गधे और घोड़े (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

हमारे यहां तो गधे को घोड़ा बनाने की सांस्कृतिक परम्परा भी है। चुनाव में एक दल को बहुमत न मिले तो बहुत ज्यादा गधे को सुपर घोड़ा बनाने की लोकतान्त्रिक परम्परा भी। इस प्रक्रिया में बिना चिप्पी के काम हो जाता है।

हमारे घर कुछ मेहमान आए। यहां वहां की बातें होने लगी। कोई रोमांटिक बात भी हो रही हो तो बातों बातों में महंगी सब्जी की बात ज़रूर आ जाती है। एक तो सब्जियों की कमी, दूसरे महंगी, तीसरे गृहणियों को आज क्या क्या बनाएं, क्या पकाएं का स्थायी असमंजस। वह बात दीगर है कि यूट्यूब पर लाखों चैनल बेहद स्वादिष्ट खाना बनाने के नुस्खे फ्री दिखा रहे हैं। हमारे मित्र बोले आजकल सब्जी क्या अच्छे सेब भी नहीं मिल रहे। दूसरे मित्र बोले, यार प्याज़ कब मंहगा हो जाए कह नहीं सकते। 

इधर कई सालों से फलों पर छोटा सा स्टिकर चिपका दिया जाता है जिस पर बेस्ट, सुपर या प्रीमियम क्वालिटी लिखा होता है। कुछ चिप्पियों पर फल का फोटो भी होता है, वह बात अलग है कि बढ़िया क्वालिटी हो या नहीं। फलों और सब्जियों को बेच डालने के लिए उनके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है किसी से छिपा नहीं। सब्जियों को बड़े बड़े पत्तों समेत, आलू, कचालू, अदरक को मिटटी समेत, धनिया, पुदीना को जड़ों समेत बेचा जा रहा है।

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कुछ भी खरीद लेने वाले, कुछ भी खा जाने वाले, बेचारे भारतीय ग्राहकों को फलों पर ‘क्वालिटी’ लिखा देखकर तुरंत ‘मिसगाइड’ होना अच्छा लगने लगा है। विक्रेता को ज्यादा अच्छा लगता है। हैरानी तब हुई जब सेब पर स्टिकर लगा हुआ पाया ‘क्वालिटी अल्फांजो मैंगों’ का, जिसमें किसी भी आम का छोटा सा फोटो भी रहा। चिप्पी लगाने वाले की गलती से यह हो गया लेकिन यह सच आम की खुशबू की तरह फ़ैल गया कि हम होते कुछ हैं मगर दिखाते कुछ और हैं। होते हैं सामान्य किस्म के सेब, मगर दिखाते हैं लखनऊ के ऐतिहासिक बागीचे के स्वादिष्ट ख़ास आम जैसे। 

हमारे यहां तो गधे को घोड़ा बनाने की सांस्कृतिक परम्परा भी है। चुनाव में एक दल को बहुमत न मिले तो बहुत ज्यादा गधे को सुपर घोड़ा बनाने की लोकतान्त्रिक परम्परा भी। इस प्रक्रिया में बिना चिप्पी के काम हो जाता है। आचार संहिता के मौसम में तो कितने ही खच्चर, भेड़ और गधे, जैसी कैसी खाल पहनकर घोड़ा दिखने की फिराक में रहते हैं। चुनाव परिणाम, वक़्त और किस्मत साथ दे तो वे अच्छी नस्ल के घोड़े साबित होते  हैं। घोड़े बनने के बाद वे हिनहिनाते भी कमाल हैं। घोड़ों का पारम्परिक व्यापार फिर से बाज़ार पकड़ लेता है और राजनीतिक गधे, घोड़े बनकर लाखों में नहीं करोड़ों में बिकते हैं। कई बार तो कीमत कई करोड़ हो जाती है। 

बात कहां से कहां पहुंच गई। स्पष्ट बात यह है कि सेब हो या आम, प्याज हो या सब्जी, बाज़ार का प्रबंधन जब चाहता है महंगाई बढ़ जाती है। आम आदमी का हाल गधे जैसा हो जाता है जो घोड़ा होने की सोच भी नहीं सकता। 

- संतोष उत्सुक

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