Prajatantra: डोगरा शासन के खिलाफ हुंकार, नेहरू-इंदिरा से तकरार, सियासत की पहेली बने रहे Sheikh Abdullah

Sheikh Abdullah nehru
Prabhasakshi
अंकित सिंह । Jan 8 2024 2:13PM

कश्मीरी राष्ट्रवाद के वह प्रखर समर्थक होने के साथ-साथ डोगरा राजशाही का भी जबरदस्त तरीके से मुकाबला किया। राजनीतिक और सामाजिक जीवन में वह लगातार सुर्खियों में बने रहे। आज उन्हीं शेख अब्दुल्ला को समझने की कोशिश करते हैं।

कश्मीर की राजनीति में जिन दो परिवारों का जिक्र होता है, उनमें मुफ्ती परिवार और अब्दुल्ला परिवार शामिल है। अब्दुल्ला परिवार के शेख मुहम्मद अब्दुल्ला कश्मीर के सबसे बड़े नेता तो थे ही साथ ही साथ जटिल और विवादास्पद व्यक्ति भी रहे हैं। कश्मीरी राष्ट्रवाद के वह प्रखर समर्थक होने के साथ-साथ डोगरा राजशाही का भी जबरदस्त तरीके से मुकाबला किया। राजनीतिक और सामाजिक जीवन में वह लगातार सुर्खियों में बने रहे। आज उन्हीं शेख अब्दुल्ला को समझने की कोशिश करते हैं। 

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देशभक्त थे या गद्दार

शेख अब्दुल्ला देशभक्त थे या गद्दार, पिंजरे में बंद शेर थे या निडर व्यक्ति, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सवाल का जवाब कौन दे रहा है। क्योंकि शेख अब्दुल्ला को लेकर सभी के अलग-अलग मत है। 80 के चुनौतीपूर्ण दशक में, कश्मीर में युवाओं की नज़र में, अब्दुल्ला एक असफल नायक थे, जिन्होंने "भारतीय राज्य के सामने घुटने टेक दिए और सम्मान और स्वतंत्रता के अपने सपनों को बेच दिया"। अब्दुल्ला का जन्म श्रीनगर के बाहर मुस्लिम मजदूरों और शॉल कारीगरों के एक छोटे से गाँव सौरा में हुआ था, उनके जन्म से एक पखवाड़े पहले उनके पिता का निधन हो गया था। बड़े होते हुए, उन्होंने भीषण गरीबी और अभाव को करीब से देखा। डोगरा शासन का उन्होंने जमकर विरोध किया। उनका मानना था कि डोगरा शासन के कार्यकाल में मुसलमान के साथ भेदभाव होता है। मुसलमानों को नौकरी नहीं दी जाती है। इसी को लेकर उन्होंने एक युवाओं की फोर्स तैयार की। शेख अब्दुल्ला कुशल भाषणकर्ता थे। 1930 में वह कश्मीर के सियासत में सक्रिय हुए। इसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक जामिया मस्जिद का सहारा लिया। महाराजा हरि सिंह की सत्ता को चुनौती देने के लिए मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का गठन किया।

एक नेता का निर्माण

उन्होंने 28 अगस्त 1938 को एक भाषण में महाराजा के सामने मांगें रखीं। महाराजा इन मांगों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे और इसलिए उन्हें अपने कई साथियों के साथ निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और छह महीने की कैद और जुर्माने की सजा सुनाई गई। हालांकि, जब उन्हें लगा कि इस लड़ाई में उन्हें सभी धर्म का साथ चाहिए तब उन्होंने अपनी पार्टी का नाम बदलकर जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस कर दिया। मई 1946 में शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के खिलाफ कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू किया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की कैद की सजा सुनाई गई, लेकिन केवल सोलह महीने बाद 29 सितंबर 1947 को रिहा कर दिया गया। भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प, और 1948 में उनका जम्मू-कश्मीर का प्रधान मंत्री बनना, अनुच्छेद 370 को अपनाने के लिए बातचीत, नेहरू के साथ उनके रिश्ते और बाद में इंदिरा गांधी के साथ उनकी झड़पें, शेख देशभक्त के कई रूप को सामने रखता है। 

भारत और पाकिस्तान के बीच सेतु

जैसे ही जम्मू में प्रजा परिषद आंदोलन भड़का, अब्दुल्ला को भारत के प्रति अपनी वफादारी साबित करने की चुनौती दी गई, नेहरू स्वयं चिंतित थे कि क्या उन्होंने अब्दुल्ला का समर्थन करके सही निर्णय लिया है। उन्होंने कश्मीर में अपनी विभिन्न रैलियों में विलय पर सवाल उठाते हुए कहा था कि मैं अब दिल्ली पर यकीन नहीं रखता। उन्हें 1953 में जम्मू-कश्मीर के प्रधान मंत्री के रूप में बर्खास्त कर दिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया। शेख अब्दुल्ला के अनुसार उनकी बर्खास्तगी और गिरफ्तारी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा की गई थी। रिहाई के बाद उनकी नेहरू से सुलह हो गई। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से अनुरोध किया कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच एक पुल के रूप में कार्य करें और राष्ट्रपति अयूब को कश्मीर समस्या के अंतिम समाधान के लिए बातचीत के लिए नई दिल्ली आने के लिए सहमत करें। शेख अब्दुल्ला 1964 के वसंत में पाकिस्तान गए। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने कश्मीर समस्या को हल करने के लिए विभिन्न रास्ते तलाशने के लिए उनके साथ व्यापक बातचीत की और उनके सुझाव के अनुसार नेहरू के साथ बातचीत के लिए जून के मध्य में दिल्ली आने पर सहमति व्यक्त की।

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चीन के राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद शेख अब्दुल्ला को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं होने लगी। दिल्ली लौट के साथ ही उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया। हालांकि, 1975 में इंदिरा गांधी से समझौते हुए। इसके बाद जम्मू कश्मीर के सत्ता में उनकी वापसी हुई और वह मुख्यमंत्री बने। 8 सितंबर 1982 को जब शेख अब्दुल्ला का निधन हुआ तो पूरे कश्मीर में शोक की लहर थी। हजारों की तादाद में उनके जनाजे में भीड़ उमरी थी।

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