हिंदी मंथ में हिंदी विचार (व्यंग्य)
मैंने फिर कोशिश की, यार, तुम्हारी तो लिखाई भी कितनी सुन्दर है। अपने हाथ से निमंत्रण पत्र लिखकर छपवाओ। कितना अनूठा अनुभव होगा तुम्हें, भाभीजी को, तुम्हारे बच्चों को। बेटी को जिसकी शादी है। उन्हें पता था ऐसा कुछ नहीं होने वाला।
उन्होंने बताया बेटी की शादी की तारीख नज़दीक आ रही है। व्यस्तता बढ़ने लगी है। मैंने पूछा, निमंत्रण तो वह्त्सेप से ही भेजोगे। बोले, नहीं, फिर बोले, वो बात नहीं है। मैंने सोचा होगी कोई बात जो बताना नहीं चाहते। अब तो न बताने का ज़माना है लेकिन उनका पुराना मित्र हूं, शांति भंग करते हुए फिर पूछ बैठा, कार्ड छपवा रहे हो न। बोले हां, विवाह भारतीय संस्कृति के अनुसार ही होना है, कार्ड तो छपेंगे ही । फिर तो निमंत्रण पत्र हिंदी में ही छपवाओगे, यह पूछ लिया मैंने तो वे बगलें झांकने लगे। संस्कृत तो हमें भी नहीं आती, कार्ड तो अंग्रेज़ी में ही छपवाने पड़ेंगे, बच्चे नहीं मानेंगे। उन्होंने व्यवहारिक सच कबूल करते हुए कहा ।
मैंने कहा, तुम हिंदी प्रेमी हो, तुम्हारी बेटी की शादी है, निमंत्रण हिंदी में छपवाओगे तो दूसरों को भी प्रेरणा मिलेगी।उनका चेहरा दो इंच उतर गया, बोले, यार हिंदी में होंगे तो लगेगा पिछड़े हुए समाज से हैं। बेटी के पति को कैसा लगेगा, उसके परिवार वाले क्या सोचेंगे। मैंने सवाल किया, तुम लोग घर में सुबह से शाम तक, आपस में और मेहमानों से अग्रेज़ी में ही बातचीत करते होंगे? हिंग्लिश, स्थानीय भाषा, पारिवारिक घरेलू बोली और उच्चारण प्रयोग नहीं करते होंगे? दादा दादी को उनके प्रिय मुहावरों में नहीं पटाते होंगे। वे सबको अपनी भाषा में आशीर्वाद नहीं देते होंगे ? वे शांत खड़े रहे फिर बोले, ऐसा नहीं है।
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मैंने फिर कोशिश की, यार, तुम्हारी तो लिखाई भी कितनी सुन्दर है। अपने हाथ से निमंत्रण पत्र लिखकर छपवाओ। कितना अनूठा अनुभव होगा तुम्हें, भाभीजी को, तुम्हारे बच्चों को। बेटी को जिसकी शादी है। उन्हें पता था ऐसा कुछ नहीं होने वाला। अब बोलने की बारी उनकी रही, अभी हम भाषा के मामले में इतने विकसित नहीं हुए। हमारे यहां विवाह, चाहे सितंबर के महीने में हो, चाहे चौदह सितंबर यानी हिंदी दिवस को विवाह का मुख्य उत्सव हो, तब भी निमंत्रण पत्र हिंदी में छपवाने में हिचकेंगे। जो स्थानीय प्रभाव.. नहीं राष्ट्रीय प्रभाव.. अरे नहीं... अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव अंग्रेज़ी में होता है वह हिंदी में नहीं हो सकता।
उनके चेहरे पर गर्व और सम्मान फैलता जा रहा था। बोले, भविष्य तो अंग्रेज़ी में ही रोशन होता है। दरअसल ज़िंदगी में आगे बढ़ने, ऊंचा उठने, इधर या उधर खेलने में अंग्रेज़ी ही साथ निभाती है । अंग्रेज़ी में ही सोचना पड़ता है। अंग्रेज़ी में लिखना पड़ता है, अंग्रेज़ी कपड़े पहनने पड़ते हैं, अंग्रेज़ी पीनी पड़ती है। बंदा अंग्रेज़ी पीकर, अंग्रेजी बोलने लगता है, कहते हुए वे निकल गए।
लेकिन उनकी बात ने मुझे समझाना शुरू कर दिया था। हिंदी लेखकों को भी कहां अंग्रेज़ी वालों से ज्यादा मिलता है। हिंदी अखबारों में कितने विचार, उदाहरण, व्यवहार और सलाहें अंग्रेज़ी के मैदान से आती हैं । हिंदी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों के बच्चे कौन सा हिंदी मीडियम में पढ़ रहे हैं। हिंदी सम्बंधित आयोजन में बोलने से पहले अभ्यास करना पड़ता है। उच्चारण की कोई परवाह नहीं करता। सवाल जवाब चाहे हिंदी में करने हों लेकिन लिपि अंग्रेज़ी ही प्रयोग करते हैं। चाहे अंग्रेज़ी के हिज्जे गलत हो जाएं लेकिन इस्तेमाल करके ही रहेंगे।
अंग्रेज़ी हमारे रोम रोम में बसी है। एक सच यह भी है कि इसमें सारी गलती अंग्रेजों की है, न वे हिन्दुस्तान आते न उनकी भाषा यहां अपना रंग जमाती। अब तो हाल यह है कि कान्वेंट स्कूल की नर्सरी क्लास में पढने वाली, मेरी साढ़े तीन साल की नातिन साफ़ कहती है, नानू, टॉक टू मी इन इंग्लिश। हिंदी के बिना काम चल सकता है अंग्रेज़ी के बिना बिलकुल नहीं चलेगा। इस बारे संजीदगी से विचार करने के लिए हिंदी मंथ से बढ़िया मंथ नहीं हो सकता।
- संतोष उत्सुक
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