लुढ़कता रुपया (व्यंग्य)

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यह रुपया तो लुढ़कता ही जा रहा है। रुकने का नाम नहीं ले रहा। सत्तर साल तो सत्तर साल! पिछले आठ साल में भी लुढ़कता ही जा रहा है। न जाने किसकी नजर लग गई। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में हालत बड़ी खराब हो जाएगी।

चबुतरे पर बैठे भजनखबरी ने कहा- "ससुरा! यह रुपया तो लुढ़कता ही जा रहा है। रुकने का नाम नहीं ले रहा। सत्तर साल तो सत्तर साल! पिछले आठ साल में भी लुढ़कता ही जा रहा है। न जाने किसकी नजर लग गई। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में हालत बड़ी खराब हो जाएगी। तुम्हें क्या लगता है टकलू! यह रुपया इतना क्यों लुढ़क रहा होगा?”

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टकलू ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा– हो न हो देश की जमीन बड़ी सपाट होती जा रही है। ऊपर से जंगल की सफाई अलग से। अब रुपया लुढ़केगा नहीं तो और क्या होगा? इसे लुढ़कने से बचाने जैसी कोई तरकीब दिखती भी नहीं। क्या करें, यही हमारी किस्मत है। हमारे नेता तो देश दुनिया घूम कर उधार लाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। ऊपर से आए दिन बैठक करते जा रहे हैं। तुम्हारे पास कोई तरकीब है?”

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जैसे ही टकलू ने यह सवाल पूछा तभी आसमान से एक बूँद टपककर उसकी खोपड़ी पर आ गिरी। यह देख भजनखबरी ने प्रसन्नता के साथ कहा– “रुपए को लुढ़कने से बचाया जा सकता है, बशर्ते कि उसे गोल न बनाकर चौकोर बनाया जाए। तब किसी माई के लाल में इतना दम नहीं होगा कि वह हमारे रुपए को लुढ़का सके।“ इतना कहते हुए भजनखबरी रोटी के बदले मैगी खाने चला गया।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

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