हमने ज़्यादा पदकों का क्या करना है (व्यंग्य)

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इंसान को जितना मिल जाए उसमें खुश रहने की प्रवृति रखनी चाहिए। आजकल तो वैसे भी कम से कम में काम चलाने या कम चीज़ों के साथ ज़िंदगी जीने का सूत्र बंट रहा है। इसलिए ज़्यादा पदक के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए।

कई दिनों से सोच रहा हूं कि ओलंपिक में ज़्यादा पदक आ गए तो क्या करेंगे। कोई चीज़ ज़्यादा हो जाए तो रखनी मुश्किल हो जाती है। गलत बंदों का ध्यान खींचती है। पड़ोसियों की जलन की गहराई बढ़ने लगती है। भविष्य परेशान होना शुरू हो जाता है क्यूंकि उससे और ज़्यादा तमगों की उम्मीदें लगानी शुरू हो जाती हैं। 

इंसान को जितना मिल जाए उसमें खुश रहने की प्रवृति रखनी चाहिए। आजकल तो वैसे भी कम से कम में काम चलाने या कम चीज़ों के साथ ज़िंदगी जीने का सूत्र बंट रहा है। इसलिए ज़्यादा पदक के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। इतनी मेहनत करो, घर के आराम से सालों दूर रहो, विदेश में महंगी कोचिंग लो, यह न करो, वो न करो, वह न खाओ इसे पीते रहो फिर भी कमबख्त पदक हमारी किस्मत से छिटक कर दूसरों की किस्मत में चले जाते हैं।

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वे लोग मेहनत तो करते ही हैं लेकिन उनकी किस्मत भी बढ़िया है। हम शाकाहारी हुए जाते हैं। देसी घी, दालें और हरी सब्जियां खाते हैं। मंगलवार और कुछ ख़ास दिनों में मांस नहीं खाते हैं। कई जगह तो अंडा बोलना भी पाप है। लोकतान्त्रिक अनुशासन बनाए रखते हैं। उनके यहां कीड़े, मगरमच्छ, काक्रोच, भेड़, मुर्गा और मछली खाना तो सामान्य बात है। इतनी गलत चीज़ें खाने के बावजूद दर्जनों के हिसाब से मैडल ले जाते हैं। जिनके यहां कोविड का जन्म हुआ उन्होंने भी पदक जीतने में कसर नहीं छोडी। माना वे लोग अपनी सभ्यता संस्कृति से भी खूब प्यार करते हैं, उत्सव मनाते हैं एक बार मिली ज़िंदगी को खुलकर जीते हैं लेकिन पदक भी हासिल करते हैं।

हम लोग तो अपनी सभ्यता संस्कृति को उनसे भी ज्यादा प्यार करते हैं। जुलूस निकालते हैं, नारे लगाते हैं, मेले उत्सव आयोजित करते हैं। पूरी दुनिया ने सब कुछ हमारे देश से सीखा फिर भी हमारे लिए पदक नहीं बचते हैं। छोटे देशों के निवासी किस्म किस्म की वाइन, विह्स्की और काफी रोजाना पीते हैं। वैसे हमारे यहां शराब पीना गलत माना जाता है फिर भी खूब पीते हैं। भाग्य को पटाए रखने के लिए कभी कभी नहीं भी पीते। हमारा भाग्य कमज़ोर है। हम तो धार्मिक वैमनस्य, जाति पाति, बेरोजगारी के बावजूद कोशिश करते हैं लेकिन उनसे पीछे रह जाते हैं। हमारे कई शहरों से कम जनसंख्या वाले देश भी स्वर्ण पदक झटक रहे हैं (जी नहीं, मेहनत से जीते हैं)। सुना है सात माह की गर्भवती महिला तलवारबाजी के जौहर दिखा रही है।

    

वैसे हमने ज़्यादा पदकों का क्या करना है। हमारे असली पहलवान तो नेता हैं जिनकी खेल राजनीति से बच नहीं सकते। बेचारे खिलाड़ी तो पदकों को किसी ख़ास सड़क पर विरोध स्वरूप रख सकते हैं या हाथ में लेकर रो सकते हैं। इसलिए ज़्यादा पदक न भी मिल सके तो क्या।

- संतोष उत्सुक

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