दलाई लामा को लेकर तिब्बतियों में चिंता, चीन है मौके की तालाश में!
दलाई लामा अपनी लड़ाई को सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग तक सीमित रखते हैं, जिस पर निर्वासित तिब्बतियों की नई पीढ़ी दबे ढंग से उनके प्रति नाराजगी भी जताती रही है। लेकिन दलाई लामा को गांधी का आध्यात्मिक बेटा यूं ही नहीं कहा जाता।
अपनी बढती उम्र के चलते भारत में निर्वासन में रहे रहे तिब्बतीयों के अध्यात्मिक नेता दलाई लामा के भविष्य को लेकर भारत से लेकर अमेरिका तक चिंता है हालांकि दलाई लामा किसी को राजनीतिक या कूटनीतिक चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि दलाई लामा की ही वजह से तिब्बती अंदोलन ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। यही वजह है इस बार भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्दर मोदी ने दलाई लामा को उनके जन्म दिन पर बधाई दी तो उसे बड़ी कूटनीतिक पहल के रूप में लिया गया। जिससे तिब्बतीयों में नई आशा की किरण जगी है तो चीन ने को यह नागवार गुजरा है हालांकि भारत आधिकारिक रूप से तिब्बत को चीनी लोक गणराज्य का अंग मानता रहा है। लेकिन मोदी की पहल के अपने मायने हैं।
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दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर से अपनी निर्वासित संसद और सरकार चलाते हैं, लेकिन भारत सरकार ऐसी गतिविधियों के सक्रिय समर्थन में खड़ी नहीं दिखना चाहती। कम से कम पिछले साल तक यही स्थिति रही। 15 जून 2020 को लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर खून बहा, हालांकि गोलियां नहीं चलीं। यह युद्ध और शांति के बीच की स्थिति है, लेकिन अब पीएम मोदी के प्रयास से हालात बदलने लगे हैं।माना जा रहा है कि भारत-चीन टकराव की मौजूदा स्थिति में तिब्बती बनाम तिब्बती जैसे किसी दृश्य से चीन पर बना दबाव बढ़ने के बजाय कुछ कम ही होगा। दलाई लामा की राय हमेशा से इस लड़ाई को मध्यमार्ग के जरिये लड़ने की रही है। अपनी इस राय पर अडिग रहने के लिए उन्होंने अपने बड़े भाई ग्यालो थोंडुप तक से दूरी बना ली, जो तिब्बत की आजादी के लिए सारे तिब्बतियों में सबसे ज्यादा सक्रिय रहे और इसमें सीआईए का सक्रिय सहयोग मिलने की बात भी बाकायदा किताब लिखकर स्वीकार की।
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दलाई लामा अपनी लड़ाई को सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग तक सीमित रखते हैं, जिस पर निर्वासित तिब्बतियों की नई पीढ़ी दबे ढंग से उनके प्रति नाराजगी भी जताती रही है। लेकिन दलाई लामा को गांधी का आध्यात्मिक बेटा यूं ही नहीं कहा जाता। निर्वासित तिब्बतियों में तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को लेकर कई धाराएं पहले दिन से ही मौजूद रही हैं। तिब्बत का मुद्दा आज भी दुनिया के लिए दिलचस्प बना हुआ है तो इसकी अकेली वजह यह है कि उसे दलाई लामा का नेतृत्व हासिल है। हम इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि निर्वासित तिब्बतियों में कितनी तरह के क्षेत्रीय और सांप्रदायिक टकराव मौजूद हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म के चार संप्रदायों में सैकड़ों साल से आपसी लड़ाइयां चल रही हैं और वे हाल तक जाहिर होती रही हैं। पूर्वी तिब्बत का लड़ाकू खाम इलाका खुद को लंबे समय से ल्हासा के आधिपत्य से मुक्त मानता आया है। लेकिन दलाई लामा के प्रभाव में ये सारे टकराव इतने मंद पड़ गए हैं कि बाहरी लोग उनके बारे में नहीं जानते और निर्वासित तिब्बती संसद में हर खेमा तिब्बत की आजादी या स्वायत्तता के साझा मुद्दे पर एकजुट दिखता है। इस लड़ाई को ज्यादा उग्र बनाने पर भीतरी टकराव उभर आने का भी खतरा है। अभी, दलाई लामा के 86 पार करने पर निर्वासित तिब्बतियों के बीच इस बात को लेकर भी बातचीत जारी है कि दलाई लामा के बाद उनकी लड़ाई कैसे आगे बढ़ेगी।
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इसमें एक पहलू उनके उत्तराधिकार का है, जिस पर अमेरिका ने अपने यहां कानून पारित कर रखा है और चीन के बाहर पूरी दुनिया में इस पर सहमति है कि यह मसला तिब्बतियों को ही तय करने दिया जाना चाहिए।खुद चीन का कहना है कि किसी भी बड़े लामा का अवतार चीन सरकार की मोहर के बिना सत्यापित नहीं होता। लेकिन अंततः यह एक धार्मिक मसला है। कल को चीनी अपनी मोहर वाला 15वां दलाई लामा खड़ा भी कर देंगे तो कोई तिब्बती उसे पूजने नहीं जाएगा। बहरहाल, निर्वासित तिब्बतियों के लिए चिंता इससे आगे की है। 14वें दलाई लामा के बाद वे अपनी मर्जी का दलाई लामा तो चुन लेंगे, लेकिन उसके मजबूत होने तक तिब्बतियों का प्रतिनिधित्व कैसे होगा? निर्वासित तिब्बती संसद और खासकर प्रधानमंत्री पेनपा त्सेरिंग को अब इस पहलू पर ज्यादा काम करना चाहिए।
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