हवाई यात्रा का भारतीयकरण (व्यंग्य)

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हम भारतीयों की एक खासियत है कि हम चाहे किसी भी क्लास में प्रमोट हो जाएं, अपनी भारतीयता की छाप नहीं छोड़ सकते। जो संस्कार हमारे जन मानस में बचपन से ही कूट-कूट कर भर दिए गए हैं, वो भला कहां जाने वाले हैं।

आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में देश में मिडिल क्लास की तलछट से छनकर एक नयी पीढ़ी जिन्हें हम नव धनाढ्यों की पीढ़ी कहा सकते हैं, की बाढ़ सी आ गई है। मध्यम वर्गीय क्लास के ऊपर क्रीमी लेयर की तरह तैर रही ये नई क्लास, जो अब किसी भी प्रकार से हाई फाई सोसाइटी के लटके-झटकों को अपनी दैनिक जीवन शैली में शामिल करना चाहती है। हवाई यात्रा जो पहले केवल अभिजात वर्ग और सेलिब्रिटियों की ही पहुंच में थी, अब इस वर्ग की जेब में भी अपनी जगह बना रही है। आम भारतीय, जो पहले बस के धक्कों और रेल की रेलमपेल में नजर आता था, अब वह हवाई यात्राओं में अपने पैर जमा चुका है। आर्थिक संभावनाओं की दशा में हवाई यात्रा भी इस भारतीयकरण से अछूती नहीं रही। कारन कई है, इसके लिए हवाई यात्रा कंपनियां भी काम कर रही हैं। हवाई किराया घटा दिया गया, उस पर भी डिस्काउंट की बौछार, और इस नए धनाढ्य वर्ग को अभिजात वर्ग की लुभावनी जीवनशैली में शामिल होने के लुभावने ऐड। छोटी बड़ी सभी कंपनियां भी आजकल अपने क्लाइंट को टूर के बहाने, फील्ड जॉब के बहाने और इंसेंटिव बतौर हवाई यात्रा पर भेज रही हैं।वो चाहे तेल साबुन बेचने वाले कंपनी हो या ससीमेंट, खाद बेचने वाली,सभी ने अपने वितरकों को हवाई यात्रा के स्वप्निल संसार में बार बार गोता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है!

हम भारतीयों की एक खासियत है कि हम चाहे किसी भी क्लास में प्रमोट हो जाएं, अपनी भारतीयता की छाप नहीं छोड़ सकते। जो संस्कार हमारे जन मानस में बचपन से ही कूट-कूट कर भर दिए गए हैं, वो भला कहां जाने वाले हैं। इसलिए वो सारे भारतीयता के नमूने हम किसी भी सार्वजनिक स्थल पर दिखाएंगे नहीं तो कैसे कहाल्वायेंगे की भारत ही नहीं भारत के रहने वाले भी महान हैं! हमारी नस नस और रोम रोम में भारतीयता इतनी कूट-कूट कर भरी है कि अगर किसी देश को हमें 2 महीने के लिए ही सौंप दें तो उसका भी भारतीयकरण कर दें। अंग्रेजों ने यहां इतने सालों तक राज्य किया लेकिन हमारे ठेट भारतीयता की आत्मा को मलिन नहीं कर पाएं। हम आज भी रेलवे विंडो की लाइन में धक्का-मुक्की और लातम घूंस में सिद्धहस्त हैं, बैंक के पेन और रेलवे के टॉयलेट के लोटे जो चेन से बंधे होते हैं, वो कितनी भी हमारी मानसिकता पर प्रश्न उठाएं लेकिन आखिरकार हमारी भारतीयता का परिचय तो देते हैं न!

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हम भारतीय ही हैं जो अपनी भारतीयता की छाप सिर्फ बस या रेल यात्रा में ही नहीं बल्कि हवाई यात्रा में भी छोड़ना चाहते हैं। 

और शायद विमानपत्तन विभाग भी पलक पांवड़े बिछाए अपने आपको भारतीयता के रंग में रंगने के लिए इंतज़ार करता नजर आता है! जैसा हमने बसों और रेलों के सफ़र में किया, देखा और भुगता है, हम चाहते है वो सभी लिबर्टी हमें हवाई यात्रा मे भी मिले, मसलन टिकट विंडो की लंबी लाइन की धक्का-मुक्की, टीटी से ले देकर सीट का जुगाड़, रूमाल रखकर सीट रोकने की तकनीक, अन्दर मनोरंजन के लिए कुछ नटी कर्तब दिखाते बच्चे, भीख मांगते कुछ दिव्यांग जन औरभाटों की पतली खपरियों से बनी खरताल की मधुर ध्वनि पर भजन संगीत गाते कुछ सूरदास स्वरुप गायक। हमें चाहिए कुछ जेबकतरे और चोर उचक्के भी जो हमारी जेब काट सके, हमारे सामान को पार कर सके ! फिर तीन पत्ती और जुए खेलने की सुविधा भी !

अब जैसे हम भारतीय, रेलवे संपत्ति को हम अपनी सम्पत्ती समझते हैं इसलिए हमें अपने खुद के तकिये चादर और रेलवे के तकिये चादर में ज्यादा फर्क महसूस नहीं होता, उसे भी घर की सी इज्जत देकर सूटकेस में रख लेते हैं। होटलों में भी अतिरिक्त साबुन, डिस्पेंसर, तौलिए, नैपकिन को एक रिटर्न गिफ्ट मानकर हर बार ले आते हैं। कहने का मतलब है किसी के आतिथ्य सत्कार को सचे भाव से पूरा सम्मान देते हैं। वैसे भी 15 लाख का वायदा सरकार ने किया है, उसे किस्तों में कैसे वसूलना है, वो हमें आता है। जरूरत है, वही लिबर्टी हमें हवाई यात्रा में भी मिले।

साथ ही हमारे मुल्क का राष्ट्रिय नशा ‘खैनी चूना मिश्रित रस ‘से एअरपोर्ट और विमान की दीवारों पर चित्रकारी करने की छूट, अन्दर विमान में भी कुछ परिवर्तन हो मसलन, सीट नहीं मिलने की स्थिति में खड़े रहने की अनुमति, जरूरत पड़ने पर टॉयलेट की सीट को बिछाकर उसके ऊपर बैठने की अनुमति और ऊपर बैग रखने की जगह में भी अतिरिक्त यात्रियों को बैठने की अनुमति। बस ये कुछ सुविधाएं चाहिए। खाना-पानी तो हम साथ लाते ही हैं, बस पैर फैलाने के लिए थोड़ी सी जगह और मुहैया हो जाए, ताकि किसी और यात्री के सर पर रख सके, दूसरों के आराम में खलल डाल सकें।अब ये भरी भरकम बोरिया बिस्तरों को चेक इन द्वारा कैर्री करने की जरूरत नहीं, हम भारतीय है न पुराने समय से ही सामान को सरहाने रखकर सोने या नीचे रखकर सीट का जुगाड़ करने में सिध्हस्त हैं, ये हमें 'अपने सामन की स्यंव रक्षा करें' के आदर्श वाक्य की पालना की अनुमति भी देता है। 

वैसे भी ऊपर की जगह में एक्स्ट्रा यात्रियों के लिए बैठने का जुगाड़ बन सकता ईहै। खिड़की का शीशा खोलने की सुविधा हो, जब तक भारतीय आदमी हाथ बाहर निकालकर हवा का और पानी की बूंदों का आनंद नहीं ले, उसे लगता ही नहीं कि सफर पूरा हुआ।

हवाई यात्रा जब से शुरू हुई बहुत कुछ अब माहौल भारतीयकरण की तरफ हो रहा है। इस मामले में प्रयास विमानन प्राधिकरण की तरफ से कम, हम लोगों की तरफ से ज्यादा हो रहे हैं। एक बार का वाकया है, जयपुर के एयरपोर्ट पर पहुँचने के लिए सुबह जल्दी टैक्सी ली, नींद पूरी नहीं होने के कारन उनींदा सा था, अतः टैक्सी में ही सो गया। ड्राइवर ने जगाया कि साहब एयरपोर्ट आ गया। मैंने बाहर देखा, भीड़ का आलम देखकर मैं चौंक गया। मैंने कहा आप रेलवे स्टेशन तो नहीं ले आये? ड्राईवर हंसा अरे नहीं साहब एयर पोर्ट ही है ! शायद लम्बे गैप के बाद हवाई यात्रा की थी, काफी कुछ बदल गया। वही रेलवे स्टेशन जैसी भीड़, अंदर चेक-इन पर लंबी-लंबी लाइन, रेलमपेल वाली चहल-पहल, भागते दौड़ते लोग, कुछ लोग वेटिंग रूम में कुर्सियों पर बैठे थे, ज्यादातर कुर्सियों पर सामान रखा था। लोग नीचे चादर बिछाकर सो रहे थे या पारिवारिक भोज का आनंद ले रहे थे। घर के आलू पराठे, अचार का खाने का जो मजा अभी तक रेलवे प्लेटफॉर्म पर या ट्रेन की बोगी में लिया गया था, उस स्वाद को यहां भी उसी भाव से ले रहे थे। वाशरूम में मूत्रदान वालों की लंबी भीड़ लगी हुई थी, जहां लंबी वेटिंग में अपने प्रेशर को कंट्रोल किए हम अपने चौथे नंबर का इंतजार करते रहे। पता नहीं,इस समय ऐसा लगता है जैसे सभी प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने की बीमारी से ग्रसित हों।

खैर, जैसे-तैसे चेक-इन करके विमान में पहुंचे। वहां भी सीट पर धक्का-मुक्की, बड़ी मुश्किल से अपनी सीट तक पहुंचा। देखा, वहां पहले से एक महिला आसन जमाये बैठी थी। काफी मशक्कत के बाद जब एयर होस्टेस ने समझ-बुझाकर उसे अपनी सीट पर बिठाया, तब जाकर मेरी सीट खाली हुई। बैठते ही सामने देखा तो एक बच्चा और उसकी मां जोर से लड़ रहे थे। लड़ने का कारण खिड़की की सीट थी, शायद उनकी पहली यात्रा थी। मां कह रही थी अगली यात्रा में तू बैठ लेना लेकिन बच्चे को जैसे पता था कि अगली यात्रा चुनावी वायदा था, इसलिए बच्चा कोई चांस लेना नहीं चाहता। शायद घर से ही खिड़की वाली सीट पर बैठना फिक्स करके आया था।

वैसे थोड़ा ध्यान अब विमानपत्तन विभाग को भी देना होगा। जिस प्रकार से अब यात्रियों की भीड़ है, प्रतियोगिता का दौर है, वह दिन दूर नहीं जब विमान के बहार ही बसों के परिचालकों की हांक की तरह एयर होस्टेस हांक देती हुई मिल जाएँ– “बेंगलोर बेंगलोर,डेल्ही डेल्ही, 500 रु 500 रु में दिल्ली, नोंन स्टॉप, खाना फ्री, पानी फ्री, जल्दी करो जल्दी! दो सीट खाली है बस,” फिर हवाई जहाज रनवे पर ही थोडा आगे पीछे कर के यात्रियों को फ्री का मेले की नौका राइड करबाने की कवायद ! रेल की तरह दरवाजे पर लटकने की सुविधा हो, डीडीएलजे की तरह हाथ फैलाकर अपनी गली की प्रेमिका को विमान में चढाने की सुविधा हो, छोड़ने आने वाले रिश्तेदार परिचितों को भी चाहे प्लेटफॉर्म टिकट वसूल कर लो, लेकिन फ्लाइट के अंदर तक छोड़ने की सुविधा हो, ताकि रनवे पर जब फ्लाइट दौड़े तो उस समय हाथ हिलाकर अभिवादन करने का और जाते-जाते ये कहने का मजा यहाँ भी मिल जाए, “चुनू के पापा, ख्याल रखना। चिट्ठी-पत्री लिखते रहना और हां, पानी की बोतल बैग के पीछे वाली जेब में रखी है। परांठे चार रखे हैं। बच्चे को एक मैगी दिला देना, जिद कर रहा है। उसे किसी बाबा अघोरी या अनजान साधु से प्रसाद मत लेने देना। अरे हाय दिया, वहां के कमरे की चाबी तो मेरे पास ही रह गई है, अरे इसे चेन खिंचवा के रुकवाओ ना कोई।”

तो कहने का तात्पर्य है, इमरजेंसी ब्रेक होना चाहिए, चेन पुलिंग सिस्टम भी होना चाहिए। हम भारतीय हैं और हमारी बेजोड़ जुगाड़ तकनीकें जब तक इस हवाई यात्रा में शामिल नहीं की जायेंगी तब तक हम चैन से नहीं बैठेंगे।

- डॉ. मुकेश गर्ग 

गंगापुर सिटी, राजस्थान पिन कोड-323301

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