नासमझी और अपरिपक्वता की चादर कब तक ओढ़े रहेंगे राहुल गांधी

when-will-rahul-gandhi-make-feel-responsibility
ललित गर्ग । Apr 27 2019 12:31PM

इन चुनावों में इस तरह के राजनैतिक स्वार्थों ने हमारे लोकतांत्रिक इतिहास एवं संस्कृति को एक विपरीत दिशा में मोड़ दिया है और आम जनता ही नहीं, बल्कि प्रबुद्ध वर्ग भी दिशाहीन मोड़ देख रहा है। अपनी मूल लोकतांत्रिक संस्कृति को रौंदकर किसी भी अपसंस्कृति को बड़ा नहीं किया जा सकता।

सत्रहवीं लोकसभा के इस महासंग्राम में बहुत सारा अजूबा एवं अलोकतांत्रिक घटित हो रहा है, हर क्षण जहर उगला जा रहा है। जो राजनीतिक मूल्यों को नहीं बल्कि जीवन मूल्यों को ही समाप्त कर रहा हैं। नैतिकता, सच्चाई, लोकतांत्रिक मूल्यों से बेपरवाह होकर जिस तरह की राजनीति हो रही है, उससे कैसे आदर्श भारत का निर्माण होगा? कैसे राष्ट्रीय मूल्यों को बल मिलेगा? कैसे लोकतंत्र मजबूत बनेगा? ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर सार्थक बहस जरूरी है। आखिर कब तक झूठे, भ्रामक एवं बेबुनियाद बयानों को आधार बनाकर चुनाव जीतने के प्रयत्न होते रहेंगे? राहुल गांधी का ‘चौकीदार चोर है’ बयान इस चुनाव की गरिमा एवं गौरव पर एक बदनुमा दाग की तरह है, क्योंकि ऐसा बयान और उससे जुड़े तथ्य न केवल आधारहीन है, बल्कि शर्मनाक है। राहुल गांधी अब तो जिम्मेदार बने, अपनी नासमझी एवं अपरिपक्वता को उतार फेंके।

इसे भी पढ़ें: मोदी को गाली तो खूब मिली पर वाराणसी में चुनौती कोई नहीं दे पाया

सच-झूठ की परवाह न करने के क्या नतीजे होते हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण है राहुल गांधी का ‘चौकीदार चोर है’ बयान, जिसके लिये उन्हें खेद जताना पड़ा है। उन्हें सार्वजनिक तौर पर इसलिए खेद व्यक्त करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए यह कह दिया था कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी मान लिया कि चौकीदार चोर है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा कोई निर्णय नहीं दिया, सिर्फ उसने राफेल-सौदे पर बहस को मंजूरी दी थी। चूंकि उन्हें अदालत की अवमानना का सामना करना पड़ता इसलिए उन्होंने बिना किसी देरी के खेद व्यक्त करके खुद को बचाया, लेकिन इससे उनकी विश्वसनीयता को जो चोट पहुंची, उसकी भरपाई आसानी से नहीं होने वाली है, इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इस गैर जिम्मेदाराना हरकत से होने वाले नुकसान को देखते हुए राहुल ने अपने पक्ष में यह सफाई दी की वे चुनावी जल्दबाजी और जोश में वैसा बोल गए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय अभी तक तो भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी की याचिका पर विचार कर रहा था लेकिन उसने अब राहुल को अदालत की अवमानना का औपचारिक नोटिस भी जारी कर दिया है।

राफेल-सौदे पर सर्वोच्च न्यायालय राहुल के वकील अभिषेक सिंघवी के तर्कों से प्रभावित नहीं हुई और उसने 30 अप्रैल को दुबारा सुनवाई की तारीख तय कर दी है। लेकिन यहां प्रश्न यह है कि आखिर देश के शीर्ष राजनीतिक दलों के सर्वेसर्वा ही अदालत की अवमानना करेंगे तो आमजनता को क्या प्रेरणा देंगे? राहुल गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता एवं हठधर्मिता न केवल अदालत की अवमानना करती रही है बल्कि देश की जनता की भावनाओं से भी उन्होंने खिलवाड़ किया है। अपने तथाकथित इस बयान पर अदालत को दिये गये लिखित खेद प्रकट की कार्रवाही के घंटे भर बाद में ही ‘चौकीदार चोर है’, का नारा अमेठी की सभा में लगवा दिया। फिर यही नारा रायबरेली में भी लगवाया। उनकी कथनी और करनी में कितना अन्तर है, कितना दोगलापन है, इससे जाहिर होता है।

इसे भी पढ़ें: राजनीतिक दलों को आखिर साध्वी प्रज्ञा से इतना परहेज़ क्यों?

इन चुनावों में इस तरह के राजनैतिक स्वार्थों ने हमारे लोकतांत्रिक इतिहास एवं संस्कृति को एक विपरीत दिशा में मोड़ दिया है और आम जनता ही नहीं, बल्कि प्रबुद्ध वर्ग भी दिशाहीन मोड़ देख रहा है। अपनी मूल लोकतांत्रिक संस्कृति को रौंदकर किसी भी अपसंस्कृति को बड़ा नहीं किया जा सकता। जीवन को समाप्त करना हिंसा है, तो जीवन मूल्यों को समाप्त करना भी हिंसा है। महापुरुषों ने तो किसी के दिल को दुखाना भी हिंसा माना है। राहुल गांधी ने विचार एवं व्यवहार की हिंसा का तांडव ही कर दिया है, असंख्य जनभावनाओ को उन्होंने लील दिया है। यों तो चुनाव में गिरावट हर स्तर पर है। समस्याएं भी अनेक मुखरित हुई हैं पर लोकतांत्रिक मूल्यों को धुंधलाने एवं विघटित करने वाली यह घटना एक काले अध्याय के रूप में अंकित रहेगी। इस तरह अनैतिकता की ढलान पर फिसलती राजनीति के लिए हर इंसान के दिल में पीड़ा है। सचाई यही है कि अदालत या चुनाव आयोग ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के आधार पर राहुल के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं लेकिन राहुल और सोनियाजी क्या भारत के लोगों के मिजाज को एवं जनभावनाओं को जरा भी नहीं समझते हैं? जिस मर्यादा, सद्चरित्र और सत्य आचरण पर हमारी राजनीतिक संस्कृति जीती रही है, राजनीतिक व्यवस्था बनी रही है, लोकतांत्रिक व्यवहार चलता रहा है वे लुप्त हो गये। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था, हमने उसको उतार कर खूंटी पर टांग दिया है। मानो वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब काम की नहीं रही। तभी इस तरह का नारा लगवाते समय राहुल ने न मोदी की उम्र का ख्याल किया, न उनके पद का। यह बचकाना एवं गैरजिम्मेदाराना हरकत, पता नहीं किसके इशारे पर की जा रही है? राजनीति में विरोध प्रदर्शन होना ही चाहिए, अपने पक्ष को मजबूती से रखा भी जाना चाहिए, जहां कहीं राष्ट्र-विरोधी कुछ हुआ है तो उसे उजागर भी किया जाना चाहिए, राफेल-सौदे हो या नोटबंदी, गरीबी हो या बेरोजगारी, महिला अपराध हो या महंगाई का मामला-सत्तारुढ़ दल पर जमकर प्रहार किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसे तीर मत चलाइए, जो आपके सीने को ही चीर डाले, लहुलूहान कर दें। 

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास मोदी सरकार को कठघरे में खड़े करने के लिए कोई ठोस मुद्दे नहीं थे। सच तो यह है कि ऐसे एक नहीं अनेक मुद्दे थे और वे इसलिए थे, क्योंकि कोई भी सरकार इतने बड़े देश में पांच साल में जनता की सभी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकती। इसके अलावा यह भी किसी से छिपा नहीं कि मोदी सरकार अपने किये कई वायदे पूरे नहीं कर सकी, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष ने झूठ का सहारा लेना बेहतर समझा। पता नहीं कहां से वह यह खोज लाए कि राफेल सौदे में चोरी हुई है। यदि उनके पास इस सौदे में गड़बड़ी के कोई ठोस सुबूत थे तो वे सामने रखे जाने चाहिए थे, लेकिन ऐसा करने के बजाय वह लगातार यह झूठ दोहराते रहे कि अनिल अंबानी की जेब में इतनी रकम डाल दी गई। इस सौदे में चोरी हुई है, भ्रष्टाचार हुआ है। यह विडम्बना एवं हास्यास्पद ही है कि बिना आधार के किसी का चरित्रहनन किया जाये?

इसे भी पढ़ें: जिन्हें लोकसभा चुनावों में लहर नहीं दिख रही वह जरा घर से बाहर निकल कर देखें

राहुल गांधी राफेल विमान की कीमत के साथ ही अनिल अंबानी की जेब में डाली जानी वाली तथाकथित रकम में अपने मन मुताबिक हेरफेर करते रहे, अपने बयान भी बदलते रहे हैं। वे भारत की जनता को बेवकूफ समझने की भूल करते रहे, आखिर उन्होंने यह कैसे समझ लिया कि आम जनता बिना सुबूत इस आरोप को सच मान लेगी कि राफेल सौदे में गड़बड़ी की गई है? शायद उन्हें अपने झूठ पर ज्यादा यकीन था इसलिए वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ फ्रांस सरकार के स्पष्टीकरण और कैग की रपट को भी नकारते रहे। लेकिन वे भूल गये कि भारत की जनता अब शिक्षित भी है और जागरूक भी है। दूध का दूध और पानी का पानी करना उसे भलीभांति आता है और इस बात का सुबूत चुनाव परिणामों में स्पष्ट देखने को मिलेगा। 

हमारे लोकतांत्रिक अनुष्ठान का यह महापर्व कई प्रकार के जहरीले दबावों से प्रभावित है। लोकतांत्रिक चरित्र न तो आयात होता है और न निर्यात और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। इसे देश, काल, स्थिति व राष्ट्रीय हित को देखकर बनाया जाता है, जिसमें हमारी संस्कृति एवं सभ्यता शुद्ध सांस ले सके और उसके लिये चुनाव का समय एक परीक्षा एवं प्रयोग का समय होता है। इस परीक्षा एवं प्रयोग को दूषित करने का अर्थ राष्ट्रीय चरित्र को दूषित करना है। आवश्यकता है लोकतांत्रिक मूल्यों को जीवंत बनाने की। आवश्यकता है राजनेताओं को प्रामाणिक बनाने की। आवश्यकता है आदर्श राष्ट्र संरचना की। आवश्यकता है राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखकर चलने की, तभी देश के चरित्र में नैतिकता आ सकेगी। 

- ललित गर्ग

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़