वास्तु देवता और वास्तुचक्र का पौराणिक इतिहास, पूजन विधि और मंत्र
मत्स्यपुराण में बताया गया है कि प्राचीन काल में अन्धकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिन्दु गिरे, उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ जो विकराल मुख फैलाये हुए था।
'वास्तु' शब्द 'वस निवासे' धातु से बना है, जिसे निवास के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। जिस भूमि पर मनुष्यादि प्राणी वास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है। इसके गृह, देवप्रासाद, ग्राम, नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद हैं। वास्तु की शुभाशुभ परीक्षा आवश्यक है। शुभ वास्तु में रहने से वहां के निवासियों को सुख−सौभाग्य एवं समृद्धि आदि की अभिवृद्धि होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से इसके विपरीत फल होता है। वास्तु शब्द की दूसरी व्युत्पत्ति कथा वास्तुशास्त्रों तथा पुराणादि में इस प्रकार प्राप्त होती है−
वास्तु के प्रादुर्भाव के कथा
मत्स्यपुराण में बताया गया है कि प्राचीन काल में अन्धकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिन्दु गिरे, उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ जो विकराल मुख फैलाये हुए था। उसने अन्धकगणों का रक्त पान किया, किंतु तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई और वह भूख से व्याकुल होकर त्रिलोकी को भक्षण करने के लिए उद्यत हो गया। बाद में शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया इसलिए वह वास्तु के नाम से प्रसिद्ध हो गया। देवताओं ने उसे गृह निर्माण के, वैश्वदेव बलि के तथा पूजन यज्ञ−यागादि के समय पूजित होने का वर देकर प्रसन्न किया। इसलिए आज भी वास्तु देवता का पूजन होता है। देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे। इसकी पूजा का विधान प्रासाद तथा भवन बनाने एवं तडाग, कूप ओर वापी के खोदने, गृह−मंदिर आदि के जीर्णोद्धार में, पुर बसाने में, यज्ञ−मंडप के निर्माण तथा यज्ञ−यागादि के अवसरों पर किया जाता है। इसलिए इन अवसरों पर यत्नपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करनी चाहिए। वास्तु पुरुष ही वास्तु देवता कहलाते हैं।
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वास्तु देवता की पूजा कैसे करें
हिंदू संस्कृति में देव पूजा का विधान है। यह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है। साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है। वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा एवं चक्र भी बनाया जाता है, जो वास्तुचक्र के नाम से प्रसिद्ध है। वास्तुचक्र अनेक प्रकार के होते हैं। इसमें प्रायः 49 से लेकर एक सहस्त्र तक पद होते हैं। भिन्न−भिन्न अवसरों पर भिन्न−भिन्न पद के वास्तुचक्र का विधान है। उदाहरण स्वरूप ग्राम तथा प्रासाद एवं राजभवन आदि के अथवा नगर−निर्माण करने में 64 पद के वास्तुचक्र का विधान है। समस्त गृह निर्माण में 81 पद का, जीर्णोद्धार में 49 पद का, प्रासाद में तथा संपूर्ण मंडप में 100 पद का, कूप, वापी, तडाग और उद्यान, वन आदि के निर्माण में 196 पद का वास्तुचक्र बनाया जाता है। सिद्धलिंगों की प्रतिष्ठा, विशेष पूजा−प्रतिष्ठा, महोत्सवों, कोटि होम शांति, मरुभूमि में ग्राम, नगर, देश आदि के निर्माण में सहस्त्र पद के वास्तुचक्र की निर्माण और पूजा की आवश्यकता होती है।
जिस स्थान पर गृह, प्रासाद, यज्ञ मंडप या ग्राम, नगर आदि की स्थापना करनी हो उसके नैर्ऋत्यकोण में वास्तु देवता का निर्माण करना चाहिए। सामान्य विष्णु−रुद्रादि यज्ञों में भी यज्ञ मंडप में यथास्थान नवग्रह, सर्वतोभद्रमण्डलों की स्थापना के साथ−साथ नैर्ऋत्यकोण में वास्तुपीठ की स्थापना आवश्यक होती है और प्रतिदिन मण्डलस्थ देवताओं की पूजा−उपासना तथा यथासमय उन्हें आहूतियां भी प्रदान की जाती हैं। किंतु वास्तु शांति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तुयाग−कर्म में तो वास्तुपीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है। वास्तु पुरुष की प्रतिमा भी स्थापित कर पूजन किया जाता है।
वास्तु देवता का मंत्र इस प्रकार है−
वास्तोष्पते प्रति जानीह्मस्मान् त्स्वावेशो अनमीवो भवानः।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।।
- शुभा दुबे
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