Jallikattu: 2000 साल से भी पुराना है जलीकट्टू का इतिहास, पोंगल से शुरू होने वाले इस खतरनाक खेल के बारे में जानें

Jallikattu
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ऐसा दावा किया गया है कि जल्लीकट्टू खेल मूल रूप से 2500 वर्ष पुराना है। ये खेल तमिल के दो शब्द जली और कटु से मिलकर बना है। इसमें जली का अर्थ है सिक्के की थैली और कट्टू का अर्थ है बैल के सिंग। इन दोनों ही शब्दों से मिलकर इस खेल का नाम बना है।

जल्लीकट्टू नाम तो काफी सुना होगा, जो कई बार खबरों में रहा है। वर्ष 2023 में ही तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक की सरकारों को बड़ी राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 18 मई को ऐसा फैसला दिया था जिससे पारंपरिक खेल 'जल्लीकट्टू' और बैलगाड़ी दौड़ को जारी रखा गया है। सांडों को वश में करने के पारंपरिक खेल 'जल्लीकट्टू' और बैलगाड़ी दौड़ की वैधता कोर्ट के इस आदेश के बाद बरकरार रखी गई है। 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सांडों को काबू करने का वार्षिक उत्सव जल्लीकट्टू एक बार फिर से शुरू होने जा रहा है। वर्ष 2024 का पहला जल्लीकट्टू कार्यक्रम आज सुबह पुदुक्कोट्टई जिले के थाचनकुरिची गांव में शुरू हुआ है। साल के इस पहले जल्लीकट्टू उत्सव में 500 बैल हिस्सा ले रहे हैं। जल्लीकट्टू खेल के संबंध में जितना अधिक जानकारी दक्षिण भारत में लोगों को है, मगर उत्तर भारत और शेष देश की जनता इस अनोखे रिवाज और खेल के संबंध में काफी कम जानकारी रखती है। इस खेल को पोंगल के दिए दक्षिण भारत के तमिलनाडु में खेला जाता है। तमिलनाड़ु में इस खेल को वहां की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा मानते हुए इसे अपने राज्य का गौरव कहते है। 

ऐसा दावा किया गया है कि जल्लीकट्टू खेल मूल रूप से 2500 वर्ष पुराना है। ये खेल तमिल के दो शब्द जली और कटु से मिलकर बना है। इसमें जली का अर्थ है सिक्के की थैली और कट्टू का अर्थ है बैल के सिंग। इन दोनों ही शब्दों से मिलकर इस खेल का नाम बना है। इस खेल में सिक्के की थैली और बैल के सिंग दोनों ही बेहद अहम होते है। तमिलनाडु में इसका गहरा सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है। इसे देशी मवेशियों की नस्लों को संरक्षित करने, प्रजनन क्षमता को बढ़ावा देने और प्रतिभागियों की वीरता का सम्मान करने के तरीके के रूप में देखा जाता है।

ऐसे खेला जाता है खेल
बता दें कि जल्लीकट्टू के पहले दिन तीन बैलों को छोड़ा जाता है। इसमें उन बैलों का उपयोग होता है जो गांव की शान के तौर पर जाने जाते है। इसमें गांव के बूढ़े बैलों को भी शामिल किया जाता है मगर इन्हें कोई पकड़ता नहीं है। इस दौरान बैलों के सिंग पर सिक्कों की थैली को बांधा जाता है। बैलों को भड़का कर और गुस्सा दिलाकर उन्हें लोगों की भीड़ के बीच छोड़ा जाता है। जो व्यक्ति बैलों पर काबू पाने में सफल होता हैर सिक्कों की थैली लाता है वो जीत का हकदार होता है। इस खतरनाक खेल में कई नियम भी है। बता दें कि मूल रूप से ये खेल नहीं बल्कि एक परंपरा है, जो किसी समय में योद्धाओं के बीच लोकप्रिय हुआ था।

खेल के हैं कई नियम 
जल्लीकट्टू को तीन फॉर्मेट में खेला जाता है। इसमें एक मंजू विराट्टू होता है, जिसमें खिलाड़ियों को एक निश्चित समय और दूरी के भीतर ही बालों पर काबू पाना होता है। दूसरा फॉर्मेट है वेलि विराट्टू जिसमें बैलों को खुले मैदान में छोड़ा जाता है। इन बैलों के सिंगों पर सिक्कों की थैली बंधी होती है। इन बैलों को काबू करने के लिए खिलाड़ी खेल में हिस्सा लेते है। इस खेल का तीसरा प्रारूप है वाटम मंजूविराट्टू, जिसमें बैलों को लंबी रस्सी से बांधा जाता है। खिलाड़ियों को इन बैलों पर काबू करना होता है। बता दें कि तीनों ही फॉर्मेट में बैलों को खेल के लिए मैदान में छोड़ने से पहले उन्हें भड़काया और उकसाया जाता है।

बैलों की चयन ये है प्रक्रिया
इस खेल में वो बैल ही शामिल होते हैं जिनकी सेबत बिलकुल तंदरुस्त होती है। मंदिरों के बैलों को खासतौर से इस कार्यक्रम के लिए तैयार किया जाता है। माना जाता है कि मंदिर के बैल मवेशियों के मुखिया होते है। एक एक कर भीड़ में बैलों को छोड़ा जाता है, जिसके बाद खिलाड़ी बैलों पर सवार होने की कोशिश करते है। दरअसल इस प्रक्रिया के दौरान जिन बैलों पर खिलाड़ी आसानी से काबू पा लेते हैं वो काफी कमजोर माने जाते है। इस तरह के बैलों को घरेलू कामों के लिए रखा जाता है। सबसे अंत में और देर में पकड़ में आने वाले या पकड़ में नहीं आने वाले बैलों को मजबूत और तंदरुस्त मान जाता है। इस तरह के बैलों को बेहतर नस्ल का और प्रजनन के लिए भी अच्छा माना जाता है। 

इस कारण हुआ था विवाद
इस खेल में बैल और इंसान दोनों ही हिस्सा लेते है। ऐसे में ये खेल दोनों के लिए ही कई परेशानियां भी लेकर आता है। इंसानों को जहां इस खेल में जान का खतरा भी बना होता है वहीं बैलों को भी कई तरह के दर्द से गुजरना पड़ता है। इस खेल में हर साल कई दुखद घटनाएं सुनने को भी मिलती है। यही कारण रहा है कि इस खेल पर वर्षों से प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती रही है। ये भी दावे कि गए हैं कि खेल में हिस्सा लेने के दौरान बैलों को भड़काने और गुस्सा दिलाने के लिए बैलों की पूंछ को मरोड़ा जाता है। उनकी आंखों में मिर्ची पाउडर डालने की बात कही गई है। 

मद्रास हाई कोर्ट में साल 2006 में इस खेल को बंद करने के लिए याचिका डाली गई थी। इसके बाद 2009 में इस खेल को लेकर नियम बनाए गए थे। नए नियम के मुताबिक इसके वीडियोग्राफी और लोगों की सुरक्षा के लिए आयोजन स्थल पर डॉक्टर की मौजूदगी जरूरी होती थी। इस नियम से खेल में होने वाली दुर्घटनाओं में कमी जरूर आई। लेकिन पशु कल्याण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग करते रहे। बाद में यह केस सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। 

सुप्रीम कोर्ट का प्रतिबंध
सुप्रीम कोर्ट ने इस खेल के ऊपर 2014 में पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। 2015 में इस खेल का आयोजन नहीं हुआ। लेकिन इस खेल के समर्थन की मांग लगातार जारी रही। इस खेल को वापस शुरू किए जाने की मांग तेज होती जा रही थी। लोग हिंसा पर भी उतर आए थे। लोगों की नाराजगी को देखते हुए सरकारों ने इस खेल को फिर से मंजूरी दे दी।  

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