500 वर्षों के संघर्ष के दौरान हिंदुओं की राह बाधित करने के अनेकों प्रयास किये गये
ऐसा प्रतीत होता है कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में जितने भी रामभक्त बाबरी विध्वंस में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित थे उन सभी में उस दिन रामेश्वरम रामसेतु के निर्माण में संलग्न देव तुल्य वानरों की आत्मा प्रवेश कर गई थी।
कर सारंग साजि कटि भाथा । अरिदल दलन चले रघुनाथा ।।
प्रथम किन्ही प्रभु धनुष टंकोरा। रिपु दल बधिर भयहू सुनि सोरा ।।
लगभग पाँच सौ वर्षों के सतत, दुधुर्ष व उत्कट संघर्ष के बाद 5 अगस्त को अयोध्या में रामलला जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण की प्रथम शिला रखी जानी है। जो समय के भीतर झांक सकते हैं वे जानते हैं कि मंदिर निर्माण की प्रक्रिया तो 6 दिसंबर 1992 के दिन ही प्रारंभ हो गई थी जिस दिन बाबरी ढांचे का कलंक भारत भूमि से हटा था। बाबरी ढांचे से लेकर भव्य निर्माण तक का ये घटनाक्रम और आरोह अवरोह, सब प्रारब्ध है और रामरचित लीला मात्र है। श्रीराम भारत के गुलामी से जकड़े हुये समाज जागरण हेतु जितने बरस स्वयं की जन्मभूमि को आतताइयों के कब्जे में रहने देना चाहते थे उतने बरस उन्होंने रहने दिया। जब श्रीराम का मन किया कि अब लीला को नवस्वरूप देना है और नवविलास करना है तो वे तिरपाल को त्याग कर नए भवन की ओर अग्रसर हो गए हैं।
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होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा।
गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
मैं स्वयं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि यदि इतिहास में 6 दिसंबर की वीरोचित घटना नहीं हुई होती तो 9 नवंबर 2019 का विवेकपूर्ण निर्णय भी नहीं हो सकता था। साथ ही यह भी कहना ही होगा कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में जितने भी रामभक्त बाबरी विध्वंस में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित थे उन सभी में उस दिन रामेश्वरम रामसेतु के निर्माण में संलग्न देव तुल्य वानरों की आत्मा प्रवेश कर गई थी। गिलहरी, नल, नील, जांबवंत, सुग्रीव, अंगद, हनुमान, सहित भैया लक्ष्मण और श्रीराम वहाँ स्वयं स्वयंसेवक रूप मे उपस्थित थे और एक नए युग के जन्म की कथा का प्रारंभ स्वयं अपने हाथों से लिख रहे थे।
गोस्वामी तुलसीदास के इन शब्दों को प्रत्येक स्वयंसेवक कहते हुये आगे बढ़ रहा था–
कटि तूनीर पीत पट बाँधें।
कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए।
नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
कमर में तरकस और पीतांबर बाँधे हैं। हाथों में बाण और कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है और वे साथ-साथ चलते जा रहे हैं।
लंका दहन, क्षमा कीजिये बाबरी विध्वंस के बाद देश भर व विश्व मे चले विमर्श के संदर्भ मे कभी किसी प्रसिद्ध लेखक ने लिखा था कि वह विमर्श बड़ा ही भयावह था। समूचे भारतीय व वैश्विक मीडिया ने बड़ा ही अनैतिक, अनर्गल व अनावश्यक प्रलाप किया था। भारतीय सेकुलर विधवा विलाप कर रहे थे और बीबीसी से लेकर न्यूयार्क टाइम्स, मिरर, वाशिंगटन पोस्ट, एकानामिक टाइम्स आदि आदि वही कह रहे थे जो पाकिस्तान का “द डान” कह रहा था। द टाइम मैगज़ीन ने तो लिखा था कि “पवित्र काम भारत में शांति नष्ट किए दे रहा है।“ टाइम ने उस समय “राम का क्रोध” नाम से भी एक स्टोरी भी प्रकाशित की थी। यूनिवर्सिटी आफ केलिफोर्निया से Ayodhya and the Politics of India's Secularism: A Double-Standards Discourse जैसा शोध पत्र भी प्रकाशित हुआ था। इस समूचे विमर्श में एक ही बात पर बल दिया जा रहा था कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ढाँचा गिराए जाने को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया है। बाबरी विध्वंस के बाद देश भर में ऐसे लेखन को प्रायोजित किया गया जो हिंदू समाज में घनघोर आत्मग्लानि, दुख, कुंठा व खेद का वातावरण तैयार करे। वामपंथी, तथाकथित सेकुलर व कांग्रेस ने भारत में इस वितंडावादी वातावरण को निर्मित करने हेतु एड़ी चोटी के प्रयास किए। वस्तुतः बाबरी विध्वंस राम काज था, गौरावान्वित कर देने वाला अवसर था, पाँच सौ वर्षों की कुंठा, अवसाद व कलंक को मिटा देने वाला अवसर था। बाबरी विध्वंस पर 6 दिसंबर 1992 से लेकर 9 अक्तूबर 2019 तक न्यायालय द्वारा जितनी भी प्रतिकूल, अनुकूल प्रतिकूल टिप्पणियां की गई थीं उन सभी को इस राष्ट्र के हम हिंदू बंधुओं ने न तो स्मरण करना चाहिए और न ही उन्हें विस्मृत करना चाहिए। मुझे लगता है बाबरी विध्वंस पर हुई तमाम न्यायलीन टिप्पणियों का यथासमय समाशोधन/ न्याय हमारे समाज द्वारा स्वमेव ही कर दिया जाएगा। एक सर्वव्यापी मंथन कभी न कभी होगा जो इस विमर्श के सत्व को स्थापित करेगा। जिस राष्ट्र ने श्रीराम को अपना पूर्वज, अपना कुटुंबपति, अपना पुरोधा, अपना प्रभु, अपना नीतिनियंता और अपना आदर्श माना हो उस समाज में रामकाज करना प्रत्येक नागरिक का प्रथम कर्तव्य है। निस्संदेह मंदिर निर्माण रामकाज ही है और बाबरी का विध्वंस भी रामकाज ही था।
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यदि समाज, देश व विश्व यह सोचता है कि अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण ही अंतिम रामकाज है तो वह गलत सोचता है। आप चिंता न करें मैं यहां मथुरा, काशी आदि आदि की बात नहीं कर रहा हूँ। मथुरा काशी अपने आप में एक सामाजिक कार्य हैं जो समय आने पर विधिवत अभियान का स्वरूप लेगा; मैं तो यहां यह चर्चा कर रहा हूँ कि ये जो पाँच सौ वर्षों तक हमारे माथे पर कलंक का टीका लगा रहा है वह मंदिर बनने मात्र से समाप्त नहीं होगा। इस कलंक को समाप्त करने हेतु हमें हमारे समाज में चले पाँच सौ वर्षों के षड्यंत्रकारी व लज्जाधारी विमर्श के विरुद्ध भी एक व्यापक विमर्श खड़ा करना होगा। मंदिर स्थूल है किंतु मंदिर का व्यापक विमर्श एक दिव्य विचार है। हमें इस दिव्य विचार की स्थापना हेतु कार्य करना होगा ताकि हम हमारी आने वाली पीढ़ियों को आत्मग्लानि, कुंठा व खेद के भाव से निकाल कर वीरोचित भाव से आत्मविभोर कर पाएँ। आप कल्पना कीजिये कि जिस देश में नरेंद्र मोदी के पूर्व किसी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक मंच से जय श्रीराम का उद्घोष ही नहीं किया, उस देश में राममंदिर के निर्माण हेतु एक प्रधानमंत्री का जाना सतह के नीचे कितनी लहरों को जन्म दे रहा होगा।
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हम आज यदि लगभग बीते तीन दशकों के बाबरी ढांचा विध्वंस पर हुये विमर्श को जांचे परखें तो लगता है इस विषय पर बहुत दीर्घ, सतत व विस्तृत अध्ययन विमर्श की आवश्यता है। द वीक पत्रिका द्वारा जारी 7 सितंबर, 2003 की रिपोर्ट ''The layers of truth” हो, या आउटलूक इंडिया पत्रिका की "What If Rajiv Hadn't Unlocked Babri Masjid? हो, या 3 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित द हिन्दू की प्रकाशित स्टोरी Ayodhya verdict yet another blow to secularism: Sahmat हो, ऐसी पचासों स्टोरीज़ और दसियों पुस्तके हैं जिनके सामयिक विचारमंथन या समाशोधन (हिसाब किताब बराबर करना) की सख्त आवश्यकता हमारे समाज को है। निस्संदेह इस सामाजिक, अकादमिक समाशोधन हेतु यह समय सर्वाधिक उपयुक्त व समीचीन है।
- प्रवीण गुगनानी
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