क्या है महाभियोग, सुप्रीम कोर्ट के जज को कैसे हटाया जा सकता है? पूरी प्रक्रिया यहां जानें
महाभियोग एक न्यायिक प्रक्रिया है जो संसद में कुछ विशेष पदों पर आसीन व्यक्तियों के खिलाफ संविधान के उल्लंघन का आरोप लगने पर चलाई जाती है। इन पदों में राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीश, भारत के निर्वाचन आयोग शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट (एससी) ने भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा को यह कहते हुए कड़ी फटकार लगाई कि वह पैगंबर मुहम्मद पर अपनी टिप्पणियों के साथ उदयपुर की क्रूर हत्याओं के लिए जिम्मेदार थीं और कहा कि उन्हें टीवी पर आकर "पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए"। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा, "जिस तरह से उन्होंने देश भर में भावनाओं को प्रज्वलित किया है। देश में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए यह महिला अकेली ही जिम्मेदार है। देश में आज भी लोग सुप्रीम कोर्ट के बारे में बात कर रहे हैं। बहुत सारे लोग आपने सुना होगा कहते हैं शुक्र है हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट है। सुप्रीम कोर्ट पर लोगों का विश्वास अब तक रहा है और आपने ये भी देखा होगा कि अक्सर लोग ये कहते हैं कि मैं इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगा और वहां से न्याय लेकर आऊंगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की हालिया टिप्पणी को लेकर सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट और इम्पिचमेंट यानी महाभियोग टॉप ट्रेंड में रहा। जिसके बाद से महाभियोग शब्द देश में एक बार फिर से चर्चा में है। ऐसे में आज हम आपको बताते हैं कि ये महाभियोग है क्या, इसकी पूरी प्रक्रिया क्या है? सुप्रीम कोर्ट के जज को कैसे हटाया जा सकता है।
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क्या है महाभियोग?
महाभियोग एक न्यायिक प्रक्रिया है जो संसद में कुछ विशेष पदों पर आसीन व्यक्तियों के खिलाफ संविधान के उल्लंघन का आरोप लगने पर चलाई जाती है। इन पदों में राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीश, भारत के निर्वाचन आयोग शामिल हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 56 के अनुसार महाभियोग की प्रक्रिया राष्ट्रपति को हटाने के लिए उपयोग की जाती है। न्यायाधीशों पर महाभियोग की चर्चा संविधान के अनुच्छेद 124 (4) में है। इसके तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के किसी न्यायाधीश पर कदाचार और अक्षमता के लिए महाभियोग का प्रस्ताव लाया जा सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज को हटाए जाने का प्रावधान है।
महाभियोग की तैयारी
अनुच्छेद 124 के भाग 4 में ये प्रावधान है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सिर्फ संसद ही उसके पद से हटा सकती है। लेकिन इसके लिए संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाना जरूरी है। महाभियोग के जरिये न्यायाधीशों को हटाए जाने की प्रक्रिया का निर्धारण जजेज इन्क्वायरी एक्ट 1968 द्वारा किया जाता है। अगर किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया जाता है तो उसके लिए लोकसभा के कम से कम 100 सांसद और राज्यसभा के महाभियोग के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर जरूरी है। इस प्रस्ताव को लोकसभा या राज्यसभा में पेश किया जा सकता है। लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति की मंजूरी प्रस्ताव पेश करने के लिए लिया जाना आवश्यक है। दोनों सदनों के प्रमुखों द्वारा महाभियोग के प्रस्ताव को खारिज भी किया जा सकता है।
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भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग चलाने की 5-चरणीय प्रक्रिया
संविधान सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया निर्धारित करता है, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश के मामले में भी लागू होता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं, जब तक कि उन पर दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर महाभियोग नहीं लगाया जाता है। न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 और न्यायाधीश (जांच) नियम, 1969 के साथ संविधान में महाभियोग की पूरी प्रक्रिया का प्रावधान है। संविधान का अनुच्छेद 124(4) कहता है: "सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि संसद के प्रत्येक सदन के अभिभाषण के बाद पारित राष्ट्रपति के आदेश को कुल सदस्यता के बहुमत द्वारा समर्थित नहीं किया जाता है।
चरण 1: लोकसभा के 100 सांसदों या राज्य सभा के 50 सांसदों द्वारा प्रस्ताव का नोटिस जारी किया जाता है। हटाने का यह प्रस्ताव किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है।
चरण 2: प्रस्ताव को सदन के अध्यक्ष/सभापति द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है। यदि प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता है, तो अध्यक्ष या सदन के सभापति तीन सदस्यीय समिति बनाते हैं जिसमें उच्चतम न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और आरोपों की जांच के लिए एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होते हैं। समिति भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लगाए गए कथित आरोपों की जांच करती है।
चरण 3: यदि तीन सदस्यीय समिति प्रस्ताव का समर्थन करने का निर्णय लेती है, तो इसे सदन में चर्चा के लिए लिया जाता है, जहां इसे पेश किया गया था और इसे विशेष बहुमत से पारित होना जरूरी होता है। जिसका अर्थ है कि इसे उस सदन की कुल सदस्यता के बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए जो उस सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई सदस्य हों।
चरण 4: एक बार पारित होने के बाद, इसे दूसरे सदन में भेजा जाता है जहां इसे फिर से विशेष बहुमत से पारित करने की आवश्यकता होती है।
चरण 5: दो-तिहाई बहुमत से दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित होने के बाद गेंद भारत के राष्ट्रपति के पाले में आ जाती है। वहां से से ही भारत के मुख्य न्यायाधीश को हटाने के लिए संपर्क किया जाता है।
महाभियोग का इतिहास
सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस पीडी दीनाकरण जिनके खिलाफ साल 2009 में राज्यसभा के सांसदों ने तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी को पत्र लिखकर 16 आरोप लगाए। उनके खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी हुई थी। तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने दीनाकरण पर लगे आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया। लेकिन सुनवाई के कुछ दिन पहले ही जस्टिस दीनाकरण ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
कोलकाता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन दूसरे ऐसे जज थे, जिन्होंने महाभियोग का सामना किया। साल 2011 में उनके खिलाफ अनुचित व्यवहार का आरोप लगा। इसके बाद राज्यसभा में जस्टिस सेन के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया। राज्यसभा से प्रस्ताव पास होने के बाद मामला लोकसभा में गया। लेकिन लोकसभा में इस पर वोटिंग होने से पहले ही जस्टिस सेन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जस्टिस जेबी पारदीवाला ने साल 2015 में आरक्षण के मुद्दे पर कुछ टिप्पणी की थी। इसके बाद राज्यसभा के 58 सांसदों ने महाभियोग का नोटिस भेजा था। जब तक हामिद अंसारी इस पर कोई फैसला करते। जस्टिस पारदीवाला ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसके बाद महाभियोग प्रस्ताव भी वापस ले लिया गया। बता दें कि ये वहीं जस्टिस पारदीवाला हैं जिन्होंने अभी अपनी हालिया टिप्पणी में कहा कि उदयपुर की घटना (के लिए भी नूपुर शर्मा का बयान ही जिम्मेदार है।
कपिल सिब्बल की महाभियोग के विरोध में दलील
मई 1990 में सुप्रीम कोर्ट के सीटिंग जज वी रामास्वामी के खिलाफ कुछ रिपोर्ट सामने आती है, जिसमें ये कहा गया कि पंजाब और हरियाणा के चीफ जस्टिस रहते हुए उन्होंने अपने सरकारी आवास पर सरकारी पैसे का काफी दुरुपयोग किया था। सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक रामास्वामी के खिलाफ विरोध का दौर चलता रहा। जिसके चलते फरवरी 1991 में राष्ट्रीय मोर्चा, वाम दल और बीजेपी के कुल 108 सांसदों ने मधु दंडवते के नेतृत्व में रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग चलाए जाने के लिए स्पीकर रवि रे को प्रस्ताव भेज दिया। वकीलों का एक धड़ा रामास्वामी के साथ भी था। जिसका नेतृत्व कपिल सिब्बल कर रहे थे। 12 मार्च 1991 को लोकसभा स्पीकर की तरफ से 3 सदस्यीय जांच कमेटी का गठन किया गया। जांच कमेटी ने रिपोर्ट सामने रखी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी रामास्वामी के ऊपर महाभियोग का मामला संसद में चल रहा था। उस वक़्त कपिल सिब्बल उनके बचाव में कोर्ट पहुंच गए। इस मामले में जिस तरह से कपिल सिब्बल ने जस्टिस वी रामास्वामी का बचाव किया, उससे उन्हें पूरे देश में एक पहचान मिली। जस्टिस रामास्वामी का जाना तय माना जा रहा था। लेकिन एन वक्त पर कांग्रेस के 200 से ज्यादा सांसदों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। जिसके बाद महाभियोग के पक्ष में पड़े वोट दो तिहाई की सीमा को पार नहीं कर पाए और महाभियोग का प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया।
-अभिनय आकाश
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