प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिये सकारात्मक वातावरण बनाया
प्रधानमंत्री मोदी ने देश एवं दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिये एक सकारात्मक वातावरण बनाया है। जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैया को लेकर भारत ने शक्तिशाली राष्ट्रों के सामने जो चिंता जताई, वह गैरवाजिब नहीं है।
विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस 26 नवंबर को मनाया जाता है। यह दिवस पर्यावरण के प्रति जागरूक होने और पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने के संबंध में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यूएनईपी के माध्यम से सन् 1992 में पृथ्वी सम्मेलन पर पर्यावरण के प्रति जागरूक होने के लिए विश्व के सभी देश एकत्रित होकर इस के संबंध में सार्थक विचार-विमर्श किया था। पिछले करीब तीन दशकों से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से जुड़ी हुई है। इस सन्दर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि करीब दस वैश्विक पर्यावरण संधियाँ और करीब सौ के आस-पास क्षेत्रीय और द्विपक्षीय वार्ताएं एवं समझौते संपन्न किये गये हैं। ये सभी सम्मेलन रिओ डी जेनेरियो में किये गए पृथ्वी सम्मलेन जोकि 1992 के संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास कार्यक्रम के आलोक में किये गए हैं। मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए बहुत सारी सरकारों एवं देशों नें इनकी रक्षा एवं उचित दोहन के सन्दर्भ में अनेकों समझौते संपन्न किये हैं।
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भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश एवं दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिये एक सकारात्मक वातावरण बनाया है। जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैया को लेकर भारत ने शक्तिशाली राष्ट्रों के सामने जो चिंता जताई, वह गैरवाजिब नहीं है। ग्लासगो में आयोजित हुए अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन (सीओपी 26) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बढ़ते पर्यावरण संकट में पिछड़े देशों की मदद की वकालत की ताकि गरीब आबादी सुरक्षित जीवन जी सके। मोदी ने अमीर देशों को स्पष्ट संदेश दिया कि धरती को बचाना उनकी प्राथमिकता होनी ही चाहिए, वे अपनी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। दरअसल कार्बन उत्सर्जन घटाने के मुद्दे पर अमीर देशों ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह इस संकट को गहराने वाला है। जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ा दी हैं।
पर्यावरण के सम्मुख उपस्थित खतरे कितने भयावह एवं जानलेवा हैं एवं उनके समाधान की दृष्टि से मोदी ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाये जा सकते? पर्यावरण संरक्षण में हम हर तरह से सहयोग करने की कोशिश कर सकते। जलवायु परिवर्तन भी विभिन्न प्रकार के भूमि क्षरण का कारण बन रहा है। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, अनियमित वर्षा, असंतुलित मौसम चक्र और तूफान के कारण ऐसा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, मरुस्थलीकरण, वायु, जल, जंगल, जमीन, ध्वनि, कृषि प्रदूषण जैसी समस्याएं जहां पर्यावरण के लिये गंभीर खतरा बनी हुई है वहीं यदि शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी तो इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए, जिसमें मुख्यतः धूप, खनिज, वनस्पति, हवा, पानी, वातावरण, भूमि तथा जानवर आदि शामिल हैं। इन संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसके कारण ये संसाधन धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर हैं। इस जटिल होती समस्या की ओर चिन्तीत होना एवं कुछ सार्थक कदम उठाने के लिये पहल करना जीवन की नयी संभावनाओं को उजागर करता है। इंसान की आने वाली पीढ़ियों के लिए धरती भविष्य में भी सुरक्षित बनी रहे इसके लिये भारत इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि भारत के पास समृद्ध विरासत एवं आध्यात्मिक ग्रंथ ऋग्वेद आदि है जो पर्यावरण का आधार रहे हैं।
पिछले 200 साल में हमने पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचाया है, उसे ठीक करना है। पौधों एवं कीट-पतंगों के लगातार कम होती किस्मों ने भी पर्यावरण के सम्मुख गंभीर संकट खड़ा किया है। समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे और 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) एक की रिपोर्ट में कहा कि विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 विशेष प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियां यानि 15890 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ये सब इंसान के लालच और जगलों के कटाव के कारण हुआ है। गंदगी साफ करने में कौआ और गिद्ध प्रमुख हैं। गिद्ध शहरों ही नहीं, जंगलों से खत्म हो गए। 99 प्रतिशत लोग नहीं जानते कि गिद्धों के न रहने से हमने क्या खोया? लोग कहते हैं कि उल्लू से क्या फायदा, मगर किसान जानते हैं कि वह खेती का मित्र है, जिसका मुख्य भोजन चूहा है। भारतीय संस्कृति में पशु पक्षियों के संरक्षण और संवर्धन की बात है। इसीलिए अधिकांश हिंदू धर्म में देवी-देवताओं के वाहन पशु-पक्षियों को बनाया गया है। एक और बात बड़े खतरे का अहसास कराती है कि एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है।
पर्यावरण के सम्मुख प्लास्टिक प्रदूषण भी एक गंभीर खतरा है। सरकार ने ठान लिया है कि भारत में सिंगल यूज प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व में ही देश को स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने की अपील कर एक महाभियान का शुभारंभ कर चुके हैं। प्रकृति को पस्त करने, मानव जीवन एवं जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा साबित होने के कारण समूची दुनिया बढ़ते प्लास्टिक के उपयोग एवं उसके कचरे से चिन्तित है। जैसा कि सर्वविदित है कि 2015 और 2017 के बीच भारत में पेड़ों और जंगल के दायरे में आठ लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विश्व में 23 फीसदी कृषियोग्य भूमि का क्षरण हो चुका है, जबकि भारत में यह हाल 30 फीसदी भूमि का हुआ है। इस आपदा से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे, शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा।
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जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं एवं भूमि की उत्पादकता कम होती जा रही है, पानी की कमी हो रही है। ऊपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान में तब्दील हो रही है। तकनीकी तौर पर मरुस्थल उस इलाके को कहते हैं, जहां पेड़ नहीं सिर्फ झाड़ियां उगती हैं। जिन इलाकों में यह भू-जल के खात्मे के चलते हो रहा है, वहां इसे मरुस्थलीकरण का नाम दिया गया है। लेकिन शहरों का दायरा बढ़ने के साथ सड़क, पुल, कारखानों और रेलवे लाइनों के निर्माण से खेतिहर जमीन का खात्मा और बची जमीन की उर्वरा शक्ति कम होना भू-क्षरण का दूसरा रूप है, जिस पर कोई बात ही नहीं होती। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन- ये सब देश एवं दुनिया के लिए सबसे बड़े खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना एवं कराना ही विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस का ध्येय था। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति भी संवेदनशीलता जागना जरूरी है।
-ललित गर्ग
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