कई देशों में है सूचना का अधिकार, जानिये इनमें बड़े अंतर क्या हैं

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कमलेश पांडे । Nov 11 2019 5:24PM

स्वीडन पहला ऐसा देश है जिसके संविधान में सूचना की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। इस मामले में कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत का संविधान उतनी आज़ादी प्रदान नहीं करता। जबकि स्वीडन के संविधान ने 250 वर्ष पूर्व सूचना की स्वतंत्रता की वकालत की गयी है।

विश्व के पांच देशों के सूचना के अधिकार कानून का तुलनात्मक अध्ययन अपने आप में एक दिलचस्प पहलू है। जब हम स्वीडन, कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत में लागू इस कानून को देखते और परखते हैं तो कई बातें अपने आप मुखरित हो जाती हैं। क्योंकि वर्ष, शुल्क, सूचना देने की समयावधि, अपील या शिकायत प्राधिकारी, जारी करने का माध्यम, प्रतिबन्धित करने का माध्यम आदि की तुलना जब एक प्रदत्त सारणी के माध्यम से की जाती है तो उसके गुणावगुणों का भी पता चलता है। दरअसल, विश्व में सबसे पहले स्वीडन ने सूचना का अधिकार कानून 1766 में लागू किया, जबकि कनाडा ने 1982, फ्रांस ने 1978, मैक्सिको ने 2002 तथा भारत ने 2005 में लागू किया। अब इनके तुलनात्मक अध्ययन से जो तथ्य सामने आते हैं, वो इस प्रकार हैं:-

पहला, विश्व में स्वीडन पहला ऐसा देश है जिसके संविधान में सूचना की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। इस मामले में कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत का संविधान उतनी आज़ादी प्रदान नहीं करता। जबकि स्वीडन के संविधान ने 250 वर्ष पूर्व सूचना की स्वतंत्रता की वकालत की गयी है। 

दूसरा, सूचना मांगने वाले को सूचना प्रदान करने की प्रक्रिया स्वीडन, कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत में अलग-अलग है, जिसमें स्वीडन में सूचना मांगने वाले को तत्काल और नि:शुल्क सूचना देने का प्रावधान है।

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तीसरा, सूचना प्रदान करने लिए फ्रांस और भारत में 1 माह का समय निर्धारित किया गया है, हालांकि भारत ने जीवन और स्वतंत्रता के मामले में 48 घण्टे का समय दिया गया है, किन्तु स्वीडन अपने नागरिकों को तत्काल सूचना उपलब्ध कराता है, जबकि कनाडा 15 दिन तथा मैक्सिको 20 दिन में सूचना प्रदान कर देता है। 

चौथा, सूचना न मिलने पर अपील प्रक्रिया भी लगभग एक ही समान है। स्वीडन में सूचना न मिलने पर न्यायालय में जाया जाता है। वहीं, कनाडा तथा भारत में सूचना आयुक्त के पास जबकि फ्रांस में संवैधानिक अधिकारी एवं मैक्सिको में ’द नेशनल ऑन एक्सेस टू पब्लिक इनफॉरमेशन’ अपील और शिकयतों का निपटारा करता है। 

पंचम, स्वीडन किसी भी माध्यम द्वारा तत्काल सूचना उपलब्ध कराता है जिनमें वेबसाइट पर भी सूचना जारी की जाती है। वहीं, कनाडा और फ्रांस अपने नागरिकों को किसी भी रूप में सूचना दे सकता है, जबकि मैक्सिको इलेक्ट्रॉनिक रूप से सूचनाओं को सार्वजनिक करता है तथा भारत प्रति व्यक्ति को सूचना उपलब्ध कराता है। 

छठा, गोपनीयता के मामले में स्वीडन ने गोपनीयता एवं पब्लिक रिकार्ड एक्ट 2002, कनाडा ने सुरक्षा एवं अन्य देशों से सम्बन्धित सूचनाएं मैनेजमेंट आफ गवर्नमेण्ट इन्फॉरमेशन होल्डिंग 2003, फ्रांस ने डाटा प्रोटेक्शन एक्ट 1978 तथा भारत ने राष्ट्रीय, आंतरिक व बाह्य सुरक्षा तथा अधिनियम की धारा 8 में उल्लिखित प्रावधानों से सम्बन्धित सूचनाएं देने पर रोक लगा रखी है।

# भारत समेत 80 देशों में लागू है सूचना का अधिकार कानून

सूचना का अधिकार कानून आज विश्व के 80 देशों के लोकतंत्र की शोभा बढ़ा रहा है। जिन देशों ने सूचना के अधिकार को महत्ता दी है, उनमें बेशक स्वीडन को भुलाया नहीं जा सकता। दो टूक शब्दों में कहा जाए तो स्वीडन सूचना अधिकार कानून की जननी है। उससे भी महान स्वीडन का संविधान है जिसने पूरी दुनिया में पुराना संविधान होने का दावा किया। जिसमें सूचना के अधिकार को अपने दामन में समेटे हुए लोकतंत्र को परिभाषित किया गया है।

जबकि, अन्य देशों ने जहाँ सूचना देने के लिए समयसीमा निर्धारित कर रखी है, वहीं स्वीडन ने सूचना तत्काल और नि:शुल्क दिए जाने की पैरवी की है। मैक्सिको ने जहां खुद ही अपने नगारिकों को सूचना लेने और सरकार को सूचना स्वतः प्रकाशित करने का निर्देश दिया है, जिसने लोगों की आज़ादी को एक नया पंख लगा दिया है। स्वतः सूचना जारी करने का निर्देश तो भारत की सरकार ने भी दिया है, लेकिन किसी भी राज्य और केन्द्र के विभाग ने इसकी कोई पहल नहीं की है।

# भारतीय जनप्रतिनिधियों व लोकसेवकों का अलग है नजरिया इस कानून को लेकर

भारत में लोक सेवकों, राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा इस कानून को बकवास कहकर बंद करने की मांग उठाई जाती है, जिससे उनकी नीयत को पोल खुल जाती है। खुद पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस कानून के दायरे को कम करने और गोपनीयता बढ़ाने की वकालत की है। भारत में इसकी स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि खुद सरकार ही इस कानून को लेकर गम्भीर नज़र नहीं आती है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि ''आरटीआई किसी को खाने के लिए नहीं देता'।’ आखिरकार ऐसे ही बयानों से सरकार की असली मंशा जगज़ाहिर हो चुकी है।

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आलम यह है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति भी निष्पक्षता पूर्वक नहीं की जाती है। लगभग पूर्व नौकरशाहों और योग्यताधारी अपने चहेते व्यक्तियों को ही इस कानून का मुहाफि़ज़ के रूप में सूचना आयुक्त बनना भ्रष्टाचार और दोहरी नीति का उदाहरण नहीं तो क्या है। भ्रष्टाचार की मुखालिफत और पारदर्शिता के हामी भरने वाले सियासी लोग और सियासी दल खुद भी आरटीआई के दायरे में आने का विरोध कर चुके हैं। कोढ़ में खाज यह कि सत्ताधारी व विपक्षी दल सभी एकजुट होकर इस कानून के दायरे में न आने के लिए एक मंच पर साथ-साथ नज़र आते हैं।

-कमलेश पांडे

(वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार)

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