Interview: विज्ञापनों की सटीकता, सुनिश्चित तय करने का वक्त: सुहेल सेठ

suhel seth
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विज्ञापनों का निर्माण स्वयं कंपनियां नहीं करती। उन्हें पीआर या इवेंट कंपनियां बनाती हैं जिनका काम पूर्णता झूठ-फरेब पर टिका होता है। वैसे, देखा जाए तो ऐसा कोई विशिष्ट नियम या प्रावधान नहीं हैं जिनके लिए विज्ञापनदाता को अनिवार्य रूप से उत्पाद प्रदर्शन प्रदर्शित करना आवश्यक हो।

सर्वोच्च अदालत से पतंजलि की लगी फटकार के बाद भ्रामक विज्ञापनों का मामला चर्चाओं में हैं। ऐसी चर्चाएं तब होती हैं, जब कोई घटनाएं घटती हैं, वरना विज्ञापन कंपनियां का बेलागम रवैया बदस्तूर जारी रहता है। प्रॉडक्टर कंपनियां के बीच दिनोंदिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने वस्तुओं की गुणवत्ताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया। इसी मुद्दे को लेकर एडगुरू सुहेल सेठ से पत्रकार डॉ. रमेश ठाकुर के बीच हुई वार्ता के मुख्य अंश।

प्रश्नः भ्रामक विज्ञापनों के संबंध में निर्धारित नियम-कानून क्या कहते हैं?

उत्तरः हमें फर्क को समझना होगा। लालच में आकर कई दफे भ्रामक विज्ञापनों को बल हम खुद देते हैं। प्रॉडक्टस् की गुणवत्ताओं की बिना परख किए, उसे लेने का फैसला कर लेते हैं। देखिए, भ्रम ही भ्रामकता को जन्म देता है। जहां तक नियम-कानून की बात है तो ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-2019’ अपने प्रावधानों में साफ कहता है कि एक विज्ञापन, अधिनियम के तहत निर्धारित दिशानिर्देशों के प्रावधानों के अधीन, स्पष्ट अतिशयोक्ति की प्रकृति का दावा जरूर करता है और उसे उचित दरों पर उपभोक्ता में लेने की संभावनाएं भी बढ़ाता है। पर, निर्भर उपभोक्तों पर ही करता है कि वह अपने से जांच-परख करे। विज्ञापन में प्रत्येक वस्तु पर अधिनियम के तहत कंपनियां अनुमति और शर्तें दोनों की बातें कहती हैं। ऐसा वो अपने बचाव के लिए करती हैं। फिर भी अगर, विज्ञापन में किए गए वस्तुनिष्ठ दावे अगर साक्ष्यों से भिन्न या विपरीत हैं तो कस्टमर लीगल स्टेप उठा सकते हैं।

प्रश्नः पतंजलि मामले में सुप्रीम कोर्ट न मशहूर हस्तियों को भी जिम्मेदारी से विज्ञापन करने की नसीहत दी हैं, कितनी अमल में आएगी ये नसीहतें?

उत्तरः हां, बिल्कुल स्पष्ट रूप से उच्च अदालत ने तल्खी के साथ चेतावनी देकर फिल्मी कलाकारों, क्रिकेटरों व अन्य मशहूर हस्तियों को चेताया है कि वह सोशल मीडिया को प्रभावित करने वाले ऐसे तमाम विज्ञापनों जो स्वास्थ्य उत्पादों से संबंधित भ्रामक हां उन्हें करने से बचें। चेतावनी के बाद भी कोई करता है तो वह झूठे विज्ञापन अभियानों और प्रकाशनों के स्वयं जिम्मेदार और उत्तरदायी होगा। देखिए, सख्ती जरूरी है, विज्ञापनों की व्यवस्थाएं जब तक बेलगाम रहेंगी, स्थिति सुधरने वाली नहीं? सिर्फ एक मामले में चर्चा होना, कुछ दिनों तक मुद्दा गर्म रहे, और बाद में फिर पुराने ढर्रे पर चले जाने से काम नहीं चलेगा। विज्ञापनों की सटीकता, सुनिश्चित तय होनी चाहिए। बावजूद अगर उन्हें कोई प्रभावित करने की कोशिश करे, तो कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

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प्रश्नः कंपनियों के समक्ष दिक्कत एक ये भी है। बगैर, विज्ञापन के कोई प्रोडक्ट बाजार में बिकता भी नहीं?

उत्तरः ऐसी तमाम कंपनियां हैं जो अपने प्रोडक्ट को लांच करने से पूर्व बकायदा उसकी गुणवत्ता का सर्वेक्षण करवाती है। फिर तय नियमों का पालन करके बाजार में उतारती हैं। लेकिन, बेलगाम कंपनियां और नए-नवेले प्रतिष्ठान ऐसा नहीं करते। मूल्यांकन, या सर्वेक्षण के परिणाम प्रॉडक्टरों की विश्वसनीयता पर डिपेंड नहीं रहते। मुझे लगता है इन सभी के स्रोत और तारीखें ‘एएससीआई कोड’ के तहत विज्ञापन में इंगित होनी चाहिए। सर्वेक्षण एक विश्वसनीय स्रोत द्वारा किया जाना चाहिए ताकि विश्वसनीय हो और उनकी प्रामाणिकता साबित करने के लिए साक्ष्य द्वारा समर्थित भी हो? एक टूथपेस्ट (कोलगेट) जो बहुत पुराना है और विश्वसनीय भी? जिसे न सिर्फ हिंदुस्तान इस्तेमाल करता है बल्कि संपूर्ण संसार उसे सुबह प्रयोग करता है। ये प्रॉडक्ट अपने मानकों पर खरा है।  ऐसी वस्तुओं से किसी को कोई दिक्कत नहीं होती।

  

प्रश्नः छोटे बच्चों की खाद् सामाग्रियों में भी खूब गड़बड़ियां होने लगी हैं?

उत्तरः सरासर गलत है, नहीं होना चाहिए। चाइल्ड फूड जैसे भ्रामक विज्ञापनों पर तुरंत बैन लगना चाहिए। ऐसी कंपनियों के लाइसेंस भी निरस्त किए जाएं। जबकि, ऐसा ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 29(8) में भी स्पष्ट है। हिंदुस्तान में रोजाना ऐसी खबरे सुनने को मिलती हैं कि फला वस्तु के प्रयोग से लोग बीमार पड़ गए। उनमें बच्चों की संख्या ज्यादा होती है। मैंने आज ही कहीं पढ़ा है कि मैगी खाने से कई बच्चे बीमार पड़े हैं। हद है, पंजीकृत ट्रेडमार्क में भी गड़बड़ी होने लगी है। ये आश्चर्य की बात है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ कंपनियों का मकसद मात्र अनुचित लाभ उठाता है और औद्योगिक या वाणिज्यिक मामलों में बेईमानी करना ही रहता है? लेकिन किसी के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।

प्रश्नः फिर ऐसा क्यों होता है कि तमाम बंदिशों के बावजूद भी विज्ञापन कंपनियां मनमानी करती हैं?

उत्तरः विज्ञापनों का निर्माण स्वयं कंपनियां नहीं करती। उन्हें पीआर या इवेंट कंपनियां बनाती हैं जिनका काम पूर्णता झूठ-फरेब पर टिका होता है। वैसे, देखा जाए तो ऐसा कोई विशिष्ट नियम या प्रावधान नहीं हैं जिनके लिए विज्ञापनदाता को अनिवार्य रूप से उत्पाद प्रदर्शन प्रदर्शित करना आवश्यक हो। हालांकि, यदि कोई विज्ञापन किसी उत्पाद के प्रदर्शन को दर्शाता है। तो, ऐसा प्रदर्शन सत्य और तथ्यात्मक होना चाहिए। अन्यथा, उपभोक्ता के हाथों में उसी उत्पाद के प्रदर्शन की तुलना में उत्पाद के प्रदर्शन में अंतर के संबंध में उपभोक्ता की शिकायत उत्पन्न हो सकती है, जैसा कि विज्ञापन में मालिक द्वारा दावा किया गया है। कोई विज्ञापन भ्रामक है यदि वह अपेक्षित उत्पाद प्रदर्शन के बारे में गलत धारणा बनाता है, बढ़ाता है या उसका शोषण करता है तो उसे कानूनी दायरे में लाना चाहिए।

प्रश्नः भ्रामक विज्ञापनों के पीछे की मुख्य वजह आप कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा को मानते हो?

उत्तरः देखिए, खेल सारा प्रतिस्पर्धा का ही है। कंपनियां कोई पीछे नहीं रहना चाहती, सभी को आगे निकलने की हौड़ लगी है। प्रतिस्पर्धा के चलते ही कंपनियां अपनी क्वालिटी से समझौता करने लगी हैं। विज्ञापनदाता को यह सुनिश्चित करना होगा? ग्राहक को पता हो विज्ञापनदाता कौन है और विज्ञापन में प्रदर्शित कौन से उत्पाद या सेवाएं विज्ञापनदाता की हैं और कौन सी प्रतिस्पर्धी हैं। लेकिन ऐसा कंपनियां होने नहीं देती। ये चेन सिस्टम है, इस खेल में नीचे से लेकर उपर तक कई लोग शामिल हैं। कंपनियां को अपनी आमदनी बढ़ानी है, तो सरकारों को टैक्स के रूप में अपना मुनाफा? इस बीच कस्टम बेचारा मारा जा रहा है।

बातचीत में जैसा ऐड एक्सपर्ट सुहेल सेठ ने डॉ. रमेश ठाकुर से कहा।

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