सत्ता हो विपक्ष, राजनीति तो स्वाभाविक है

Nirmala Sitharaman
ANI

जहां तक बजट में राजनीति का सवाल है तो शायद ही कोई सरकार या दल होगा, जिसने अपने कार्यकाल में प्रस्तुत बजट में राजनीति ना की होगी। हर राजनीतिक दल की अपनी विचारधारा है, उसका अपना एजेंडा होता है, उसका अपना वोट बैंक होता है।

विपक्षी कांग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार ने बजट को लेकर राजनीति की है। विपक्ष का आरोप है कि इस बजट में नीतीश कुमार और एन चंद्रबाबू नायडू ने अल्पमत सरकार को समर्थन देने की कीमत वसूली है। आरोप यह भी है कि सरकार बचाने के लिए बीजेपी ने बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष पैकेज दिया है, जबकि अन्य राज्यों को कुछ खास हासिल नहीं हुआ है। आरोप को बढ़ाते हुए विपक्ष यहां तक कह रहा है कि यह पूरे देश का बजट नहीं है। कांग्रेस तो यहां तक कह रही है कि मौजूदा बजट उसके चुनाव घोषणा पत्र की कॉपी है।

जहां तक बजट में राजनीति का सवाल है तो शायद ही कोई सरकार या दल होगा, जिसने अपने कार्यकाल में प्रस्तुत बजट में राजनीति ना की होगी। हर राजनीतिक दल की अपनी विचारधारा है, उसका अपना एजेंडा होता है, उसका अपना वोट बैंक होता है। बजट हो या अन्य सरकारी फैसले, हर राजनीतिक दल और सरकार अपने कदम उठाते वक्त उनका ध्यान रखती है। इसके साथ ही हर राजनीतिक दल अपने भावी और लक्षित वोट बैंक को लुभाने के लिहाज से भी फैसले लेता है। हर राजनीतिक दल की चाहत होती है कि उसका मौजूदा वोट आधार बढ़े। इस लिहाज से भी वह अपने राजनीतिक फैसले लेता है और उसकी सरकारें भी अपनी नीतियां इसी हिसाब से बनाती और बढ़ाती हैं। इस नजरिए से देखें तो अगर मोदी सरकार ने नीतीश और नायडू के राज्यों को कुछ विशेष सहूलियतें दी है तो कोई गलत नहीं है। अगर बिहार बाकी राज्यों की तुलना में पिछड़ा है, वह जनसंख्या पलायन का दंश झेलने को मजबूर है तो हर सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि उस देश के साथ कदमताल करने के लिए बिहार को अगर सहूलियत देनी पड़ी तो दे। मदद का हाथ बढ़ाना पड़े तो बढ़ाए। अगर आंध्र प्रदेश को भी मदद की दरकार हो तो मिलनी चाहिए। सिर्फ बिहार और आंध्र ही नहीं, जो राज्य पिछड़ा है, उसे आगे लाने और उसे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मदद की स्पष्ट नीति होनी चाहिए। अव्वल तो हम देश को एक इकाई के तौर पर देखने का दावा करते हैं। अपना संविधान नागरिक को देश की मूल इकाई घोषित करता है। इस लिहाज से हर नागरिक बराबर है। लेकिन आर्थिक और सामाजिक नजरिए से देखें तो हर नागरिक बराबरी की बेंच पर नहीं बैठा है। समान मतदान और कानून के सामने बराबरी के अधिकार ने एक हद तक बराबरी की इस अवधारणा को जिंदा जरूर रखा है। यह बात और है कि अक्सर अमीर और गरीब के लिए कानूनी पेच और प्रक्रियाएं, यहां तक कि न्यायिक अवधारणा भी बदल जाती है। इन बातों को छोड़ दें तो कम से कम आर्थिक आधार पर बराबरी की ओर बढ़ने की कोशिश होनी चाहिए। प्रशासनिक सहूलियत और सांस्कृतिक आधार पर हमने राज्य गठित कर लिए तो इसका यह मतलब नहीं कि उनकी असमानताओं को अनदेखी की जाए। किसे नहीं पता है कि बिहार के उत्तरी हिस्से में हर साल कोसी नदी प्रलय लेकर आती है। जिससे तकरीबन आधार बिहार नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर रहता है। इसी तरह समूचे देश को पता है कि तेलंगाना के अलग होने के बाद हैदराबाद आंध्र की राजधानी नहीं रहा। उसे राजधानी बनाने के लिए संसाधन चाहिए ही होंगे। इसलिए अगर बिहार और आंध्र को सहूलियतें कुछ ज्यादा मिली भी हैं तो उसे राजनीतिक चश्मे से देखने की बजाय जमीनी हकीकत के लिहाज से समझा जाना चाहिए।

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वैसे यह भी अर्ध सत्य ही है कि बाकी राज्यों को बजट में कुछ नहीं मिला। जबकि इस बजट में अगर रेल परियोजनाएं हैं, अगर कृषि बजट को सवा लाख करोड़ से बढ़ाकर एक करोड़ 52 लाख करोड़ कर दिया गया है, अगर सड़क परियोजनाओं की बाढ़ लाई गई है, अगर केंद्रीय करो में राज्यों का हिस्सा बढ़ाया गया है तो इससे किसी एक ही राज्य का भला नहीं होना है, बल्कि देश के हर राज्य को भला होना है। बजट में आदिवासी लोगों के लिए बजट में वित्त मंत्री पूर्वोदय योजना लेकर आई हैं। जिसके जरिए झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया जाएगा। झारखंड को एक और योजना का सीधा फायदा मिलेगा। बजट प्रस्तावों में ‘प्रधानमंत्री जनजातीय उन्नत ग्राम अभियान’ योजना भी लायी गई है। आदिवासी गांवों और लोगों के विशेष विकास के लिए विशेष रूप से डिजाइन इस योजना का फायदा उन सभी राज्यों को मिलना है, जहां आदिवासी आबादी है। झारखंड में जहां 27 फीसद आबादी जनजातीय है। वहीं उसके पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में करीब 32 फीसद आबादी जनजातीय समुदाय की है। ‘प्रधानमंत्री जनजातीय उन्नत ग्राम अभियान’ के दायरे में 63 हजार गांवों को लाया जाना है। जिससे सीधे तौर पर पांच करोड़ जनजातीय लोगों की जिंदगी बदलने की कोशिश की जानी है। जाहिर है कि इसका फायदा उड़ीसा, झारखंड और छ्त्तीसगढ़ के साथ कांग्रेस शासित तेलंगाना को भी मिलेगा, क्योंकि इन्हीं राज्यों में देश का सबसे ज्यादा जनजातीय आबादी रहती है। 

कांग्रेस ने युवाओं को लुभाने के लिए तीस लाख खाली पड़े सरकारी पदों को भरने और डिप्लोमा धारक सभी बेरोजगार युवाओं को इंटर्नशिप और एक लाख रूपए सालाना देने का वादा किया था। राहुल गांधी और उनके सहयोगियों ने इस वायदे को खूब प्रचारित किया। राहुल गांधी कहा करते थे कि इस सरकार बनी और उधर खटाखट-खटाखट खाते में पैसे ट्रांसफर होने लगे थे। माना जाता है कि इससे युवाओं का एक वर्ग विपक्ष की ओर आकर्षित भी हुआ। कांग्रेस की सीटें बढ़ने में इस वायदे की भी बड़ी भूमिका मानी जा रही है। बजट में सरकार ऐसी योजना तो लेकर नहीं आई, अलबत्ता वह युवाओं के लिए इंटर्नशिप योजना लेकर आई है। जिसके तहत हर साल एक करोड़ युवाओं को इंटर्नशिप दी जानी है, जिसके लिए उन्हें पांच हजार रूपए मासिक और एक मुश्त साल में एक बार छह हजार रूपए भी दिए जाने हैं। करीब चार करोड़ दस लाख युवाओं को कुशल बनाने की भी योजना लाई गई है। इन्हीं योजनाओं का हवाला देकर कांग्रेस सरकार पर आरोप लगा रही है कि उसके वायदे को सरकार ने कॉपी कर लिया है। इसके बहाने वह कांग्रेस पर हमलावर भी है।

चाहे सरकार को विपक्ष, सबका दावा है कि उनकी राजनीति का उद्देश्य देश के लोगों का जीवन स्तर सुधारना है। सवाल यह है कि जब सबका यही उद्देश्य है तो कल्याणकारी योजनाएं कोई भी लाए, उसे खुश होना चाहिए। कांग्रेस को तो वाकई में प्रसन्न होना चाहिए कि उसका वायदा इतना ताकतवर रहा कि उसे अपनाने के लिए उसकी कट्टर विरोधी बीजेपी की सरकार को मजबूर होना पड़ा। लेकिन हकीकत में कांग्रेस खुश नहीं है, उसे लगता है कि सरकार ने सत्ता के जरिए उसका मुद्दा लपक लिया है। कांग्रेस को डर है कि अगर इस प्रस्ताव को ईमानदारी से लागू कर दिया गया तो उसकी ओर आकर्षित हो रहे युवाओं के आकर्षण में कमी आ सकती है। जिसकी वजह से उसे सियासी नुकसान हो सकता है या भविष्य में जितने फायदे मिलने की उम्मीदें रहीं हैं, वह पूरा नहीं हो पाएगा।

सत्ता संभालने की बात हो या उसके विरोध की, सबका उद्देश्य जब राजनीति ही है तो फिर सरकारी कदमों में राजनीति ना होने की उम्मीद पालना बेमानी ही कहा जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी अगर राजनीति में हैं तो वह संत की भूमिका निभाने के लिए नहीं हैं और अगर राहुल भी राजनीति में हैं तो वह अध्यात्म की सेवा करने के लिए नहीं हैं। इसलिए बजट हो विरोध, राजनीति होगी। लिहाजा बजट को लेकर आरोप लगाना कि यह राजनीति बजट है, उसका कोई मतलब नहीं। राजनीति तो यह समझती ही है, आम वोटरों को भी यह जल्द से जल्द समझ लेना चाहिए।

- उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार हैं...

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