कुदरत की मनमानियां (व्यंग्य)

मां प्रकृति को जितना चाहे लूट लें। उसके पहाड़ तोड़ते रहें। उनमें सुरंगे बनाकर खोखला कर दें। सड़कें चौड़ी करने के लिए उसके लाखों पेड़ कलम कर दें। प्राकृतिक जलस्त्रोत दूषित कर दें। नदियों को खतरनाक रसायन से भर दें।
आजकल नया सहज वातावरण है कि कोई अपना दोष देखने, सुनने, जानने और व्यव्हार में सुधार करने के लिए तैयार नहीं है। कितना बढ़िया है, हर एक को लग रहा है कि उसकी बात सही है, वह जो कर रहा है उसका अधिकार है। बेचारे, दर्जनों उचित कर्तव्य परेशान हैं और मानवीय अकर्मण्यता के कोने में उदास पड़े हैं। वैसे दूसरों को दोष देना हमेशा आसान रहा है। जिसके पास ताक़त रही, जेब में पैसा रहा, उसने कुछ भी, कैसा भी, जैसा दिमाग ने कहा वैसा करवाया और आज भी वैसा ही है। हालांकि व्यवस्था ने सहनशक्ति में काफी सुधार किया है लेकिन हालात कैसे भी हों प्रतिक्रिया की मृत्यु कभी नहीं होगी ।
कुदरत को परेशान करने की सारी हदें पार कर चुका शातिर इंसान, कुदरत से भी यही चाहता है कि कुदरत सहती रहे। हरियाली, हवा, पानी मिलता रहे और हम अनुशासन रहित शैली में मज़े करते रहें। इंसानी खुराफातों के परिणामस्वरूप जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाकर खबरदार करती है तब भी विकास के ठेकेदार नहीं समझते और कुदरत की प्रतिक्रिया को उसकी मनमानी कहने लगते हैं। प्रकृति की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया, खबर बनाने, पकाने और दिखाने वालों के लिए भी एक शोर मचाऊ, संवेदना जगाऊ खबर बनकर रह जाती है।
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उदघोशिकाएं चीख चीख कर खबर सुनाती हैं कि कुदरत की मनमानी जारी है। इंसान परेशान है। मौसम की दगाबाज़ी तीन सौ साथ डिग्री पर जारी है। अभी तो मार्च शुरू ही हुआ है मुंबई का तापमान उनतालीस डिग्री हो गया है। मुश्किल में जान है। हे भगवान्, बादल फट रहे हैं। ग्लेशियर लुढ़क रहे हैं। पर्यावरण के साथ राजनीति, ताकत और इंसान के बर्ताव की संजीदा बात न होकर खबर होती है, कुदरत की मनमानियां जारी हैं।
परम्परा अनुसार कोई अपना दोष देखने, सुनने, जानने और व्यव्हार में सुधार करने के लिए तैयार नहीं होता। सब भूल जाते हैं कि कमज़ोर इंसान को परेशान करते रहोगे, करते ही रहोगे तो वह भी कभी न कभी हाथ उठा लेगा। इंसान, प्रकृति की शक्तियों से पूरी तरह परिचित नहीं।
मां प्रकृति को जितना चाहे लूट लें। उसके पहाड़ तोड़ते रहें। उनमें सुरंगे बनाकर खोखला कर दें। सड़कें चौड़ी करने के लिए उसके लाखों पेड़ कलम कर दें। प्राकृतिक जलस्त्रोत दूषित कर दें। नदियों को खतरनाक रसायन से भर दें। जहां चाहें कूड़ाकर्कट फेंकते रहें। हमारी मनमानी कम नहीं होती, हमारी दादागिरी कम नहीं होती, हमारी बदमाशियां तबाही मचाती हैं। हम यह भी चाहते हैं कि बरसात समय पर हो, गर्मी ज्यादा न हो, ग्लेशियर न पिघलें लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। जब कुदरत हमारे दुर्व्यवहार के कारण अपना व्यवहार बदलती है तो वह उसकी मनमानी कह दी जाती है। कुदरत की मनमानियों की तो अभी शुरुआत है, अभी तो बहुत कुछ बाक़ी है, आगे आगे देखिए होता है क्या।
- संतोष उत्सुक
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