Shaurya Path: Taliban, India-Pakistan, Niger, Russia-Ukraine, AQIS और Manipur Violence से जुड़े मुद्दों पर Brigadier Tripathi (R) से बातचीत
एक सवाल के जवाब में ब्रिगेडियर डीएस त्रिपाठी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि जहां तक युद्ध में पुतिन की असफलताओं का सवाल है तो यूक्रेन पर आक्रमण करके, पुतिन वास्तव में नाटो को और अधिक विस्तारित करने में सफल रहे हैं क्योंकि फिनलैंड और स्वीडन गठबंधन में शामिल हो गए हैं।
प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम शौर्य पथ में इस सप्ताह तालिबान, पाकिस्तान की ओर से भारत को मिले वार्ता के प्रस्ताव, नाइजर में हुए तख्तापलट, रूस-यूक्रेन युद्ध के ताजा हालात, अल कायदा की बढ़ती गतिविधियों और मणिपुर हिंसा में विदेशी एजेंसियों की संलिप्तता को लेकर उठे सवालों पर ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) से बातचीत की गयी। पेश है विस्तृत साक्षात्कार-
प्रश्न-1. अफगान संकट से निपटने के लिए अमेरिकी अधिकारी तलिबान से मिले हैं तो दूसरी तरफ बढ़ते आतंकी हमलों के बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने भारत को एक बार फिर से वार्ता का प्रस्ताव दे डाला है। इस बीच, पाकिस्तान को चीन का समर्थन भी खूब मिल रहा है। इस सबको कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- जहां तक भारत और पाकिस्तान संबंधों की बात है तो भारत ने साफ कर दिया है कि पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंधों के लिए आतंक तथा शत्रुता मुक्त वातावरण जरूरी है। उन्होंने कहा कि भारतीय विदेश मंत्रालय का यह स्पष्ट जवाब है कि भारत, पाकिस्तान सहित सभी पड़ोसी मुल्कों के साथ सामान्य संबंध चाहता है और इसके लिए माहौल तैयार करना इस्लामाबाद पर निर्भर है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि देखा जाये तो पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में फरवरी 2019 में भारत के युद्धक विमानों द्वारा पाकिस्तान के बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर पर हमला करने के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में गंभीर तनाव आ गया था। इसके अलावा, भारत द्वारा पांच अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर की विशेष शक्तियों को वापस लेने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने की घोषणा के बाद संबंध और भी खराब हो गए। उन्होंने कहा कि इसके अलावा चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजना का भारत विरोध कर रहा है क्योंकि यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से होकर गुजरती है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि अमेरिकी सरकार का बयान भी आया है कि उनका देश भारत और पाकिस्तान के बीच सीधे संवाद का समर्थन करता है। लेकिन अमेरिका भी जानता है कि पाकिस्तान के वार्ता प्रस्ताव में कितनी गंभीरता है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने जून में ही कहा था कि भारत के लिए पड़ोसी देश के साथ तब तक संबंध सामान्य करना संभव नहीं है जब तक कि वह सीमा पार आतंकवाद की नीति बंद न कर दें।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि पाकिस्तान का आटा गीला हुआ तो उसे एक बार फिर भारत से बातचीत की याद आ गयी है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान देख रहा है कि पड़ोसियों पर क्या दुनिया के किसी भी देश में जब-जब संकट आया तो भारत ने आगे बढ़कर मदद की। यही नहीं, मालदीव और श्रीलंका तो पूरी तरह भारत की वजह से ही आर्थिक संकट से उबर पाये। इसके अलावा भारत बांग्लादेश, नेपाल और भूटान की भी काफी मदद कर रहा है। जबकि पाकिस्तान अपने सबसे खराब आर्थिक हालात से गुजर रहा है तो दुनिया में कोई देश उसकी मदद नहीं कर रहा। चीन और खाड़ी के कुछ देश मदद के लिए आगे आये भी हैं तो वह इसके लिए बड़ी कीमत वसूल रहे हैं। उन्होंने कहा कि चीन पाकिस्तान के संसाधनों की रजिस्ट्री अपने नाम करवा रहा है तो खाड़ी के देश भी पाकिस्तान से उसके पोर्ट इत्यादि लीज पर लेकर उसे पैसा दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि अब जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का कार्यकाल खत्म होने वाला है तो उन्होंने एक बार फिर सभी गंभीर और लंबित मुद्दों के समाधान के लिए भारत के साथ बातचीत करने की पेशकश की और कहा है कि दोनों देशों के लिए ‘‘युद्ध कोई विकल्प नहीं है’’ क्योंकि दोनों देश गरीबी और बेरोजगारी से लड़ रहे हैं।
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ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि शहबाज शरीफ की टिप्पणियां सीमा पार आतंकवाद को इस्लामाबाद के निरंतर समर्थन और कश्मीर सहित कई मुद्दों पर भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में जारी तनाव के बीच आई है। साथ ही यह टिप्पणी ऐसे समय भी आई है जब 12 अगस्त को संसद का पांच साल का कार्यकाल पूरा हो रहा है और उनकी गठबंधन सरकार चुनाव में जाने की तैयारी कर रही है। उन्होंने कहा कि लेकिन सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य भारत के प्रति पाकिस्तान की नीति को लेकर पूरी तरह स्पष्ट हैं? उन्होंने कहा कि यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि एक ओर प्रधानमंत्री भारत के साथ वार्ता की अपील कर रहे हैं तो दूसरी ओर उनकी विदेश राज्य मंत्री भारत पर कटाक्ष कर रही हैं और उसे पश्चिमी देशों का डार्लिंग बता रही हैं।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि जहां तक अफगान अधिकारियों से अमेरिका की मुलाकात की बात है तो इस बारे में खुद अमेरिका के विदेश विभाग ने कहा है कि देश के वरिष्ठ राजनयिकों के एक समूह ने तालिबान के प्रतिनिधियों और तकनीकी पेशेवरों से मुलाकात की। इस दौरान उन्होंने अफगानिस्तान में मानवीय संकट और विकास से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की। यह बातचीत 30 जुलाई और 31 जुलाई को दोहा में हुई थी। अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व अफगानिस्तान मामलों के विशेष प्रतिनिधि थॉमस वेस्ट ने किया। उनके साथ अफगान महिलाओं, लड़कियों और मानवाधिकार मामलों की विशेष दूत रीना अमीरी तथा अफगानिस्तान में अमेरिकी मिशन के प्रमुख करेन डेकर भी थे। उन्होंने कहा कि बैठक में मानवीय संकट और विकास से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसमें अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने अफगान लोगों का समर्थन करने के लिए आपसी विश्वास मजबूत करने की आवश्यकता पर जोर दिया। इसके अलावा अमेरिकी अधिकारियों ने बिगड़ती मानवाधिकार स्थिति, विशेष रूप से महिलाओं, लड़कियों और कमजोर समुदायों के अधिकारों के बारे में चिंता व्यक्त की। तालिबान से मानवाधिकारों को बनाए रखने पर जोर देने के साथ नजरबंदी, मीडिया प्रतिबंध और धार्मिक प्रथाओं से संबंधित नीतियों को वापस लेने का आग्रह किया गया। इसके अलावा, बैठक में अफगान अर्थव्यवस्था और बैंकिंग क्षेत्र में चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए अफगान सेंट्रल बैंक तथा अफगान वित्त मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ भी बातचीत की गई। इसके साथ ही अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने हिरासत में लिए गए अमेरिकी नागरिकों की तत्काल और बिना शर्त रिहाई पर भी जोर दिया।
प्रश्न-2. नाइजर में तख्तापलट हो गया है, सेना का सत्ता पर कब्जा लोकतंत्र और पश्चिमी अफ्रीका में अमेरिकी हितों के लिए झटका क्यों माना जा रहा है?
उत्तर- पश्चिमी अफ्रीकी देश नाइजर में तख्तापलट के बाद सैन्य शासन लागू है। राष्ट्रपति मोहम्मद बजौम को अपदस्थ कर दिया गया और उनके ही सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें बंदी बना लिया। उन्होंने कहा कि तख्तापलट करने वाले नेताओं ने 28 जुलाई, 2023 को जनरल अब्दुर्रहमान त्चियानी को नया राष्ट्र प्रमुख घोषित किया जबकि अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करने की मांग की है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि तख्तापलट से देश का भविष्य क्या होगा और आगे के कदम को लेकर अस्पष्टता की स्थिति बनी हुई है। उन्होंने कहा कि सबसे पहले यह तय नहीं है कि क्या वास्तव में यह तख्तापलट भी है या नहीं। हालांकि सेना के अंदर और सैन्य एवं नागरिक नेताओं के बीच तनाव के संकेत मिले हैं, लेकिन निश्चित रूप से तख्तापलट की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में माली और बुर्किना फासो में भी ऐसा देखा गया है। तख्तापलट से पहले बड़े पैमाने पर प्रदर्शन या नेतृत्व परिवर्तन के लिए आंदोलन नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि जब राष्ट्रपति के अंगरक्षकों ने 26 जुलाई को बजौम को बंदी बनाया तब तत्काल स्पष्ट नहीं हो सका कि आखिर हो क्या रहा है और क्या उनका कदम सफल होगा। तख्तापलट करने वाले नेताओं की पहली वास्तविक परीक्षा यह होगी कि क्या बाकी सेना भी उनका साथ दे रही है या नहीं। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता तो हो सकता है कि पूरे देश में बड़े पैमाने पर लड़ाई शुरू हो सकती है लेकिन अब तक लग रहा है कि वह दौर पार हो चुका है और कम से कम अब तक के घटनाक्रम से इसे रक्तहीन तख्तापलट कह सकते हैं। उन्होंने कहा कि शुरुआत में विभिन्न गुटों द्वारा नेतृत्व को लेकर खींचतान के बाद देश के जनरल ने तख्तापलट का समर्थन किया है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित राष्ट्रपति अब भी नजरबंद हैं। नाइजर दुनिया के सबसे कम विकसित देशों में है जहां पर उच्च गरीबी दर और अस्थिरता तथा तख्तापलट का इतिहास रहा है लेकिन हाल के वर्षों में यह क्षेत्र का अपेक्षाकृत स्थिर देश के रूप में उभरा है और पड़ोसी माली में 2012 में तख्तापलट के बाद से फैले आतंकवाद और हिंसा से निपटने में पश्चिमी देशों का साझेदार रहा है। सिर्फ दो साल पहले नाइजर ने अपने इतिहास में पहली बार लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार द्वारा सत्ता का हस्तांतरण निर्वाचित राष्ट्रपति को किया था। उन्होंने कहा कि तख्तापलट का क्षेत्र पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। पड़ोसी माली और बुर्किना फासो पूर्व औपनिवेशिक ताकत फ्रांस और सामान्य रूप से पश्चिम से अलग हो गए हैं और रूस की ओर बढ़ गए हैं। उन्होंने कहा कि एक अन्य पड़ोसी चाड लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता हस्तांतरित करने की समस्यागत कोशिश में संलिप्त है। इन देशों के विपरीत नाइजर साहेल क्षेत्र से जिहादी हिंसा का खात्मा करने की अंतरराष्ट्रीय कोशिश में गतिशील असैन्य सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहा है। उन्होंने कहा कि तक कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला है कि नाइजर का नया सैन्य नेतृत्व इस संदर्भ में कैसे कार्य करेगा।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि नाइजर में सबसे पहला तख्तापलट 1974 में साहेल क्षेत्र में सूखे और अकाल की पृष्ठभूमि में हुआ था। उस प्राकृतिक आपदा की वजह से आजादी के बाद बनी पहली निर्वाचित सरकार के प्रति हताशा और निराशा थी जिसने सेना को सरकार को उखाड़ फेंकने का आधार दिया और यह दावा करने का मौका दिया कि वह विकास पर ध्यान केंद्रित करेगी। इसके बाद नाइजर में 1996, 1999 और 2010 में भी राजनीतिक संकट की वजह से तख्तापलट हुआ। राष्ट्रपति बजौम केवल दो साल से सत्ता में हैं और 2021 के उनके निर्वाचन को भले ही चुनौती दी गई हो लेकिन मोटे तौर पर उसे स्वीकार किया गया। वह सत्ता में देश की सुरक्षा में सुधार, शिक्षा में निवेश और भ्रष्टाचार से लड़ने के वादे के साथ आए थे और इस दिशा में उन्होंने कुछ वास्तविक प्रगति भी की थी। साथ ही कोई राजनीतिक स्थिति और संस्थागत बाधा भी उस स्तर की नहीं थी जिसकी वजह से उनके तख्तापलट को न्यायोचित ठहराया जा सके। उन्होंने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि नवीनतम तख्तापलट आंतरिक राजनीति और सेना के विभिन्न हिस्सों में असंतोष का नतीजा है। उन्होंने कहा कि ‘कुशासन’ और ‘सुरक्षा स्थिति में गिरावट’ के आरोपों के अलावा कोई ऐसा ठोस तार्किक कारण नहीं दिया गया है जिससे तख्तापलट को न्यायोचित ठहराया जा सके और इसको अंजाम देने वाले अपने नेतृत्व को सही ठहरा सके।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि नाइजर अमेरिका का साझेदार रहा है। इसे क्षेत्र में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में वह एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है और माली और बुर्किना फासो के रूस की ओर रुख करने से इसका महत्व काफी बढ़ गया है। पड़ोसी देश चाड भी अमेरिका का एक प्रमुख सहयोगी है। अमेरिका को हालांकि चाड के साथ मधुर संबंध रखने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। इसके विपरीत, नाइजर ने खुद को एक लोकतांत्रिक देश के रूप में प्रस्तुत किया है और उसे अमेरिका के प्रति खुले, व्यावहारिक और मित्र के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने कहा कि हमें देखना होगा कि चीजें कैसे सामने आती हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि इस तख्तापलट से क्षेत्र में अमेरिकी हितों को गंभीर झटका लग सकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि स्थिर लोकतांत्रिक संस्थानों के निर्माण, शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने संबंधी नाइजर के प्रयासों के लिए भी यह एक झटका है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि जहां तक भारत का प्रश्न है तो देश ने कहा है कि वह नाइजर के घटनाक्रम पर करीबी नजर रख रहा है और पश्चिम अफ्रीकी देश में रहने वाले लगभग 250 भारतीय सुरक्षित हैं। उन्होंने कहा कि भारत की यह टिप्पणी ऐसे समय आई है जब पिछले सप्ताह हुए तख्तापलट के बाद नाइजर में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों ने अपने नागरिकों को नाइजर से निकालना शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि विदेश मंत्रालय ने बताया है कि उस देश में भारतीय समुदाय में लगभग 250 लोग हैं और वे सभी सुरक्षित हैं। लगभग 10 से 15 भारतीय, जो अस्थायी रूप से नाइजर में थे, फ्रांस द्वारा संचालित निकासी उड़ानों में सवार होकर देश छोड़ चुके हैं। उन्होंने कहा कि नाइजर की नई सैन्य शासित सरकार ने लीबिया, माली, चाड, अल्जीरिया और बुर्किना फासो के साथ अपनी सीमाओं को फिर से खोलने की घोषणा की है यह दर्शा रहा है कि माहौल अब धीरे-धीरे सामान्य हो रहा है।
प्रश्न-3. रूस-यूक्रेन युद्ध के ताजा हालात क्या हैं? खबर है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच सऊदी अरब अगस्त में शांति वार्ता की मेजबानी करेगा। इसे कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम शौर्य पथ में इस सप्ताह हमने ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) से जानना चाहा कि रूस-यूक्रेन युद्ध के ताजा हालात क्या हैं? हमने पूछा कि खबर है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच सऊदी अरब अगस्त में शांति वार्ता की मेजबानी करेगा। इसे कैसे देखते हैं आप? हमने यह भी जानना चाहा कि यूएई में ही क्यों शांति वार्ता की जा रही है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि रूस-यूक्रेन युद्ध एक तरह से थमा हुआ है। कभी कभार यूक्रेन मास्को तक ड्रोन भेज दे रहा है ताकि दुनिया में संदेश जा सके कि वह मास्को तक पहुँच सकता है। जवाब में रूस यूक्रेन के रिहायशी इलाकों की किसी बिल्डिंग का छोटा-सा हिस्सा गिरा देता है। यानि हल्के फुल्के तरीके से दिन काटे जा रहे हैं। हालांकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यह ठान कर बैठे हैं कि यह युद्ध किसी भी हालत में जीतना ही है। यूक्रेन को नाटो और यूरोपीय देशों ने अब तक जितनी आर्थिक और सैन्य मदद दी है वह रूस का कुछ नहीं बिगाड़ सकी। इसके अलावा रूस पर तमाम तरह के प्रतिबंध भी ज्यादा असर नहीं दिखा पाये हैं लेकिन अब रूस भी शायद यही चाहता है कि उसकी शर्तों को मान लिया जाये तो वह भी शांत हो जाये। उन्होंने कहा कि रूस ने यूक्रेन पर तमाम हमले किये लेकिन उसका इतना असर नहीं हुआ जितना ग्रेन डील रद्द करने से हो गया। उन्होंने कहा कि रूसी हमलों को अब तक सिर्फ यूक्रेन झेल रहा था लेकिन ग्रेन डील रद्द होने से कई देशों के समक्ष भुखमरी की नौबत आ गयी और महंगाई आसमान छूने लगी तो सबको शांति वार्ता की याद आ गयी जबकि इससे पहले तक कोई शांति वार्ता की बात ही नहीं कर रहा था और कोई राष्ट्राध्यक्ष यूक्रेन जाकर तो कोई यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपने यहां बुलाकर उसकी हर संभव मदद करने का आश्वासन दे रहा था। उन्होंने कहा कि पुतिन ने जब यह देखा कि अनाज सौदा रद्द करने का असर पड़ने लगा है तो उन्होंने गरीब देशों खासकर अफ्रीकी देशों को यह आश्वासन दिया है कि उनकी अनाज की जरूरतों को पूरा किया जाता रहेगा।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि देखा जाये तो यह युद्ध इतना लंबा खिंच गया है और अब रूस और यूक्रेन ही नहीं बल्कि दुनिया के देश भी थक चुके हैं इसलिए भी शांति वार्ता की पहल की जा रही है। उन्होंने कहा कि हालांकि शांति वार्ता इससे पहले कोपनहेगन में भी हो चुकी है लेकिन उसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये गये थे इसलिए उसका कोई परिणाम नहीं निकला था। उन्होंने कहा कि जहां तक यूएई में शांति वार्ता की बात है तो उसमें 30 देशों को आमंत्रित किया गया है। यूएई में यह वार्ता रखने का एक कारण यह भी था कि यूएई रूस का मित्र देश है। हाल ही में यूएई के प्रेसिडेंट रूस की यात्रा पर गये थे और वहां पुतिन से मुलाकात की थी। इसके अलावा यूएई का मित्र देश होने के कारण चीन भी वार्ता में भाग लेने आ जायेगा। इस वार्ता में भारत को भी आमंत्रित किया गया है। अमेरिका और नाटो जानते हैं कि भारत और चीन की बात को रूस जरूर सुनेगा इसलिए शांति प्रस्ताव पर इन दोनों देशों का भाग लेना बहुत अहम है। उन्होंने कहा कि भारत और चीन दोनों ही रूस और यूक्रेन को शांति के लिए कह चुके हैं और दोनों ही देश भारत और चीन की बात को सुनते हैं इसलिए यहां जो प्रस्ताव रखा जायेगा उसमें भारत और चीन के बिंदुओं को भी शामिल किया जायेगा ताकि वह पूरे प्रस्ताव पर रूस से बात करें। उन्होंने कहा कि इससे पहले चीन ने अकेले एक शांति प्रस्ताव पेश किया था लेकिन वह सफल नहीं हो पाया था इसलिए यूएई में होने वाली वार्ता पर दुनिया भर की नजर है क्योंकि हर देश इस युद्ध से किसी ना किसी तरह प्रभावित हो रहा है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि यह शिखर वार्ता लाल सागर के बंदरगाह शहर जेद्दा में होगी। शिखर वार्ता में यूक्रेन के साथ ही ब्राजील, भारत, दक्षिण अफ्रीका और कई अन्य देश हिस्सा लेंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के प्रशासन के एक उच्च स्तरीय अधिकारी के भी बैठक में शामिल होने की संभावना है। इस आयोजन की तैयारियां कीव संभाल रहा है। उन्होंने कहा कि रूस के वार्ता में भाग लेने की संभावना नहीं है। उन्होंने कहा कि यह शांति वार्ता पांच-छह अगस्त को होगी और लगभग 30 देश इसमें हिस्सा लेंगे। उन्होंने साथ ही बताया कि शिखर वार्ता की खबर ऐसे वक्त में आई, जब अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवान ने पिछले सप्ताह ही सऊदी अरब की यात्रा की थी।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि जहां तक युद्ध में पुतिन की असफलताओं का सवाल है तो यूक्रेन पर आक्रमण करके, पुतिन वास्तव में नाटो को और अधिक विस्तारित करने में सफल रहे हैं क्योंकि फिनलैंड और स्वीडन गठबंधन में शामिल हो गए हैं। उन्होंने कहा कि पुतिन के लिए इससे भी बुरी बात यह है कि उनका शासन अब लगातार कमजोर होता जा रहा है। यूक्रेन में उनकी विफलताओं ने रूस के आज्ञाकारी मीडिया के लिए विजय की कहानी गढ़ना भी असंभव बना दिया है। उन्होंने कहा कि जून में येवगेनी प्रिगोझिन के नाटकीय विद्रोह पर पुतिन की प्रतिक्रिया ने कमजोरी की धारणा को और बढ़ा दिया। शुरुआत में उन्हें एक आपातकालीन प्रसारण में आने में कई घंटे लग गए, जिसमें उन्होंने संभावित गृह युद्ध की बात की थी और वैगनर गद्दारों को खत्म करने का वादा किया था। लेकिन एक बार जब प्रिगोझिन के साथ आनन-फानन में समझौता हो गया, तो पुतिन के प्रेस सचिव ने उस मजबूत बयान को कुछ ही घंटों बाद वापस ले लिया।
प्रश्न-4. संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों के लिए उपमहाद्वीप में एक्यूआईएस को आकार दे रहा है अलकायदा। यह भारत के लिए कितनी चुनौतीपूर्ण बात है?
उत्तर- यह चिंता की बात जरूर है लेकिन चुनौती बहुत बड़ी नहीं है क्योंकि भारत अब ऐसे तत्वों से निबटने में पूरी तरह सक्षम हो चुका है। हाल के वर्षों में ऐसे संगठनों को नेस्तनाबूत किया जा चुका है। उन्होंने कहा कि जहां तक संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की बात है तो उसमें कहा गया है कि आतंकवादी संगठन अल कायदा अपने आतंकी अभियान को जम्मू-कश्मीर, बांग्लादेश और म्यांमा में फैलाने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में अपने क्षेत्रीय सहयोगी ‘एक्यूआईएस’ को आकार दे रहा है। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 32वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि एक सदस्य देश ने आकलन किया कि अल कायदा बांग्लादेश, जम्मू-कश्मीर और म्यांमा में अपना अभियान फैलाने के लिए ‘एक्यूआईएस’ (भारतीय उपमहाद्वीप में अल-कायदा) को आकार दे रहा है। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि सदस्य देश को यह भी पता चला है कि एक्यूआईएस के कुछ सीमित तत्व आईएसआईएल-के (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लेवेंट-खोरासन) में शामिल होने या उसके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने जानकारी दी कि अफगानिस्तान में अल कायदा का कोर 30 से 60 सदस्यों पर स्थिर है, जबकि देश में इसके लड़ाकों की संख्या 400 होने का अनुमान है और यह संख्या परिवार के सदस्यों एवं समर्थकों सहित 2,000 तक पहुंच गई है। उन्होंने कहा कि भारतीय उपमहाद्वीप में अल कायदा के लगभग 200 आतंकी हैं, जिसका अमीर (प्रमुख) ओसामा महमूद है। उन्होंने बताया कि रिपोर्ट में कहा गया कि कुछ सदस्य देशों ने सैफ अल-अदल के अल कायदा प्रमुख बनने की आशंका जताई है जो आयमान अल-जवाहिरी का स्थान लेगा जो फिलहाल कथित तौर पर अभी ईरान में है। उन्होंने बताया कि रिपोर्ट में कहा गया है कि सदस्य देश ने आईएसआईएल-के को अफगानिस्तान और आसपास के क्षेत्र में सबसे गंभीर आतंकवादी खतरे के रूप में चिह्नित किया है। अनुमान है कि आईएसआईएल-के में परिवार के सदस्यों सहित 4,000 से 6,000 सदस्य हैं। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट के अनुसार, सनाउल्लाह गफ़री को आईएसआईएल-के के सबसे महत्वाकांक्षी नेता के रूप में देखा जाता है। उन्होंने बताया कि गफ़री जून में अफगानिस्तान में मारा गया, जिसकी पुष्टि होनी बाकी है।
प्रश्न-5. पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल नरवणे ने कहा है कि मणिपुर हिंसा में विदेशी एजेंसियों की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता। इस आशंका के पीछे क्या आधार हैं?
उत्तर- प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम शौर्य पथ में इस सप्ताह हमने ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) से जानना चाहा कि पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल नरवणे ने कहा है कि मणिपुर हिंसा में विदेशी एजेंसियों की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता। इस आशंका के पीछे क्या आधार है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि जनरल नरवणे सेनाध्यक्ष बनने से पहले ईस्टर्न कमान के कमांडर थे इसलिए वह सब चीजों को बारीकी से जानते हैं। उन्होंने मणिपुर के बारे में जो कहा है वह एकदम सही है क्योंकि सवाल उठता है कि अचानक से इतने लोगों को कैसे हथियार का प्रशिक्षण मिल गया? उन्होंने कहा कि पड़ोस के कई देशों के साथ सीमाएं ऐसी हैं जहां से घुसपैठ की आशंका हमेशा बनी रहती है। लगातार चौकसी होने के बावजूद कठिन भौगोलिक स्थितियों के चलते कई बार घुसपैठ हो जाती है और ऐसे तत्व सफल हो जाते हैं।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि म्यांमा के सशस्त्र विद्रोहियों पर भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप लगते रहे हैं। साथ ही इस प्रकार की भी रिपोर्टें आती रही हैं कि कई बार यह लोग भारत में घुसपैठ भी कर जाते हैं। म्यांमा के सैन्य शासन पर चीन का काफी प्रभाव है। ऐसे में नरवणे का बयान सारी स्थिति को स्पष्ट कर देता है। उन्होंने कहा कि वैसे भी चीन भारत में अशांति फैलाने के लिए हर प्रयास करता रहता है। पूर्वोत्तर पर उसकी खास नजर हमेशा रही है। साथ ही म्यांमा में भी सीमा पर जो उग्रवादी संगठन हैं उन पर वहां के सैन्य शासन का भी कोई नियंत्रण नहीं रह गया है और यह संगठन चीन और अन्य देशों से पैसा लेकर भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते हैं।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि लेकिन मणिपुर में जो कुछ हुआ है उसमें हमारी अपनी भी बहुत गलतियां हैं। मणिपुर से आफस्पा हटाकर गलती की गयी और इसी के चलते उग्रवादी संगठन मजबूत हुए। उन्होंने कहा कि इन लोगों के पास हथियार आ जाने की वजह से स्थिति बिगड़ी है लेकिन अब सेना काफी हद तक हालात को काबू करने में सफल रही है। सरकार को चाहिए कि आफस्पा को वापस लाये ताकि इस क्षेत्र में स्थायी शांति बहाल हो सके। उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर पर सरकार को विशेष नजर रखनी होगी क्योंकि बड़ी मेहनत के बाद उग्रवादी संगठन कमजोर हुए थे और विभिन्न राज्यों में शांति कायम हुई थी। एक भी गलती सारी मेहनत पर पानी फेर सकती है। उन्होंने कहा कि चीन की हरकतों को देखते रहने की जरूरत है क्योंकि वह पूर्वोत्तर में अशांति फैलाने के प्रयास करता रहता है खासतौर पर म्यांमा के विद्रोही समूहों को वह वर्षों से मदद दे रहा है। उन्होंने कहा कि सीमावर्ती राज्यों में अस्थिरता देश की समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अच्छी बात नहीं है।
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