसी सहायता के, अंग्रेज़ टुकड़ी की तलाश में भटकता रहा। अंततः उन्हें वह अंग्रेज़ सैनिक टुकड़ी मिल ही गई। कहा जाता है जयदेवी तोमर ने अपनी तलवार से टुकड़ी के अंग्रेज़ अधिकारी का सर कलम कर दिया। शेष दल ने अंग्रेज़ सैनिकों पर हमला कर दिया। जिस बंगले में अंग्रेज़ ठहरे हुए थे, उसे आग लगा दी गई। इस संघर्ष में स्वयं जयदेवी तोमर को वीरगति प्राप्त हुई।
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