दिमाग और दिल का उपयोग (व्यंग्य)

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दिल तो यही कहता है कि कानून के पचड़े में न पड़ें लेकिन दिमाग समझाते, उकसाते हुए उलझाकर रखता है। अपना आधिपत्य जमाने की बात करता है। तभी तो कानून के रखवालों का दिमाग, कानून की किताबों के अलग अलग अध्यायों में छपे, शब्दों के नए नए अर्थ परिभाषित करता है।

उचित कहा या नहीं लेकिन पिछले दिनों उन्होंने कहा कि बुलडोज़र चलाने के लिए दिमाग और दिल की ज़रूरत होती है। यह बात तो हम युगों से सुनते आए हैं कि कोई भी युद्ध शस्त्रों से बाद में पहले दिमाग से लड़ा जाता है। वास्तव में यह दिमाग ही तो है जो सब कुछ नियंत्रित करता है संभवत तभी बुलडोज़र भी दिमाग से चलाए जाते होंगे। वह बात दीगर है कि दिमाग कानून को किस तरह और कितना मानता है। बुलडोज़र चलाने के लिए दिल तो नहीं मानता होगा। यह कहा गया और माना भी गया कि बुलडोज़र के स्टीयरिंग को हर किसी का दिमाग चला नहीं सकता। बुलडोज़र चलाने के लिए दिमाग और दिल दोनों मज़बूत चाहिए। 

यह इत्तफाक है कि दिमाग और दिल की राशी एक ही है। क्या इसीलिए खुराफाती काम करने के लिए दोनों साथ साथ चाहिए। सदियों से सुनते, देखते और पढ़ते आए हैं कि जब दिमाग काम न करे तो दिल की बात सुननी चाहिए। यह सलाह बार बार दी जाती है क्यूंकि दिमाग तो अक्सर एक गणितज्ञ की मानिंद गणना करके ही किसी भी सम्बन्ध में निर्णय सुनाता है। कोई काम करने को कहता है। बेचारे दिल के बारे में कहा जाता है कि इसमें कोमल भावनाएं भरी होती हैं। कठिन से कठिन परिस्थिति में मानवीय बने रहने को प्रेरित करता है । एक व्यावसायिक की तरह नहीं सोचता, सलाह नहीं देता, फैसला नहीं लेता।

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दिल तो यही कहता है कि कानून के पचड़े में न पड़ें लेकिन दिमाग समझाते, उकसाते हुए उलझाकर रखता है। अपना आधिपत्य जमाने की बात करता है। तभी तो कानून के रखवालों का दिमाग, कानून की किताबों के अलग अलग अध्यायों में छपे, शब्दों के नए नए अर्थ परिभाषित करता है। बेशक सन्दर्भ भी नए होते हैं। इस तरह अनेक बार कानून का मनमाना प्रयोग भी होता है। उदास दिल, निढाल भावनाओं को संभाले किसी अंधेरे कोने में बैठा रहता है और दिमाग विजयी मुस्कराहट साथ तन कर खड़ा होता है।  

  

राजनीति, शिक्षा, धर्म और बदले की नफरत भरी भावना ने दिमाग को एक बाजारी वस्तु बना दिया है जो व्यावसायिक दृष्टिकोण में बंधकर सोचता है। वह जो करता है राजनीति के कारण उसमें मानवता, नैतिकता, सार्थकता और सामाजिकता तो होती ही नहीं। इसी कारण नैसर्गिक प्रतिभा का कचरा कर दिया दिखता है। विरोधियों का नाम नहीं लिया जाता बस कह दिया जाता है कि जनता ने पहले जिन लोगों को अवसर दिया था उन्होंने अराजक और भ्रष्टाचारी गतिविधियों के कारण पहचान का संकट पैदा कर दिया। पंगे और दंगे कराए, जाति और जाति को लड़वाया, वोटों को वोटों से मज़हब को मज़हब से भिडवाया। यह सब सोची समझी दिमागी योजना के अनुसार ही होता है। दिमाग बुलडोज़र बनकर, दिल की क्यारियों में खिले फूल रौंदने को तैयार रहता है।   

- संतोष उत्सुक

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