आवाज़ें और कान (व्यंग्य)

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पौधों को लेकर पिछले दिनों एक और अध्ययन हुआ। हमारे यहां यह दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा है कि प्लास्टिक के फूल और पौधे ज़्यादा साल तक चलते हैं इसलिए उन्हें अपनाना चाहिए या अध्य्यन किया जाता है कि हम अपने राज्य का हरित क्षेत्र ज़्यादा कैसे बता सकते हैं।

विदेशी सर्वे और अध्ययन अक्सर मुझे परेशान करते रहते हैं। समझ नहीं आता उनके विषय किस तरह चुने जाते हैं। कुछ भी हो उनका विषय अनूठा होता है, ऐसा विषय चुनने बारे हम तो सोचना भी नहीं चाहते। उनके कई अध्ययन खूब दिलचस्पी भी जगाते हैं हालांकि वे ऐसा कोई सर्वे नहीं करते कि उनका देश दुनिया में विश्वगुरु कहलाए या विश्वगुरुओं का देश कहलाने की राह पर अग्रसर हो। जब उनके पास पैसा है, समय है और सर्वे में दिलचस्पी लेने वाले नागरिक हैं तो उन्हें ऐसा कुछ करना चाहिए कि दुनिया उन्हें देखती रह जाए।

पौधों को लेकर पिछले दिनों एक और अध्ययन हुआ। हमारे यहां यह दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा है कि प्लास्टिक के फूल और पौधे ज़्यादा साल तक चलते हैं इसलिए उन्हें अपनाना चाहिए या अध्य्यन किया जाता है कि हम अपने राज्य का हरित क्षेत्र ज़्यादा कैसे बता सकते हैं। पर्यावरण से सम्बंधित बढ़िया सुविधाओं वाली बैठकें कहां और कैसे आयोजित कर सकते हैं। हम इन ज़रूरी बैठकों को बेहतर तरीके से आयोजित करने में ही परेशान हो जाते हैं लेकिन तेल अवीव नामक छोटे से देश का अध्ययन बताता है कि पौधे भी परेशान होते हैं। पानी न दिए जाने या काटने पर भावनाएं व्यक्त करते हैं। पौधों को भूल कर हमारे यहां तो असहाय बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों की भूख परेशानियों और दुर्घटनाओं का खूब ख्याल रखा जाता है। उनकी मदद का वीडियो बनाकर फेसबुक पर पोस्ट किया जाता है। वे कहते हैं पौधों की आवाज़े इंसानों को सुनाई नहीं देती, हमारे यहां तो इंसानों की आवाजें इंसानों को सुनाई नहीं देती।

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लगता है उन्होंने यह अध्ययन शायद हैरी पॉटर की फिल्मों से प्रेरित होकर किया होगा जिसमें पौधे चीखते चिल्लाते हैं। कहते हैं पौधों की आवाज़ निकालने की फ्रीक्वेंसी इंसानों की सुनने की शक्ति से ज्यादा होती है। यह बात बिलकुल सही जांची उन्होंने। उन्होंने बताया कि हर पौधे की आवाज़ अलग होती है। जब वे प्यासे होते हैं और चोट खाते हैं तो आवाजें निकालते हैं। अचरज यह है कि पौधों की आवाजें पॉप कॉर्न के फूटने जैसी होती हैं। हमारे यहां पौधे अगर ऐसी आवाजें निकालेंगे तो समझा जाएगा कि कोई बच्चा शरारत कर रहा है या अमुक पौधा खाद की जगह पॉप कॉर्न मांग रहा है। हम ऐसी आवाज़ें सुनने या जांचने के प्रयोग, इंसानों पर नहीं कर सकते। हमें इतनी फुर्सत कहां है। हमारे इंसान तो धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रयोगों में ही अस्त, व्यस्त और मस्त रहते हैं।

अध्य्यन बताता है कि पौधे अपने साथी पौधों को अलर्ट करते हैं लेकिन इंसान तो सिर्फ खुद को अलर्ट कर बचाते हैं, संभव हो तो मौका से भाग भी जाते हैं। जब से मैंने इस अध्ययन बारे पढ़ा है मेरे कानों में अजीब सी आवाजें आनी शुरू हो गई हैं।

- संतोष उत्सुक

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