क्या केंद्र के बनाए किसी कानून को राज्य अपने यहां लागू करने से कर सकता है इनकार? नागरिकता के सवाल पर संविधान सभा में हुई थी जबरदस्त बहस
विपक्षी शासित तीन राज्यों ने इस कानून को अपने राज्य में लागू करने से इनकार कर दिया। ऐसे में बड़ा सवाल की क्या केंद्र के बनाए किसी कानून को राज्य अपने यहां लागू करने से रोक सकता है? इसके साथ ही आपको नागरिकता के सवाल पर संविधान सभा में हुई जबरदस्त बहस के बारे में भी बताएंगे।
नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को लेकर कहीं जश्न कहीं विरोध यानी दो तरह की तस्वीरें सामने आ रही हैं। शरणार्थी बस्ती में जश्न का माहौल नजर आया। पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थी एक-दूसरे को रंग लगाते और मिठाइयां खिलाते नजर आए। वहीं दिल्ली से किलोमीटर की दूरी पर केरल की राजधानी तिरुअंतपुरम में एलडीएफ के कार्यकर्ता सीएए के विरोध में इस कानून की प्रतियां जलाते नजर आए। केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने सीएए के नोटिफिकेशन जारी होते ही कह दिया कि था कि वो अपने राज्य में इसे लागू नहीं होने देंगे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कहा कि उनके अपने राज्य में सीएए लागू नहीं होगा। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने भी इसे विभाजनकारी बताया। इसके साथ ही इसे तमिलनाडु में भी लागू नहीं होने दिया जाएगा। फिलहाल ये रिपोर्ट लिखे जाने तक विपक्षी शासित तीन राज्यों ने इस कानून को अपने राज्य में लागू करने से इनकार कर दिया। ऐसे में बड़ा सवाल की क्या केंद्र के बनाए किसी कानून को राज्य अपने यहां लागू करने से रोक सकता है? इसके साथ ही आपको नागरिकता के सवाल पर संविधान सभा में हुई जबरदस्त बहस के बारे में भी बताएंगे।
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सीएए का नोटिफिकेशन और राज्यों का ऐतराज
घुसपैठियों को देश से बाहर करने की बात मोदी सरकार द्वारा समय-समय पर की भी जाती रही है। इस दिशा में सबसे पहले असम में एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस पर काम हुआ। वर्तमान में नागरिकता संशोधन विधेयक को भी इसी कवायद का हिस्सा माना गया। संसद में पारित होने के पांच साल बाद केंद्र ने 11 फरवरी को नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लागू कर दिया। इस संशोधन के माध्यम से पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के 6 धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को नागरिकता का प्रावधान है जो पलायन करके भारत आए। इनमें हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई और पारसी लोग शामिल हैं। नागरिकता संशोधन कानून किसी एक राज्य नहीं बल्कि पूरे देश में शरणार्थियों पर लागू हो गया। अब आप कह रहे होंगे कि सबकुछ एकदम क्लीयर है तो फिर मामला कहां फंस रहा है? दरअसल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल जैसे कई राज्यों का कहना है कि वे अपने-अपने राज्यों में इस कानून को लागू नहीं करेंगे।
क्या राज्य सरकारें अपने यहां सीएए लागू होने से रोक सकती हैं?
कोई भी राज्य सरकार संसद द्वारा पारित कानून की मंशा या वैधता पर सवाल उठा सकती है। जिसमें कोई भी संदेह नहीं है। इसके लिए संविधान के भीतर और लोकतंत्र के दायरे में अनेक प्रक्रियाएं निर्धारित हैं। सुप्रीम कोर्ट में किसी भी कानून को चुनौती दी जा सकती है। संसद अपने द्वारा पारित किसी कानून को रद्द कर सकती है या सुप्रीम कोर्ट की तरफ से भी किसी कानून को रद्द किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट में सीएए से जुड़े 200 से अधिक याचिकाएं लंबित हैं। जिस पर सुनवाई होनी है। लेकिन कानून के जानकार बताते हैं कि इस बीच में अगर किसी राज्य सरकार को इसको लेकर आपत्ति है तो भी उन्हें इस कानून का पालन करना होगा।
इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट और क्या कहता है संविधान
24 अप्रैल 1973 को भारत की सर्वोच्च अदालत ने केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले को भारत के कानूनी इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। 13 जजों की बेंच ने ये फैसला सुनाया था। न्यायालय ने तय किया कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने का अधिकार है, किन्तु वह किसी भी सूरत में संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदल सकते। बुनियादी ढांचे का मतलब है संविधान का सबसे ऊपर होना, कानून का शासन, न्यायपालिका की आजादी, संघ और राज्य की शक्तियों का बंटवारा, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभुता, सरकार का संसदीय तंत्र, निष्पक्ष चुनाव आदि। कानून का शासन बेसिक स्ट्रक्चर है। कानून का शासन का मतलब ये है कि कोई भी कानून बना है वो सभी पर बाध्यकारी है। संविधान की शपथ लेते हैं सभी लोग। संविधान के आर्टिकल 246 में संसद और राज्य विधानसभाओं के बीच विधायी शक्तियों को वर्गीकृत किया गया है। सहमति अहसमति का मतलब नहीं रह जाता है। कानून की वैधता के लिहाज से देखें तो सातवीं अनुसूति, नागरिकता के सवाल के तहत केंद्र सरकार को पूरे अधिकार हैं। ऐसे 97 विषय हैं, जिन्हें संघ सूची की 7वीं अनुसूची के अधीन हैं, जिनमें रक्षा, विदेश मामले, रेलवे और नागरिकता आदि शामिल हैं। नागरिकता किसी का मौलिक अधिकार नहीं हो सकता है और अमेरिका यूरोप में भी बदलाव किया गए हैं। इसके अलावा किसी दूसरे धर्म के लोगों को नागरिकता देने से मना नहीं किया गया है। नेताओं ने अभी तक बयान दिए हैं और राज्य सरकार की तरफ से कोई औपचारिक आदेश पारित नहीं किया है।
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सभी हिंदुओं, सिखों को मिलनी चाहिए भारतीय नागरिकता
नागरिकता कैसे प्रदान की जाए, इस सवाल पर लंबी बहस हुई और आखिरकार, संविधान निर्माताओं ने इस प्रक्रिया से धर्म को नहीं जोड़ने का फैसला किया। यहां संविधान सभा की बहस के दौरान दिए गए कुछ बयान दिए गए हैं, जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे कुछ सबसे जटिल मुद्दों को उठाया गया और हल किया गया। जैसा कि आज तर्क दिया जा रहा है, संविधान सभा के कुछ सदस्यों का मानना था कि सभी हिंदुओं और सिखों के पास भारत में एक प्राकृतिक घर होना चाहिए, क्योंकि उनके पास 'अपना कहने के लिए कोई अन्य देश नहीं था'। मध्य प्रांत और बरार के कांग्रेस सदस्य पीएस देशमुख ने 11 अगस्त, 1949 को विधानसभा में कहा कि यहां हम हजारों वर्षों के इतिहास के साथ एक संपूर्ण राष्ट्र हैं और इस तथ्य के बावजूद, हम इसे त्यागने जा रहे हैं। न तो हिंदू और न ही सिख के पास व्यापक दुनिया में जाने के लिए कोई अन्य जगह है। केवल इस तथ्य से कि वह हिंदू या सिख है, उसे भारतीय नागरिकता मिलनी चाहिए क्योंकि यही एक परिस्थिति है जो उसे दूसरों के प्रति नापसंद बनाती है। लेकिन हम एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हैं और इस तथ्य को मान्यता नहीं देना चाहते कि दुनिया के किसी भी हिस्से में हर हिंदू या सिख के पास अपना घर होना चाहिए। यदि मुसलमान अपने लिए पाकिस्तान नामक एक विशेष स्थान चाहते हैं, तो हिंदुओं और सिखों को भारत को अपना घर क्यों नहीं बनाना चाहिए?
'पारसियों, ईसाइयों के बारे में क्या?'
हालाँकि, मध्य प्रांत और बरार के एक पारसी कांग्रेसी आरके सिधवा ने बताया कि यह सुविधा केवल हिंदुओं और सिखों तक नहीं बढ़ाई जानी चाहिए। केवल सिखों और हिंदुओं का उल्लेख करना मेरे ख्याल से उचित नहीं होगा। मेरा कहना यह है कि हमें आवश्यक रूप से 'किसी समुदाय' का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम ऐसा करते हैं तो ऐसा लगेगा जैसे हम अन्य समुदायों की अनदेखी कर रहे हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आज पाकिस्तान में लाखों पारसी और ईसाई हैं जो वापस आना चाहते हैं आपको उनके खिलाफ दरवाजा क्यों बंद करना चाहिए?
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जो लोग पाकिस्तान चले गए उन्हें वापस नहीं आने दिया जाना चाहिए
संयुक्त प्रांत के जसपत रॉय कपूर की राय थी कि एक बार जब किसी ने पाकिस्तान से अपना रिश्ता जोड़ लिया, तो उसे वापस नहीं आने दिया जाना चाहिए। “इस संशोधन में कहा गया है कि जो व्यक्ति भारत से पाकिस्तान चले गए, यदि 19 जुलाई, 1948 के बाद, वे हमारे दूतावास या उच्चायुक्त से वैध परमिट प्राप्त करने के बाद भारत वापस आए, तो उनके लिए खुद को नागरिक के रूप में पंजीकृत कराना खुला होना चाहिए। इस देश का. यह सिद्धांत का गंभीर मामला है। एक बार जब कोई व्यक्ति पाकिस्तान चला जाता है और अपनी वफादारी भारत से पाकिस्तान स्थानांतरित कर लेता है, तो उसका प्रवास पूरा हो जाता है। इस पर, बिहार के ब्रजेश्वर प्रसाद ने बताया कि पाकिस्तान जाने वाले सभी लोग वहां बसना नहीं चाहते थे, और कुछ लोग हिंसा भड़कने के कारण घबराहट में भाग गए थे।
असम को लेकर चिंताएं
1949 में भी पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से प्रवासन के कारण असम की जनसांख्यिकी बदलने को लेकर चिंताएँ थीं। पूर्वी पाकिस्तान के पंडित ठाकुर दास भार्गव ने कहा, “मुझे एक विश्वसनीय प्राधिकारी ने बताया है... कि विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल से तीन गुना अधिक हिंदू शरणार्थी, मुस्लिम असम में चले गए हैं।
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