Matrubhoomi: चेवांग नोरफेल The Iceman of Ladakh, इंजीनियर जिसने हल की लद्दाख में पानी की समस्या
79 वर्षीय सेवानिवृत्त सिविल इंजीनियर चेवांग नोरफेल को 1966 में लद्दाख के सबसे पिछड़े और दूरदराज के इलाकों में से एक जांस्कर में सब डिविजनल ऑफिसर के रूप में तैनात किया गया था। उन्हें अपनी टीम के साथ उस क्षेत्र में स्कूल भवनों, पुलों, नहरों, सड़कों आदि का निर्माण करना था।
लद्दाख के खूबसूरत पहाड़ टूरिस्ट के लिए भले ही स्वर्ग जैसे हों, लेकिन वहां के लोगों से पूछें जिन्हें हर साल पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। चेवांग नोरफेल ने अपने इंजीनियरिंग कौशल का बेहतर उपयोग किया और इस ठंडे पहाड़ी क्षेत्र में पानी उपलब्ध कराने के लिए आर्टिफिशियल ग्लेशियर बनाए। आइये आपको बताते है चेवांग नोरफेल द्वारा बनाई गई आर्टिफिशियल ग्लेशियर के बारे में और यह कैसे काम करती है। 79 वर्षीय सेवानिवृत्त सिविल इंजीनियर चेवांग नोरफेल को 1966 में लद्दाख के सबसे पिछड़े और दूरदराज के इलाकों में से एक जांस्कर में सब डिविजनल ऑफिसर के रूप में तैनात किया गया था। उन्हें अपनी टीम के साथ उस क्षेत्र में स्कूल भवनों, पुलों, नहरों, सड़कों आदि का निर्माण करना था। मजदूरों की कमी होने के कारण चेवांग ने खुद ही काम करना शुरू कर दिया।
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चेवांग नोरफेल जिन्हें भारत का आइस मैन कहा जाता है, ठंडे और पहाड़ी क्षेत्र में पानी की कमी से निपटने में लोगों की मदद करने के लिए लद्दाख में 10 आर्टिफिशियल ग्लेशियर हैं। लद्दाख बहुत ही सुंदर जगह है लेकिन ठंडी, शुष्क और बंजर भूमि में रहना वहां के लोगों के जीवन को हमारी कल्पना से अधिक कठिन बना देती है। लेकिन अब स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है क्योंकि लद्दाख में अब उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए आर्टिफिशियल ग्लेशियर हैं और लोगों के पास नॉरफेल जैसे हर समस्या का समाधान निकाल देने वाले शख्स है।
1936 में जन्मे, नॉरफेल एक कृषि बैकग्राउंड से आते हैं और 36 वर्षों से अधिक समय तक सरकारी सेवा में रहे हैं।कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे करने में नॉरफेल को मजा आता था और इसी को देखते हुए लद्दाख की खराब स्थिति को अपने इंजीनियरिंग कौशल को उपयोग करने का सोचा। आपको जानकर हैरानी होगी लेकिन लद्दाख के लगभग सभी गांवों में सड़कें, पुलिया, पुल, भवना या सिंचाई की व्यवस्था नोरफेल द्वारा ही बनाई गई है। लेकिन इन सबमें आर्टिफिशियल ग्लेशियर को बनाना नोरफेल के लिए सबसे मददगार साबित हुआ। नोरफेल ने पानी की कमी से निपटने के लिए लोगों की मदद करने के लिए लद्दाख में 10 आर्टिफिशियल ग्लेशियर बनाए। लद्दाख की 80 प्रतिशत आबादी खेती पर ही निर्भर है, और उनके सिंचाई के पानी का मुख्य सोर्स पानी है जो बर्फ और ग्लेशियरों से पिघलने से आता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर तेजी से घट रहे हैं और इसके ही कारण किसानों को पर्याप्त पानी मिलनेमें काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। दूसरी ओर, सर्दियों के महीनों में बहुत सारा पानी बर्बाद हो जाता है क्योंकि कड़ाके की ठंड के कारण किसान उस समय मौसम में कोई फसल नहीं उगा सकते हैं।
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आर्टिफिशियल ग्लेशियर बनाने का आइडिया
नोरफेल को आर्टिफिशियल ग्लेशियर बनाने का आइडिया तब आया जब उन्होंने एक नल से पानी टपकते हुए देखा जो खुला रखा गया था। इसे इसलिए ऐसा रखा गया ताकि सर्दियों में पानी को जमने और नल को फटने से बचाया जा सके। जमीने के संपर्क में आते ही पानी धीर-धीरे बर्फ की चादर के आकार में जमने लग गया और एक पुल बन गया। इसी को देखते हुए उन्होंने सोचा कि अगर हम इस पानी को बर्फ के रूप में संरक्षित कर सकते हैं, तो यह सिंचाई के दौरान, खासकर बुवाई के मौसम में किसानों के लिए कुछ हद तक मददगार हो सकता है। आर्टिफिशियल ग्लेशियर, गांवों के काफी करीब होने के कारण, प्राकृतिक ग्लेशियरों की तुलना में पहले पिघल जाते हैं। साथ ही, बुवाई के दौरान पानी मिलना किसानों की सबसे महत्वपूर्ण चिंता है क्योंकि प्राकृतिक ग्लेशियर जून के महीने में पिघलने लगते हैं और अप्रैल और मई में बुवाई शुरू हो जाती है,। बता दें कि गर्मियों में उच्च तापमान के कारण प्राकृतिक ग्लेशियरों से पिघलने वाला पानी नदी में बहते ही बेकार चला जाता है। इसके बजाय, अगर इस पानी को गर्मियों और शरद ऋतु में संग्रहीत किया जा सकता है ताकि यह सर्दियों में ग्लेशियर बन सके, तो यह कृत्रिम ग्लेशियर वसंत में पिघल जाएगा और ग्रामीणों को सही समय पर पानी उपलब्ध कराएगा।
पहला आर्टिफिशियल ग्लेशियर फुत्से गांव में शुरू किया गया। उनकी पहली परियोजना की लागत 90,000 रुपये की थी। ग्लेशियर की चौड़ाई आमतौर पर 50 से 200 फीट और गहराई 2 से 7 फीट तक होती है। यह कम लागत वाला मॉडल केवल स्थानीय रूप से प्राप्त सामग्री और स्थानीय समुदाय की मदद का उपयोग करता था। नॉरफेल ने अब तक 10 ग्लेशियरों का सफलतापूर्वक निर्माण किया है। सबसे छोटा ऊमला में 500 फीट लंबा है और सबसे बड़ा फुत्से में 2 किमी लंबा है। उनके प्रयासों से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है, जिससे स्थानीय लोगों की आय में वृद्धि हुई है। इससे शहरों की ओर पलायन भी कम हुआ है। उनकी सरल तकनीक ने पानी को गांवों के करीब ला दिया है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब ग्रामीणों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है, तब इसे उपलब्ध कराया जाता है। भविष्य में, वह ग्लेशियर बनाना जारी रखना चाहते है और लाहोल, स्पीति, जांगस्कर आदि जैसे अन्य क्षेत्रों में निर्माण की योजना बना रहे है।
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