पर्यावरण रक्षा की बातें भर करने से काम नहीं चलने वाला
देश की राजधानी दिल्ली और वाराणसी दुनिया के 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से एक हैं। इस सूची में भारत के 14 शहर शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों से इसकी जानकारी हुई।
देश की राजधानी दिल्ली और वाराणसी दुनिया के 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से एक हैं। इस सूची में भारत के 14 शहर शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों से इसकी जानकारी हुई। इन शहरों में 2016 में प्रदूषण का स्तर पीएम 2.5 स्तर पर था। अब समझ ये नहीं आ रहा है कि स्तर प्रदूषण का गिर रहा है या हम लोगों के बीच इस बात की सोच का कि कैसे इस वातावरण को साफ़ सुथरा रखा जाए। हम सब इतने समझदार तो हैं कि अपने वायुमंडल को बचाने के लिए क्या करें और क्या नहीं। इतना ही नहीं हम बस एक चमत्कार का इंतज़ार कर रहे हैं कि एक चमत्कार होगा और सब पहले जैसा हो जायेगा, तो बता दें एक चमत्कार ऐसा हुआ है।
अभी हाल ही में हमने हमारी पृथ्वी को बचाने के लिए एक ऐसा पौधा खोजा है जिसके ज़रिये हम हमारी ज़िन्दगी और हमारी धरती और उस पर दिनों दिन घटती जा रही ओज़ोन की परत को बरकरार रख सकते हैं। इसके पालने पोसने और यहां तक कि इसके रख रखाव में किसी भी तरह का कोई खर्चा नहीं होगा और यहाँ तक कि आपको ये आसानी से कम खर्च पर भी उपलब्ध हो जायेगा।
इसका मतलब यह हुआ कि कम खर्च पर एक ऐसा पौधा जो आपके ही नहीं आपकी आने वाली पीढ़ी को भी बचा सकता है। हो गई ना ये सोचने की बात कि आज तक कोई इसको क्यों नहीं खोज पाया कि एक ऐसा पौधा जिसके मात्र आ जाने भर से ज़िंदगी का रूप बदल जायेगा या यह कह सकते हैं कि ज़िन्दगी के लिए जूझते हुए लोग, इसके आ जाने से फिर जी उठेंगे। एक कल्पना मात्र सा लगता है ये सब सोचकर पर कुदरत ने अगर कुछ तबाह करने की रचना की है तो साथ ही साथ उसको बचाने का भी कुछ ना कुछ साधन दिया है।
जानती हूँ कि आप ये सब पढ़कर हैरान हो रहे होंगे की अगर ऐसा कुछ है तो आज तक किसी को क्यों नहीं पता लगा। हैरानी होती है ना सुनकर यहाँ जीवन की डोर खत्म होने पर है और लिखने वाले को मज़ाक सूझ रहा है, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। भला ज़िन्दगी को लेकर कोई मज़ाक कैसे कर सकता है। मुद्दे की बात पर आते हैं कि क्या है ये सब जो हमारी ज़िन्दगी बचाने की क्षमता रखता है।
मज़ाक की बात नहीं है, इसका जवाब हैं हम खुद क्योंकि हम किसी का भाषण नहीं सुनना चाहते और हम सब जानते हुए भी इस बात से अनजान बनते हैं कि क्या-क्या करना चाहिये हमें अपने और अपने आसपास के वातावरण को बचाने के लिए। जब हम सब जानते हैं तो हम ऐसे किसी चमत्कार का इंतज़ार क्यों करते हैं कि कोई ऐसी चीज़ होगी और इन सब से बचाएगी। आपको सभी बातें दोहराने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि इतने समझदार तो हम खुद ही हैं कि क्या-क्या तरीके हैं और क्या हमें करना चाहिए और क्या नहीं। जब सब पता है तो हम किस बात का इंतज़ार करते हैं कि हमारी ज़िम्मेदारी थोड़ी है सरकार का ज़िम्मा है देखेगी करेगी कुछ, आखिर हमने वोट दिया है। सही बोलूं तो मैं भी कुछ ऐसा ही सोचती थी पर क्या हम लोग सही सोचते हैं कि सारी की सारी ज़िम्मेदारी का ठेका सिर्फ और सिर्फ क्या हमने लेकर रखा है। सरकार किसलिए बनाई है वैसे देखा जाए तो आप लोग भी गलत नहीं सोचते हैं, क्योंकि शुरुआत से ही हम अपनी गलतियां दूसरों पर डालते आये हैं।
मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ क्योंकि कहीं ना कहीं मैं भी ऐसा सोचती थी कि सरकार हम लोगों को बचाने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठा रही है पर मैं गलत हूँ, क्योंकि अकेले सरकार थोड़ी ज़िम्मेदार है इन सबकी। उदाहरण के तौर पर अगर मुझे कुछ बीमारी है तो इसके लिए मुझे ही तो खुद डॉक्टर के पास जाना होगा उनको समस्या बतानी होगी, डॉक्टर खुद तो नहीं आ जायेगा मेरी समस्या को सुलझाने के लिए। मतलब मैंने कुछ कदम बढ़ाया तभी समस्या का हल निकला ठीक ऐसे ही अगर हम ये मान लें कि वातावरण हम हैं और प्रदूषण हमें हुई बीमारी है तब तो हम इसके इलाज़ के लिए कुछ ना कुछ ज़रूर करेंगे ही क्यों अब आप इस बात को मानते हैं कि ऐसा भी सोचा जा सकता है।
समस्या अब यहाँ आन पड़ती है कि अब मैं ही ऐसा क्यों सोचूं और लोग भी तो इस बारे में सोच सकते हैं। सारी दुनिया का बोझ हम ही क्यों उठाते चलें। उपदेश नहीं दे रही क्योंकि उपदेश देने वाले बहुत लोग मिल जाते हैं पर कर के दिखने वाला कोई एक ही मिलता है और अगर मैं ये सब लिख पा रही हूँ तो इस बूते कि मैंने अपने में कुछ तो सुधार लाने शुरू किये भले पूरी तरह नहीं, पर शुरुआत तो की। इस बात को दोहराने का कोई मतलब नहीं कि क्या क्या किया जाए इस विषय पर क्योंकि आप खुद में इतने समझदार हैं कि क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए। आप खुद सब जानते हैं क्योंकि आप बच्चे नहीं जिसकी ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया जाए। बस इसी आशा के साथ इसका समापन करती हूँ कि शायद आप इस और कुछ सोचें फिर शायद जिस पौधे का ज़िक्र मैंने किया है वो हकीकत बन जाये। बात थोड़ा काल्पनिक-सी लगती है पर उसे हकीकत में बदलना भी हमारे ही हाथों में है।
-प्राची थापन
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