NCM कानून के प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिका SC में दायर, देवकीनंदन ठाकुर बोले- खोलना चाहते हैं शैक्षणिक संस्थान
याचिका में कहा गया है कि 17 मई, 1992 को कानून लागू करके और धारा दो (सी) के तहत निरंकुश शक्ति का प्रयोग करके केंद्र ने मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी समुदायों को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय अधिसूचित किया, जो कि टीएमए पाई मामले में शीर्ष अदालत के फैसले के खिलाफ है।
नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय में दायर की गई एक याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) कानून के एक प्रावधान को चुनौती दी गई और केंद्र को ‘‘अल्पसंख्यकों’’ को परिभाषित करने एवं जिला स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करने संबंधी दिशा-निर्देश तय करने का निर्देश दिए जाने का अनुरोध किया गया है। याचिका में अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर सरकार द्वारा 23 अक्टूबर, 1993 को जारी अधिसूचना को मनमाना, तर्कहीन और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 29 और 30 के विपरीत घोषित किए जाने का अनुरोध किया गया है। मथुरा निवासी देवकीनंदन ठाकुर ने वकील आशुतोष दुबे के जरिए यह याचिका दायर की है।
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याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता अनुच्छेद 32 के तहत एनसीएम अधिनियम 1992 की धारा 2 (सी) की वैधता को चुनौती देने के लिए जनहित याचिका दायर कर रहा। अधिनियम की धारा2 (सी) न केवल केंद्र को निरंकुश शक्ति प्रदान करती है, बल्कि स्पष्ट रूप से मनमानी एवं तर्कहीन होने और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 29 और 30 का उल्लंघन है। इसमें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम की धारा दो (सी) को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 29 और 30 के उल्लंघन के कारण अमान्य, असंवैधानिक और निष्क्रिय घोषित करने का निर्देश दिए जाने का अनुरोध किया गया है।
याचिका में कहा गया है कि 17 मई, 1992 को कानून लागू करके और धारा दो (सी) के तहत निरंकुश शक्ति का प्रयोग करके केंद्र ने मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी समुदायों को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय अधिसूचित किया, जो कि टीएमए पाई मामले में शीर्ष अदालत के फैसले के खिलाफ है। इसमें कहा गया, ‘‘यहूदी, बहाई धर्म और हिंदू धर्म के अनुयायी लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन राज्य स्तर पर ‘अल्पसंख्यक’ के रूप में पहचान न होने के कारण वे अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और संचालन नहीं कर सकते, जिससे अनुच्छेद 29-30 के तहत प्रदत्त उनके मौलिक अधिकार खतरे में पड़ गए हैं।’’
याचिका में कहा गया है, ‘‘दूसरी ओर, लक्षद्वीप (96.58 प्रतिशत) एवं कश्मीर (96 प्रतिशत) में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं और लद्दाख (44 प्रतिशत), असम (34.20 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (27.5 प्रतिशत), केरल (26.60 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश(19.30 प्रदेश) और बिहार (18 प्रतिशत) में भी उनकी काफी आबादी है तथा (वे) अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और संचालन कर सकते हैं।’’ याचिका में कहा गया है कि नगालैंड (88.10 प्रतिशत), मिजोरम (87.16 प्रतिशत) और मेघालय (74.59 प्रतिशत) में ईसाई बहुसंख्यक हैं तथा अरुणाचल प्रदेश, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में उनकी काफी आबादी है और वे अपनी पसंद के शिक्षण संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं।
इसमें कहा गया है, ‘‘इसी तरह, पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं और दिल्ली, चंडीगढ़ एवं हरियाणा में उनकी बड़ी आबादी रहती है, लेकिन वे (शैक्षणिक संस्थान) स्थापित और संचालित कर सकते हैं। लद्दाख में बौद्ध बहुसंख्यक हैं, लेकिन वे भी अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और संचालन कर सकते हैं।’’ याचिका में कहा गया है कि यहूदी, बहाई और हिंदू धर्म के अनुयायियों को इससे काफी नुकसान हुआ है, क्योंकि धारा दो(सी) स्पष्ट रूप से मनमानी, तर्कहीन और अनुच्छेद 14, 15, 21, 29 और 30 के विपरीत है। वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर एक ऐसी ही याचिका शीर्ष अदालत के समक्ष लंबित है।
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