केवल एक दिन हिंदी की डुगडुगी बजाने से राष्ट्रभाषा का भला नहीं होगा

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आज हिंदी दिवस पर यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि क्या हम आजादी के सात दशकों में भी अपनी राष्ट्रभाषा को लोकप्रिय कर पाये हैं। आज भी हिंदी के माथे की बिंदी को उसका ताज बनाने के लिए भागीरथी प्रयासों की जरूरत है।

आधुनिक काल के नवजागरण के अग्रदूत प्रसिद्ध कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने निज भाषा का महत्व बताते हुए लिखा है "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार। सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।" अर्थात् निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है। विभिन्न प्रकार की कलाएँ, असीमित शिक्षा तथा अनेक प्रकार का ज्ञान, सभी देशों से जरूर लेने चाहिये, परन्तु उनका प्रचार मातृभाषा के द्वारा ही करना चाहिये। भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक वैभव की स्थापना का प्रथम पायदान निज भाषा अर्थात मातृभाषा में शिक्षा में ही निहित हैं। बिना मातृभाषा के ज्ञान और अध्ययन के सब व्यवहार व्यर्थ ही माने गए हैं।

आज हिंदी दिवस पर यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि क्या हम आजादी के सात दशकों में भी अपनी राष्ट्रभाषा को लोकप्रिय कर पाये हैं। आज भी हिंदी के माथे की बिंदी को उसका ताज बनाने के लिए भागीरथी प्रयासों की जरूरत है।

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देश आजाद हुआ, अंग्रेज चले गये पर अपने पीछे छोड़ गए मैकाले की शिक्षा पद्दति, जिससे आज तक हम मुक्त नहीं हो पाये हैं। आज भी बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने में माँ-बाप गर्व महसूस करते हैं और मातृभाषा हिंदी के प्रति तिरस्कार की भावना रखते हैं। कहते हैं बेटा अंग्रेजी पर ध्यान देना, हिंदी में तो बस पास होना है। वाह रे आज के माता-पिता ! गुलामी की बू अब तक नहीं गई। अपनी मातृभाषा के प्रति तिरोहित होता इनका भाव।

समाज को दिशा देने वाले हमारे हिंदी समाचार पत्रों का हाल देखिये खुद ही हिंदी के कातिल बन बैठे हैं। शब्द, शीर्षक और तो और वाक्य तक रोमन अंग्रेजी में ज्यों के त्यों अपना लिए गए हैं। कई बार महसूस होता है कि उन्हें अंग्रेजी शब्दों की हिंदी शब्दावली नहीं मिलती या वे अंग्रेजी शब्दों का उपयोग कर समाचार पत्र को ज्यादा प्रभावी या आधुनिक दिखाने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास से वे हिंदी की हत्या कर देते हैं। सरकारी महकमों में कहने को तो हिंदी का प्रयोग आवश्यक किया गया है परंतु फ़ाइलों पर टिप्पणियां अंग्रेजी में दिखाई देती हैं। उच्च नौकरशाह हैं कि उनका अंग्रेजी मोह छूटता ही नहीं हैं।

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क्या जानकर अजीब नहीं लगता कि संस्कृति के सभी पक्षों- कला, पर्यटन, पुरातत्व, धर्म-आध्यात्म, प्रकृति, जीवनशैली, खेल आदि का हम वर्ष प्रचार कर देशवासियों को प्रेरित करते हैं परंतु मातृभाषा हिंदी के लिए हमारे होठ बंद रहते हैं, कलम नहीं चलती, केवल एक दिन हिंदी की डुगडुगी बजा कर इतिश्री कर लेते हैं। न हम हिंदी साहित्य पढ़ रहे हैं न लिख रहे हैं। कुछ ही हैं जो हिंदी साहित्य की विधाओं कहानी, व्यंग्य और कविता रच रहे हैं। समाचार पत्र क्यों नहीं सप्ताह में एक दिन हिंदी साहित्य को पूरा पन्ना देते हैं। साहित्यकारों एवं कविता लेखकों की पीड़ा है लिखे तो कहाँ छपवाएं। कुछ समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं छापते भी हैं तो बहुत सीमित। उनका पूरा ध्यान उन विषयों पर रहता है- जो अर्थोपार्जन में सहायक बनें।

एक और नई प्रवृत्ति शुरू हो गई है कि लेखकों और साहित्यकारों की पुस्तकों का कैसे आसानी से प्रकाशन हो ? लिखें तो छपने की समस्या हैं। पहले साहित्य को छापना प्रकाशक गौरव की बात मानते थे, पर आज के अर्थप्रधान युग में जेब से रुपये खर्च कर पुस्तक छपानी पड़ती है। उस पर भी प्रकाशक की सोच यह रहती हैं कि इसे खरीदेगा कौन। पढ़ता तो कोई नहीं। साहित्य के अनुरागी तो क़द्र करते हैं पर जिन्हें साहित्य और पुस्तकों से कोई लेना-देना नहीं, वे इसे बेकार का निरर्थक कार्य मानते हैं। अब सोचिये ऐसे माहौल में कैसे विकास हो, कैसे आगे बढ़े हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी।

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संस्कृति भाषा से संरक्षित होती है, साहित्य से प्रसारित होती है। लोक बोलियां भारत माता की आवाज हैं। लोक बोलियों को जो प्रोत्साहन देते हैं वो सच्चे अर्थों में भाषा के लिए कार्य कर रहे हैं। बोलियां और उप बोलियां एक जगह होंगी तो ही नई शिक्षा नीति सफल होगी। मातृभाषा में शिक्षण सामग्री के लिए काम करना होगा। लोक भाषाओं मे अपार ज्ञान संपदा है जो उपेक्षा के कारण नष्ट हो रही है। पश्चिम की शिक्षा नीति से हमारी भाषा के खो गए आत्म गौरव को जगाना होगा। लोक भाषा को प्रोत्साहन देना। लोक साहित्य और कलाकारों को समाज का संरक्षण जरूरी है, लोक कलाकारों को बड़े कलाकारों जैसा सम्मान मिलना चाहिए। लोक बोली और मातृभाषा के लिए जो लोग कार्य कर रहे हैं उनको प्रोत्साहन मिलना चाहिए, शासन और समाज दोनों को सहयोग करना चाहिए। मातृभाषा भी हमारी माँ जैसी है और मातृभाषा का सम्मान हमेशा करना चाहिए। मातृभाषा को अपनाना भी स्वदेशी का संकल्प है। हिंदी को पूर्ण सम्मान मिले, लोगों में हिंदी लिखने-बोलने का प्रचलन बढ़े, हिंदी का साहित्य लिखा जाये और प्रकाशित हो इसके लिए मीडिया, समाज, सरकार, हिंदी प्रचारणी संस्थाएं सभी को मिल कर एकजुट होकर अनुकूल वातावरण बनाने का प्रयास करना होगा, हिंदी के गौरव को बढ़ाना होगा। भाषा मजबूत होगी तो संस्कृति का संरक्षण होगा और देश मजबूती से एकता के सूत्र में बंधेगा।

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

(लेखक एवं पत्रकार, कोटा)

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