नैतिक मूल्यों की चिंता (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

कोठी बनाने, बाल-बच्चे घुमाने और नाम कमाने के लिए नैतिक मूल्य नहीं, पैसा चाहिए होता है। आधुनिक बंदा इस गूढ़ रहस्य को जान चुका है। वह इतना निपुण हो चुका है कि आपदा में अवसर को भुनाने की फिराक में रहता है।

मूल्य मिटे चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको जो कुछ चाहिए, उन्हें मिले अथाह।।

आधुनिक युग के निकम्मे रहीम नुक्कड़ पर आते-जाते लोगों पर अपना ज्ञान लीपते हुए कहते हैं– जो बंदा सत्य, अहिंसा, धर्म, न्याय जैसे बाबा आदम जमाने के मूल्यों से अंधा बनकर आँखें मूँद लेता है, उसका मन चिंतामुक्त, प्रसन्न और संपन्न रहता है। उसकी सारी असीमित इच्छाएँ पूरी होती हैं। इन दकियानूसी मूल्यों के चक्कर में बंदे की हालत घर से निकलते समय हीरो और पहुँचते समय जीरो सी होती है। 

नैतिक मूल्यों की चिंता करना जीते जी चिता सा आभास देता है। भला ऐसा जीवन भी कोई जीवन कहलाता है। जीवन को ‘एवन’ बनाने के लिए नैतिक मूल्यों को पैरों तले और अनैतिक मूल्यों को सिर पर रखना चाहिए। इससे बंदा नंगा होने और पंगा लेने से बचा रहता है। इसके विपरीत मूल्यों की चिंता करने वाला आधुनिक समाज की नजरों में पागल कहलाता है। आज नैतिक मूल्य सड़क किनारे फुटपाथ पर सोते हुए मिलते हैं, जबकि अनैतिक मूल्यों की ऑडी और फेरारी अपनी फुल स्पीड में उन्हें कुचलने के लिए उतावली रहती हैं।

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कोठी बनाने, बाल-बच्चे घुमाने और नाम कमाने के लिए नैतिक मूल्य नहीं, पैसा चाहिए होता है। आधुनिक बंदा इस गूढ़ रहस्य को जान चुका है। वह इतना निपुण हो चुका है कि आपदा में अवसर को भुनाने की फिराक में रहता है। वह साँसें सिलेंडर में, प्यास मिनरल बॉटल में और भूख अनाज-गोदामों के मार्फत विक्रय करने लगता है।  फालतू के नैतिक मूल्यों से टेंशन, अनैतिक मूल्यों से अटेंशन मिलता है। देश-समाज की चिंता, अच्छे-बुरे की चिंता, निर्माण-सृष्टि की चिंता यह सब बेफिजूल चिता समान है। भला कदम-कदम पर लूटने के लिए इतने सारे अवसर पड़े हों तो मूल्यों की चिंता में बीपी, शूगर क्यों मोल लें। ऊपर से बाल झड़ने की समस्या अलग से। आधुनिक समय में चंगा रहने का एक ही फार्मुला है– खुद जियो औरों को मरने दो। 

आज के समय में मूल्यहीन होकर ही मूल्यवान बना जा सकता है। बेकार के मूल्यों में समय खोटी मत करो। बगल वाला मरता है, तो मरने दो। लड़ता है, लड़ने दो। सड़ता है, सड़ने दो। हो सके तो अपना, लड़ना, झगड़ना और मरना भी उसे सौंप दो। मूल्यों से आँख मूंद लेने पर बड़ा सुकून मिलता है। भूख से रोते-बिलखते बच्चों का क्रंदन भी सुंदर संगीत लगता है। सामाजिक पतन भी सामाजिक विकास लगता है। कमाने के लिए घूसखोरी, खाने के लिए भ्रष्ट बकासुर और ऊपर उठने के लिए बेशर्म बनना सीखो। आज के समाज ऊंचे और सफल लोगों की यही पहचान है। जनता को लूटकर नेता, पुल को तोड़कर अभियंता, प्राणों से खेलकर चिकित्सक समाज में सबसे ज्यादा सम्मान पाते हैं। अच्छा करने वाले अंडरग्राउंड और बुरा करने वाले बुर्ज खलीफा हो जाते हैं। 

नैतिक मूल्यों के भार से बंदा बोझिल और मोटोपे का शिकार हो जाता है। उसे चरित्रहीनों की तरह हल्का बने रहने के लिए बड़े भोगासन करने पड़ते हैं। जैसे सत्य बोलने वालों से कोसों दूर रहना चाहिए। एकता की बात करने वालों से मित्रता तोड़ देनी चाहिए। सबको साथ लेकर चलने के बजाय सबको धक्का मारने के बारे में नित नए विचार लाना चाहिए। आकड़ों में लूटखोरी, शब्दों में द्वेषोत्तेजना और तर्क में वितर्क प्रदर्शन करने वाला ही महान कहलाता है। वही विधायक, वही शासक, वही बिग बॉस बनता है। नैतिक मूल्यों की चिंता में खड़े बंदे दबने, गिरने और हारने के लिए होते हैं, जबकि अनैतिक मूल्यों वाले बंदे दबाने, गिराने और जीतने के लिए तत्पर रहते हैं।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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