Kashmiri Pashmina Shawl बनाने वाले कारीगरों को नहीं मिल पाता है उचित मेहनताना
प्रभासाक्षी संवाददाता ने जब शकील अहमद हकाक से बात की तो उन्होंने बताया कि यह काम ध्यान से, सावधानी से और बेहद कुशलता से किया जाता है लेकिन हमें अच्छी रकम नहीं दी जाती। उन्होंने कहा कि डीलर हमारे द्वारा बुने हुए शॉल को ऊंचे दामों पर बाहर बेचते हैं।
कश्मीर में आज भी कई ऐसे पुराने हुनरमंद लोग हैं जिनकी बुनी हुई पश्मीना शॉल की अच्छी खासी मांग है। इनमें से एक हैं श्रीनगर के शकील अहमद हकाक। वह सदियों पुरानी इस शॉल बुनाई कला को जीवित रखने के मिशन पर हैं। पिछले 20 सालों से वह कानी शॉल बना रहे हैं। देखा जाये तो कश्मीरी पश्मीना भले पूरी दुनिया में मशहूर है और यह बिकता भी बहुत महँगा है लेकिन इसके कारीगरों को उचित मेहनताना नहीं मिलता। इसी के चलते कई कारीगरों ने यह काम छोड़ दिया और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अन्य रास्ते चुन लिए।
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प्रभासाक्षी संवाददाता ने जब शकील अहमद हकाक से बात की तो उन्होंने बताया कि यह काम ध्यान से, सावधानी से और बेहद कुशलता से किया जाता है लेकिन हमें अच्छी रकम नहीं दी जाती। उन्होंने कहा कि डीलर हमारे द्वारा बुने हुए शॉल को ऊंचे दामों पर बाहर बेचते हैं लेकिन हमें महीने भर के काम के लिए बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। उन्होंने बताया कि हमारे इलाके में लगभग हर घर कानी पश्मीना शॉल की बुनाई से जुड़ा था, लेकिन पिछले एक दशक के भीतर कम आय के कारण अब बहुत कम लोग इसे बना रहे हैं। उन्होंने कहा, "सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक, एक कानी शॉल को पूरा करने में लगभग एक साल लग जाता है।" उन्होंने आग्रह किया कि सरकार को कारीगरों को वित्तीय सहायता प्रदान करने की पहल करनी चाहिए ताकि वे शॉल बनाने की इस सदियों पुरानी परंपरा को जीवित रख सकें।
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