बचपन की मौज बनाम विकास के टापू (व्यंग्य)

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पीयूष पांडे । Feb 28 2020 3:37PM

बिल्डर ने सोसाइटी में एक छोटी संसद भी बना दी होती तो कसम से सोसाइटी के पदाधिकारी संयुक्त राष्ट्र में सोसाइटी को अलग संप्रभु राष्ट्र घोषित करने की मांग कर सकते थे...

मेरी सोसाइटी की सुरक्षा बहुत पुख्ता रहती है। इस कदर सख्त कि ‘तानाजी’ देखने के बाद मुझे कई बार लगता है कि मैं सोसाइटी में नहीं शिवाजी के किले में प्रवेश कर रहा हूं। हाल यह है कि कई बार सुरक्षाकर्मी उसी तरह पहचानने से इंकार कर देते हैं, जिस तरह राजनेता चुनाव जीतने के बाद वोटरों को पहचानने से इंकार कर देता है। सोसाइटी का अपना लिखित संविधान है, जिसे सोसाइटी का अकड़ू अध्यक्ष शायत राष्ट्र के संविधान से भी ज्यादा पवित्र मानता है, लिहाजा कानून तोड़ने की इजाजत किसी को नहीं है।

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सोसाइटी का अपना पार्क, अपना जिम, अपना स्विमिंग पूल, अपना साइक्लिंग ट्रैक है, अपना मिनी बाजार है, अपना कॉन्फ्रेंस और पार्टी हॉल है। बिल्डर ने सोसाइटी में एक छोटी संसद भी बना दी होती तो कसम से सोसाइटी के पदाधिकारी संयुक्त राष्ट्र में सोसाइटी को अलग संप्रभु राष्ट्र घोषित करने की मांग कर सकते थे। इस रिहायशी इलाके में जवानी की दहलीज पर खड़े किशोर भी है, जो अव्वल तो खुद को सोसाइटी का नहीं बल्कि फेसबुक, टिवटर और इंस्टाग्राम का बाशिंदा मानते हैं। यदा-कदा मां-बाप घर से धकेलकर सोसाइटी के किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में भेज भी देते हैं तो वे वहां उसी तरह खड़े हो जाते हैं, जैसे खेत में बजूका खड़ा होता है।

मेरी चिंता बच्चों को लेकर हैं। दो दिन पहले मेरी 8 साल की बेटी ने पहली बार सुअर के दर्शन किए तो उसका मुँह उसी तरह खुला का खुला रह गया, जैसे सरकारी दफ्तर में बिना रिश्वत दिए काम होने पर आम आदमी का खुला रह जाता है। वो हैरान थी कि ये कैसा जीव है,जो कीचड़ में आराम से बैठकर पेट पूजा कर रहा है। बच्ची दिन भर घर से स्कूल तक हाईजीन का पाठ पढ़ती है, और उसे एक पल को लगा कि हाईजीन की पूरी कल्पना ही फ्रॉड है।

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एक हफ्ते पहले ऐसा ही एक वाक्या पड़ोसी गुप्ता जी के बेटे के साथ हुआ था, जिसने अपनी नानी के यहां पहली बार लंगूर के दर्शन किए थे। वो बड़े चाव से बता रहा था कि एक लंगूर ने छत पर आए कई बंदरों को ऐसे मार-भगाया जैसे दबंग-2 में सलमान खान ने गुंडों को मार भगाया था। उसने उस कौतुहल का भी वर्णन किया, जब एक सपेरा गले में सांप लटकाए नानी के घर के बाहर आकर बीन बजाने लगा था।

मैं उसकी बात सुनकर उसी तरह हैरान था, जिस तरह जीत का दावा करने वाला नेता जमानत जब्त होने के बाद होता है। मैंने सोचा कि क्या ये बच्चे विकास के टापू में रह रहे हैं? ऐसे टापू, जहां सब कुछ सुव्यवस्थित है। इन बच्चों के लिए नाली में पड़ी गेंद को हाथ से निकालकर दोबारा खेलने की सोच भी पाप है। इनके लिए कंचे का खेल अस्तित्व में ही नहीं है। बाग से बेर तोड़कर खाने को ये संगीन अपराध समझ सकते हैं। इनके लिए नहर में नहाना भी ऐसी उपलब्धि है, जिस घटना से वो भविष्य में अपनी आत्मकथा का आरंभ कर सकते हैं। इनके पास मोबाइल है मौज नहीं ?

- पीयूष पांडे

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