भारतीय संविधान: शिरोधार्य हो रामत्व
समरसता रामत्व का मूल है। श्रीराम की निषादराज से मित्रता, माता शबरी के झूठे बेरों को खाना, जटायु को उसके अंतिम समय में स्नेह देना, सुग्रीव से मित्रता, हनुमान को गले लगाना आदि आदि जैसी घटनाएं उनकी कथनी व करनी में व्याप्त समरसता का ही द्योतक थी।
रामराज्य एक सनातनी शासन पद्धति है, इस तथ्य को गर्वपूर्वक स्वीकारना चाहिये। जब हेग कन्वेंशन में, युद्ध नियम हमारे सनातनी शास्त्रों से ग्रहण किए जा सकते हैं तो फिर रामराज्य को सनातनी मानने में संकोच क्यों?! यह सर्वसमावेशी, सर्वव्यापी, सर्वस्पर्शी शासन पद्धति है। (उपशीर्षक)
भारतीय समाज में व भारतीय संविधान में “श्रीराम” का केवल नाम ही नहीं होना चाहिये है। भारतीय संविधान व समाज में श्रीराम एक अवधारणा, एक संस्थान, एक स्थापना, एक ऊर्जा स्रोत, एक प्रेरक तत्त्व, एक आधारभूत तत्व के रूप में स्थापित होना चाहिये। क्योंकि रामत्व ही तो कलियुग का आधार है। जब “कलयुग केवल नाम अधारा, सिमर-सिमर नर उतरहिं पारा” तो फिर हमारा संविधान व समाज भला किस प्रकार रामत्व से वंचित रह सकता है? और यह क्यों रामत्व से वंचित रहे? और, यदि यह रामत्व से दूरी बनाकर भी रखना चाहे तो भी कितने समय दूरी बनाकर रह सकते हैं?! अंततोगत्वा तो भारतीय समाज व संविधान को राममय होना ही है। यही नियति है। यही लक्ष्य भी होना चाहिये। हमें हमारे समस्त संवैधानिक, सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक, पारिवारिक संस्थानों को रामत्व की स्थापना व आधार देना ही होगा। अपनी अपने पूजा स्थल में, पूजा पद्धति में राम को सम्मिलित करने की बात नहीं की जा रही है। जीवन पद्धति में श्रीराम को लाने विषयक है यह। यही सटीक व समीचीन तथ्य है आज एक युग का।
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कलियुग के हम लोग तनिक अधिक ही स्वार्थी व तनिक अधिक ही स्वयंस्थ हैं, इसलिए राम नाम को हम “Abstract Entity” के रूप में सदैव ही मानते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। यह स्वाभाविक भी है। कलियुग के हम भारतीय; स्वयं में, समाज में, संविधान में, रामत्व को अर्थात् राम के अंतर्त्तव को विराजित करते रहे हैं, कर पाते हैं, कर रहे हैं; तब ही तो हमारे कालखंड में हम श्रीराम जन्मभूमि का भव्य निर्माण, उसका लोकार्पण अपने नयनों से साक्षात देख पा रहे हैं। रामत्व ने ही हमें सक्षम बनाया कि हम आठ सौ वर्षों के पीढ़ियों के संघर्ष के पश्चात अपने संघर्ष को सफल होते हुए देख पा रहे हैं! हम सफल हुए हैं क्योंकि हमारा समाज रामत्व से सराबोर हो रहा है। राममंदिर का निर्माण हुआ क्योंकि हमारा रामत्व चैतन्य-जागृत हो रहा है।
हमारा संविधान केवल श्रीराम, माता सीता व भैया के लक्ष्मण के चित्र को समेटे हुए नहीं है, यह संविधान रामत्व के भाव को भी शिरोधार्य किए रहना चाहता है। हमारे संविधान का मर्म रामत्व में सराबोर रहना चाहता है। इस तथ्य को जो भारतीय शासक चिन्हित करेगा, पहचानेगा व क्रियान्वित करेगा वही सच्चे अर्थों में भारत का स्वाभाविक व सर्वाधिक योग्य सम्राट होगा। रामत्व, भारतीय समाज, संविधान, निशान के कण-कण मन-मन में धारित हो, मनःस्थ हो, तनस्थ हो इसी में राष्ट्रसिद्धि निहित है। श्रीराम ही तो भारत के सांस्कृतिक, नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के आदर्श, प्रेरक व स्रोत रहे हैं। उनका व्यक्तित्व एवं जीवन दर्शन हमारे संवैधानिक मूल्यों के समरूप हैं। यदि हम श्रीराम के जीवन चरित के अनुरूप अपने संविधान की कल्पना करें व शेष श्रीराम चरित को भी संविधान में वस्तुतः लागू करें तो हमें विश्व का एक श्रेष्ठतम, कालसिद्ध व कालजयी संविधान मिल सकता है। उस संविधान में वैश्विकता भी प्रदर्शित होगी व समूचे विश्व में वह लागू भी होगा। श्रीराम के उनके भवन में विराजने के पश्चात अब भारतीय समाज, संघ, सत्ता, शीर्ष का यही लक्ष्य होना चाहिये कि संविधान में रामत्व अपने संपूर्ण रूप में विराजित हो। हमारे संविधान में श्रीराम की दयालुता, समरसता, समाज एकता, न्यायप्रियता, कला प्रियता, कर्तव्य परायणता, अधिकार सिद्धता, स्थानीयता, वैश्विकता, भूमि निष्ठा, नभ प्रियता, वैज्ञानिकता, आदि आदि का समावेश हो यही अब प्रत्येक भारतीय का लक्ष्य होना चाहिये।
यह संयोग एक रहस्य लग सकता है कि भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अंश में ही श्रीराम, माता सीता व भैया लक्ष्मण का चित्र ही क्यों अंकित हुआ? किसके मानस में यह क्यों आया यह कभी किसी ने कहा नहीं। श्रीराम के चित्र का योजन-नियोजन मौलिक अधिकारों वाले भाग में करने की चर्चा किसी ने नहीं की; अर्थात् यह अनायास, निष्प्रयास, संयोगवश ही हुआ है! इस संयोग के निहितार्थ हम भारतीयों को समझ लेने चाहिये। भारतीय संविधान के प्राण उसके मौलिक अधिकारों वाले अंश में व उन श्रीराम में ही बसा करते हैं जिनका चित्र-चरित इस अंश में सारगर्भित है।
संविधान के श्रीराम जी वाले चित्र के साथ कुछ अधिकारों की सुनिश्चितता (गारंटी) व राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की अवधारणा मिलती है। संविधान के इस रामधारी अंश से ही हमें धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की नहीं अपितु रामधर्म आधारित संविधान, समाज व राष्ट्र की प्रेरणा मिलती है। हमें धर्म निरपेक्ष नहीं अपितु राम सापेक्ष राष्ट्र चाहिये, क्योंकि राम ही मानवीयता है। भारतभूमि को, राम को, रामत्व को, केवल सनातन मानना छोड़ना होगा। हम रामत्व को सीमित न करें उन्हें उनके अपरिमित वाले स्वरूप में ही स्वीकारें। भारतभूमि के प्रत्येक जीव, जंतु, मानव हेतु रामत्व समावेशित समाज, संविधान, निशान देना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये।
समरसता रामत्व का मूल है। श्रीराम की निषादराज से मित्रता, माता शबरी के झूठे बेरों को खाना, जटायु को उसके अंतिम समय में स्नेह देना, सुग्रीव से मित्रता, हनुमान को गले लगाना आदि आदि जैसी घटनाएं उनकी कथनी व करनी में व्याप्त समरसता का ही द्योतक थी। श्रीराम द्वारा वनवासी हनुमान को भैया लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय बताना और यह कहना कि- “सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना”; उनकी विशालता का प्रतीक था। श्रीराम का हनुमान को अपने सहोदर से अधिक महत्व देने का दृष्टांत आज के शासक वर्ग को व समाज के अग्रणी वर्ग हेतु प्रेरक तत्त्व होना चाहिये। जब शबरी के आंगन में बैठकर श्रीराम उसके झूठे बेर आनंदपूर्वक खा रहे होते हैं तब शबरी भाव विभोर होकर कहती है - “अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी। तब वनवासी राम उत्तर देते हैं - कह रघुपति सुनू भामिनी बाता। मानाउँ एक भागति कर नाता।। जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धनबल परिजन गुन चतुराई।। भगति हीन नर सोइह कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।” अर्थात्- भक्ति का ही संबंध है, जिसे वे मानते हैं। जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- ये सब गुण लक्षण होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य निर्जल बादल सदृश ही लगता है। और आगे देखिए, माता जानकी को रावण से बचाने के संघर्ष में जब जटायु के प्राण संकट में आ गये होते हैं तब गिद्धराज जटायु को अपनी गोद में लेकर स्नेह व आदर देते हैं। इसके बाद वे जटायु का अंतिम संस्कार, पुत्रभाव से विधिपूर्वक करते हैं। रावण व ताड़का जैसे अपने शत्रुओं को युद्ध में वीरतापूर्वक पराजित करना और फिर उनके सम्मानपूर्ण अंतिम संस्कार की व्यवस्था करना, जैसे कार्य उनके बड़प्पन व विशाल हृदयता को प्रकट करते हैं। शासक में, संविधान में समाज में रामत्व इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि राम ही शत्रुता भाव पर नैतिकता को महत्व देते थे। स्मरण कीजिए जब युद्धभूमि में दशानन का मृत शरीर पड़ा हुआ था तब उसका सहोदर विभीषण रावण के अंतिम संस्कार के लिए भी संकोच करते दिखाई देते हैं तब श्रीराम मर्यादा व्यक्त करते हुए कहते हैं- “मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं न: प्रयोजनम्। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।” - बैर जीवन काल तक ही रहता है। मरने के बाद उस बैर का अंत हो जाता है। वर्तमान समय में युद्ध में नियमों को बनाये रखने व मृत शरीरों को ससम्मान अंतिम संस्कार हेतु हमारी पीढ़ी ने “हेग कन्वेंशन” में प्रस्ताव पारित करके ये व्यवस्था की है। सनातन में रामत्व ने इन व्यवस्थाओं को हज़ारों वर्ष पूर्व लागू किया हुआ था। युद्ध भूमि में श्रीराम ने अपने शत्रुओं का वीरोचित संहार तो किया किंतु उसके बाद उन्होंने अपने शत्रुओं के ससम्मान, विधिपूर्व अंतिम संस्कार, उनके असहाय परिजनों की देखरेख, उनके राज्य की शासन व्यवस्था की चिंता आदि सभी कार्य ऐसे किए हैं कि हेग के प्रावधान रामायण से उठाये हुए ही प्रतीत होते हैं।
संविधान व समाज में रामत्व की स्थापना आज के युग का एक महत्वाकांक्षी भाव इस लिए भी है कि वर्तमान कालखंड में हमें रामराज्य की सर्वाधिक आवश्यकता है। निस्संदेह रामराज्य एक सनातनी अवधारणा है व रामराज्य सनातन जनित ही एक सर्वोत्कृष्ट शासन पद्धति है, तथापि वर्तमान समय में भी यह सर्वाधिक समीचीन है। वस्तुतः समग्र सनातन सदैव ही प्रासंगिक बना रहता है, तभी तो यह सनातन अर्थात् सदा सर्वदा नूतन कहलाता है। कुछ लोग और यहां तक कि हमारे कुछ विद्वान भी, रामराज्य के संदर्भ में स्पष्टीकरण देते दिखाई देते हैं कि- राम राज्य कोई धार्मिक अवधारणा नहीं है! यह सरासर झूठ है!! रामराज्य सनातनी अवधारणा ही है!!! यही सत्य है। रामराज्य सनातनी अवधारणा होकर आज के युग में भी एक सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था होने के साथ साथ इतनी विकसित भी है कि इसके शासन के अंर्तगत सभी मत, पंथ, संप्रदाय के लोग अपनी अपनी पूजा पद्धति का पालन करते हुए निवासरत हो सकते हैं। रामराज्य में कहीं भी धर्म के आधार पर विभाजन व भेदभाव की स्थिति देखने को नहीं मिलती है। यद्दपि, रामराज्य सनातनी अवधारणा है तथापि यह एक वसुधैव कुटुम्बकम् व प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशीलता का भाव रखने के गुण के कारण सर्व स्वीकार्य शासन प्रणाली है। रामराज्य में प्रजा व राजा के मध्य का संवाद, प्रजा के अधिकारों का सर्वाधिक सरंक्षण, शासक के उत्तरदायित्व का चरम भाव, जनता में कर्तव्य भाव का जागरण, पर्यावरण व प्राणियों के प्रति सरंक्षण का भाव आदि आदि जैसे भाव अपने चरम पर होते हैं। अब समय आ गया है कि राजनीति शास्त्र में रामराज्य पर शोध व लेखन कार्य को प्रोत्साहित व स्वीकार किया जाए। जब हेग कन्वेंशन में युद्ध के नियम भारतीय शास्त्रों से ग्रहण किए जा सकते हैं तो भला भारतीय शासन पद्धति में रामराज्य के गुणों के समावेशन से हमें क्योंकर आपत्ति होनी चाहिये?!
शासन में रामत्व इसलिए भी आवश्यक है श्रीराम ने स्थानीय व्यक्ति को ही राजा बनने को प्राथमिकता देकर लोकतंत्र के एक आवश्यक तत्त्व का सरंक्षण किया था। इसी भाव की रक्षा करते हुए श्रीराम बाली के निधन के पश्चात सुग्रीव को किष्किन्धा का राजपाट सौंपते हैं, तो बाली पुत्र अंगद को सुग्रीव का उत्तराधिकारी भी घोषित करते हैं। जब लंका में श्रीराम विजयी होते हैं, तब वे न केवल लक्ष्मण से कहकर विभिषण का राजतिलक करवाते हैं, अपितु विभिषण से घर की सभी महिलाओं को सांत्वना, सरंक्षण व सद्भावपूर्ण आचरण देने का अनुरोध भी करते हैं।
हमारी शासन पद्धति को रामत्व से सराबोर करने का सीधा सा अर्थ होगा, शासन को और अधिक सर्वसमावेशी, सर्वव्यापी, सर्वस्पर्शी शासन पद्धति बनाना!!
- प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय में सलाहकार (राजभाषा)
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