आसमान के तारे और बजट के आँकड़े (व्यंग्य)

neta

भोजन का स्वाद औसत रखता हूँ। यदि मेरी इस बात का ध्यान सभी दंपति रखें तो घर खुशहाल बना रह सकता है। कभी इनकी पसंद तो कभी उनकी पसंद का बना देने से घर हो या देश, फिर भोजन या बजट की मगजमारी नहीं रह जाती।

मेरी कई बुरी आदतों में एक बुरी आदत दिन में देखी-सुनी बातों का रात में सोते सयम सपने में रिहर्सल करना होता है। चूँकि दिन भर मैंने बजट की खबरें देखी थीं, सो रात में वित्तमंत्री बन बैठा। इस खयाली पुलाव की दुनिया के बहुत बड़े टीवी चैनल के पत्रकार ने मेरा साक्षात्कार लेना आरंभ किया-

प्रः आपको बजट पेश करते समय कैसा लगा?

मैंः मुझे बजट पेश करना डाइनिंग टेबल पर भोजन परोसने जैसा लगता है। अब खाने वाले मेरे अपने हैं तो वे शिकायत तो क्या चूँ करने तक की हिम्मत नहीं कर सकते। जो दिया चुपचाप खा लेते हैं। वरना वे जानते हैं कि ज्यादा नखरे दिखाने से जो मिल रहा है, वह भी नहीं मिलेगा। हाँ यह अलग बात है कि कभी सब्जी अच्छी बन गई तो सभी उसे चट करने की फिराक में रहते हैं। इसीलिए भोजन का स्वाद औसत रखता हूँ। यदि मेरी इस बात का ध्यान सभी दंपति रखें तो घर खुशहाल बना रह सकता है। कभी इनकी पसंद तो कभी उनकी पसंद का बना देने से घर हो या देश, फिर भोजन या बजट की मगजमारी नहीं रह जाती।

इसे भी पढ़ें: आयो बजट महाराज (व्यंग्य)

प्रः देश की आर्थिक व्यवस्था इतनी खराब है फिर भी आप इतना भारी बजट कैसे पेश कर पाते हैं?

मैंः देखिए, घर में खाने के लाले ही क्यों न पड़े हों, लेकिन दुनिया के सामने अपनी शान पर बट्टा नहीं लगना चाहिए। इंसान पेट की भूख से कम इज्जत की भूख से ज्यादा आहत होता है। इसलिए भीतर से कितनी भी परेशानी क्यों न हो बाहर से अपनी शेरवानी का रुतबा बचाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

प्रः सरकार पर निजीकरण को बढ़ावा देने का आरोप लग रहा है। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

मैंः शिशु जन्म लेने के साथ ही अपना निजी अस्तित्व प्राप्त कर लेता है। वह निजी तौर पर खुद को जीवन भर स्थापित करने का प्रयास करता रहता है। इसी तरह सरकार मां के समान होती है और उसके उपक्रम संतान की तरह। इसीलिए सभी उपक्रमों को निजी तौर पर आगे बढ़ने का अवसर देना चाहिए। तभी उनकी क्षमता बाहर निकल कर आती है। भीड़ के संग रहकर भीड़ बनने से अच्छा है भीड़ से अलग होकर अपनी पहचान बनाओ। यही कारण है कि हमारी सरकार ने ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ के मुहावरे को बदलकर ‘अकेला चना ही भाड़ फोड़ सकता है’, कर दिया है। इससे निजी क्षमता का विकास होता है। निजीकरण से गला काट होड़ पैदा होती है। ऐसा होने पर केवल काम के गले रह जाएंगे बाकी सब गले गल जाएंगे।

प्रः बैंकों की ऋण प्रणाली के बारे में आपके क्या विचार हैं?

मैंः हमारे देश के बैंक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बैंक हैं। वे छोटे और बड़े लोगों को ऋण देते हैं। छोटे लोगों के ऋण उन्हें समाज में इतना छोटा कर देते हैं कि न तो वह जीने लायक बचता है न मरने लायक। उनकी धोती तक उतार लेते हैं। बड़े लोगों को दिया हुआ है ऋण उन्हें हवाई यात्रा के माध्यम से विदेशों को उड़न छू हो जाने का पर्याप्त अवसर देता है। हमारे बैंकों की सबसे बड़ी अनौपचारिक शाखा स्विस बैंक है। हमारे बैंक जहां आराम से कमाए रुपयों को हराम कर देते हैं वहीं इसकी अनौपचारिक शाखा हराम से कमाए पैसों को जमा कर हम जैसों को आराम देते हैं।

इसे भी पढ़ें: यह हुई न बात (व्यंग्य)

प्रः पेट्रोल-डीजल पर कृषि सेस टैक्स लगाया गया है। क्या यह भार नहीं है?

मैंः पहले तो हम पेट्रोल-डीजल का नाम बदलकर किसी देशभक्त पर रखना चाहते थे। इससे पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ता भी तो जनता को दुख नहीं होता। जनता महंगाई, भ्रष्टाचार, बलात्कार, अत्याचार, लूटपाट सब सह सकती है लेकिन देशभक्त व राष्ट्रवाद के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सह सकती। किंतु हमने देखा कि सब लोग आए दिन कृषि के नाम पर हमारी नाक में दम कर रखा है। इसीलिए ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए इस पर टैक्स लगा दिया गया है। अब अगली बार कोई भी बेवजह किसी चीज का रट्टा नहीं लगाएगा। लगाएगा तो गर्दन पकड़कर एक और नया टैक्स वसूल लिया जाएगा।

प्रः विपक्ष आपके बजट की आलोचना कर रहा है। इसके बारे में आप क्या कहना चाहते हैं?

मैंः विपक्ष में चिल्लाने वाले भी हमारे भाई-बंधु हैं। जब हम मक्खन-मलाई खाएंगे तो सामने वाला हाथ नहीं मलेगा, चिल्लाएगा नहीं तो और क्या करेगा! चुनाव के समय फिर इन्हीं विपक्ष के लोगों में से कई हमारी मलाई खाने के लिए पाला बदल लेते हैं। यदि कोई खाने से मना करता है तो उसे जबरन खिलाने के तरीके हमें अच्छी तरह से आते हैं।

प्रः अंतिम प्रश्न, बजट के आंकड़े आम लोगों की समझ से परे क्यों होते हैं?

मैंः बजट उस हाथी के समान है जिसके खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं। लोगों को खाने-दिखाने के दांत समझ आ जाएंगे तो हमें वोट कौन देगा? एक बार के लिए आसमान के तारे, सर के बाल और देश के भिखमंगों की संख्या गिनी और समझी जा सकती है, लेकिन हमारे देश का बजट हरगिज़ नहीं।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़