महिला सशक्तिकरण के लिए यह जागने का समय है

women empowerment
ANI

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो महिलाओं के विविध रूपों के मानवाधिकारों के प्रति समाज में जागरूकता लाने तथा उनके प्रति लोगों को निजी एवं सामूहिक जिम्मेदारियों का स्मरण कराने के लिए ही विश्व इन तमाम दिवसों के आयोजन किए जाते हैं।

महिला के कई रूप होते हैं। वह बेटी, बहू, मां, बहन, पत्नी, दादी, नानी आदि रूपों में हमारे इर्द-गिर्द जन्म से मृत्यु तक साए की तरह मौजूद रहती हैं। देखा जाए तो जीवन और समाज के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका किसी-न-किसी रूप में अवश्य पाई जाती है। इसके बावजूद आधुनिक वैश्विक सामाजिक ढांचे और आर्थिक एवं सांस्कृतिक खांचे में महिलाएं लगातार उपेक्षा, उत्पीड़न, शोषण और दमन का शिकार होती आ रही हैं। घर से लेकर बाहर तक सर्वत्र दमन और शोषण की चक्की में पिसतीं महिलाओं का वास्तविक महत्व समाज को अभी समझना शेष है। यही कारण है कि वैश्विक समाज में महिलाओं के महत्व को प्रतिपादित करने और उन्हें उनका वास्तविक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 08 मार्च को विश्व भर की महिलाओं के प्रति आभार जताने के लिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, 26 अगस्त महिला समानता दिवस, 22 सितंबर को बेटियों के समर्थन में अंतर्राष्ट्रीय बेटी दिवस एवं 11 अक्तूबर को विश्व भर की बालिकाओं को समर्पित ‘विश्व बालिका दिवस’ का दुनिया भर में प्रमुखता से आयोजन किया जाता है।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो महिलाओं के विविध रूपों के मानवाधिकारों के प्रति समाज में जागरूकता लाने तथा उनके प्रति लोगों को निजी एवं सामूहिक जिम्मेदारियों का स्मरण कराने के लिए ही विश्व इन तमाम दिवसों के आयोजन किए जाते हैं। हालांकि ऐसे आयोजनों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, क्योंकि ये सब महज रिवाज बन कर रह गए हैं। न तो हमारी बेटियों, बहुओं, माताओं और बहनों के विरूद्ध बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और बलात्कार के बाद दरिंदगी करने वाले अपराधियों पर इनका कोई असर होता है और न समाज पर ही इन आयोजनों का कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई देता है। यहां तक कि कानून, जिसे निर्दोष और मासूम बेटियों, बहुओं और माताओं के लिए रक्षा कवच माना जाता रहा है, की सख्ती और मजबूती भी अब उन्हें अपराधियों से बचाने में असमर्थ साबित होती जा रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या दिन-प्रतिदिन महिलाओं के विरूद्ध इस भांति अत्याचार, उपेक्षा, उत्पीड़न, शोषण और दमन की घटनाएं बढ़ती नहीं जातीं। केवल बलात्कार की भी बात करें तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रतिदिन कम-से-कम 87 महिलाओं के विरूद्ध बलात्कार के मामले सामने आते हैं।

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तात्पर्य यह कि प्रत्येक घंटे हमारा देश तीन से भी अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार की निर्मम घटनाओं और दरिंदगी का साक्षी बनता है। दुर्भाग्य से यह आंकड़ा भी अंतिम और संपूर्ण नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह तो सिर्फ उन घटनाओं को ही रेखांकित करता है, जिनकी रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज की जाती हैं। निश्चित रूप से इनके अलावा भी देश भर में बलात्कार और दरिंदगी के न जाने कितने ही मामले नित्य प्रति घटित होते रहते होंगे, जिनकी कहीं कोई खोज-खबर लेने वाला नहीं होता है। कई बार तो पीड़िताएं स्वयं ही समाज के भय अथवा लोक-लाज के कारण बलात्कार की घटनाओं को छिपा देती हैं। वहीं, कई बार ऐसा करने के लिए उनके ऊपर माता-पिता और परिवार वालों का भारी दबाव होता है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि बलात्कारी ही इतने दबंग होते हैं कि अपने वर्चस्व के कारण बलात्कार करने के बाद पीड़िताओं को डरा-धमकाकर रिपोर्ट दर्ज नहीं कराने देते। वहीं, कई बार तो रिपोर्ट दर्ज करने के मामले में पुलिस की भी बेपरवाही और गैर-जिम्मेदारी सामने आती रहती है। इसलिए महिलाओं के विरूद्ध घटित होती रहने वाली बलात्कार की घटनाओं की सही संख्या बता पाना किसी के लिए भी मुश्किल है। संभव है कि यह संख्या सैकड़ों में हो।

देखा जाए तो बलात्कार की घटनाओं को छिपाने के लिए पीड़िताओं के ऊपर माता-पिता और परिवार वाले प्रायः इसलिए दबाव बनाते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता यह होती है कि यदि बेटी के बलात्कार की घटना का प्रचार हो गया तो उसका ब्याह नहीं हो पाएगा। दरअसल, हमारे समाज में आज भी इतनी जागरूकता और संवेदनशीलता नहीं आ पाई है कि ‘रील लाइफ’ की तरह कोई आगे आकर घोषित तौर पर यह कहने का साहस जुटा सके कि वह किसी बलात्कार पीड़िता को पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार है। वैसे संवेदनशीलता की बात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि अब हमारे समाज में इसका कहीं ठौर-ठिकाना बचा ही नहीं है, न तो सार्वजनिक जीवन में और न ही निजी जीवन में... और यही कारण है कि अब पग-पग पर संबंधों की मर्यादाएं टूटने लगी हैं, बल्कि सच कहा जाए तो अब मनुष्य मात्र की मर्यादाएं भी तार-तार हो चुकी हैं। पहले लोग राह चलते किसी अनजान के साथ भी कहीं कुछ गलत होने पर बीच-बचाव कर लेते थे, लेकिन अब तो लोग ऐसी परिस्थिति में मजे लेने और वीडियो बनाने लगते हैं। पिछले ही महीने की बात है। महाकाल की प्राचीन नगरी के एक व्यस्ततम सड़क के किनारे एक महिला के साथ बलात्कार हुआ और लोग तमाशबीन बने रहे... वीडियो बनाते रहे।

इसी वर्ष जून में वाइरल 27 सेकंड के एक वीडियों में मुबई की सड़क पर एक युवती को एक युवक ने पीट-पीटकर मार डाला था और वहां मौजूद भीड़ उस घटना का वीडियो बनाती रही। विडंबना यह है कि गैर जिम्मेदारी और संवेदनहीनता का भयावह उदाहरण पेश करतीं ये घटनाएं न तो पहली बार घटित हुईं और न ही ये आखिरी थीं, लेकिन इनके बारे में देख-पढ़कर ऐसा प्रतीत हुआ कि किसी ने मनुष्य मात्र के शील, संवेदना और मर्यादा का हरण कर लिया है... कि मानवता की तमाम पुरानी कसौटियों की चमक अब फीकी पड़ चुकी है। चिंता होती है यह सोचकर कि सोशल मीडिया पर पोस्ट कर लाइक्स और शेयर प्राप्त करना आज हमारे लोगों की इतनी बड़ी प्राथमिकता कैसे बन गई। वास्तव में ये घटनाएं ‘आई-ओपेनिंग’ हैं, जो हमारे समाज और देश के भविष्य को लेकर चिंतित और भयभीत करती हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सारे फसाद की जड़ यह मोबाइल ही है, क्योंकि देखा जाए तो मोबाइल के आने से पहले कोई इस भांति तमाशबीन होकर वीडियो नहीं बनाता था। बहरहाल, चाहे हमारी जो भी कमजोरी या लाचारी हो, परंतु हमें इस बात पर अवश्य विचार करना चाहिए कि आज तो इस विपत्ति की घड़ी में हम तटस्थ होकर तमाशबीन बने हुए हैं... वीडियो बना रहे हैं, लेकिन तब क्या करेंगे, जब इसी प्रकार कोई दरिंदा हमारे आंगन अथवा ड्योढ़ि तक आ धमकेगा? जाहिर है कि तब हम भी अकेले होंगे। हमारा भी कोई साथ देने नहीं आएगा। इसलिए यह जागने का समय है। हमें बिना देर किए जागना होगा।

−चेतनादित्य आलोक

वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची, झारखंड

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