जीवन के सभी कष्टों से मुक्ति दिलाता है जन्माष्टमी व्रत, जानिये पूजन विधि और कथा
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। इस पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु मथुरा पहुंचते हैं। इस दिन रात्रि बारह बजे तक व्रत रखा जाता है।
अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण मध्यरात्रि के समय पृथ्वी पर अवतरित हुए थे इसलिए इस दिन को दुनिया भर में कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। व्रत को करने वाला इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। इसके अलावा जो मनुष्य भक्तिभाव से भगवान श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। इस पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु मथुरा पहुंचते हैं। इस दिन रात्रि बारह बजे तक व्रत रखा जाता है और मध्यरात्रि होते ही श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मनाया जाता है। मंदिरों में इस दिन झांकियां सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। जगह−जगह रासलीला के माध्यम से भी कृष्ण के जीवनकाल की घटनाओं को दर्शाया जाता है।
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जन्माष्टमी के व्रत को करना अनिवार्य माना जाता है और विभिन्न धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। व्रत के दौरान फलाहार लेने में कोई मनाही नहीं है। इस दिन घर में भी भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम का दूध, दही, शहद, यमुनाजल आदि से अभिषेक कर उसे अच्छे से सजाएं। इसके बाद श्रीविग्रह का षोडशोपचार विधि से पूजन करें। रात को बारह बजे शंख तथा घंटों की आवाज से श्रीकृष्ण के जन्म की खबरों से जब चारों दिशाएं गूंज उठें तो भगवान श्रीकृष्ण की आरती उतार कर प्रसाद ग्रहण करें। इस प्रसाद को ग्रहण करके ही व्रत खोला जाता है।
मान्यताओं के मुताबिक एक बार देवराज इंद्र ने नारदजी से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का पूर्ण विधान, इससे होने वाला लाभ और इस व्रत को करने की विधि पूछी तो नारदजी बताया कि भाद्रपद मास की कृष्ण जन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से सुसज्जित कर विधिपूर्वक पूजा करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग−अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें। इसके साथ ही भगवान विष्णु के दस अवतारों, लक्ष्मी, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। भजन−कीर्तन करते हुए रतजगा करें और मध्यरात्रि को आरती कर प्रसाद वितरण करें।
जन्माष्टमी व्रत कथा
द्वापर युग में पृथ्वी पर राक्षसों के अत्याचार बढ़ने लगे। पृथ्वी गाय का रूप धारण कर अपनी कथा सुनाने के लिए तथा अपने उद्धार के लिए ब्रह्माजी के पास गईं। ब्रह्माजी सब देवताओं को साथ लेकर पृथ्वी को भगवान विष्णु के पास क्षीरसागर ले गये। उस समय भगवान श्रीकृष्ण अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे। स्तुति करने पर भगवान की निद्रा भंग हो गई। भगवान ने ब्रह्माजी एवं सब देवताओं को देखकर आने का कारण पूछा, तो पृथ्वी बोली− 'भगवान! मैं पाप के बोझ से दबी जा रही हूं। मेरा उद्धार कीजिए। यह सुनकर भगावान विष्णु बोले− मैं ब्रज मंडल में वासुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से जन्म लूंगा। तुम सब देवतागण ब्रज भूमि में जाकर यादव वंश में अपना शरीर धारण करो। इतना कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। इसके पश्चात देवता ब्रज मंडल में आकर यदुकुल में नन्द−यशोदा तथा गोप−गोपियों के रूप में पैदा हुए। द्वापर युग के अंत में मथुरा में उग्रसेन नाम के एक राजा राज्य करते थे। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। कंस ने उग्रसेन को बलपूर्वक सिंहासन से उतारकर जेल में डाल दिया और स्वयं राजा बन गया।
कंस की बहन देवकी का विवाह यादव कुल में वासुदेव के साथ निश्चित हो गया था। जब कंस देवकी को विदा करने के लिए रथ के साथ जा रहा था, तो आकाशवाणी की बात सुनकर कंस क्रोध में भरकर देवकी को मारने को तैयार हो गया। उसने सोचा− न देवकी होगी, न उसका कोई पुत्र होगा। वासुदेवजी ने कंस को समझाया कि तुम्हें देवकी से तो कोई भय नहीं है। देवकी की आठवीं संतान से तुम्हें भय है। इसलिए मैं इसकी आठवीं संतान को तुम्हें सौंप दूंगा। तुम्हारी समझ में जो आये, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना। कंस ने वासुदेवजी की बात स्वीकार कर ली और वासुदेव−देवकी को कारागार में बंद कर लिया। तभी नारदजी वहां आ पहुंचे और कंस से बोले कि यह कैसे पता चलेगा कि आठवां गर्भ कौन-सा होगा। गिनती प्रथम से या अंतिम गर्भ से शुरू होगी।
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इस तरह कंस ने नारदजी से परामर्श कर देवकी के गर्भ से उत्पन्न होने वाले समस्त बालकों को मारने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार एक−एक करके कंस ने देवकी की सातों संतानों को निर्दयतापूर्वक मार डाला। भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। उनके जन्म लेते ही जेल की कोठरी में प्रकाश फैल गया। वासुदेव देवकी के सामने शंख, चक्र, गदा एवं पद्मधारी चतुर्भुज से अपना रूप प्रकट कर कहा− अब मैं बालक का रूप धारण करता हूं। तुम मुझे तत्काल गोकुल के नंद के यहां पहुंचा दो और उनकी अभी−अभी जन्मी कन्या को लाकर कंस को सौंप दो। तत्काल वासुदेवजी की हथकड़ियां खुल गईं। दरवाजे अपने आप खुल गये। पहरेदार सो गये। वासुदेव श्रीकृष्ण को सूप में रखकर गोकुल को चल दिये। रास्ते में यमुना श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श करने के लिए आगे बढ़ने लगीं। भगवान ने अपने पैर लटका दिये। चरण छूने के बाद यमुना घट गईं। वासुदेव यमुना पार कर गोकुल में नंद के यहां गए। बालक कृष्ण को यशोदाजी की बगल में सुलाकर कन्या को लेकर वापस कंस के कारागार में आ गये। जेल के दरवाजे पूर्ववत बंद हो गये। वासुदेवजी के हाथों में हथकड़ियां पड़ गईं। पहरेदार भी जाग गये।
कन्या के रोने पर कंस को खबर दी गई। कंस ने कारागार में आकर कन्या को लेकर पत्थर पर पटककर मारना चाहा, परंतु वह कंस के हाथों से छूटकर आकाश में उड़ गई और देवी का रूप धारण कर बोली कि हे कंस! मुझे मारने से क्या लाभ है? तेरा शत्रु तो गोकुल में पहुंच चुका है। यह दृश्य देखकर कंस हतप्रभ और व्याकुल हो गया। कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए अनेक दैत्य भेजे। श्रीकृष्ण ने अपनी अलौकिक माया से सारे दैत्यों को मार डाला। बड़े होने पर कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाया। श्रीकृष्ण की जन्मतिथि को तभी से सारे देश में बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
-शुभा दुबे
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