राष्ट्रपति संसद भवन का उद्घाटन करतीं तब विपक्ष किसी और बहाने से विरोध करता
विपक्षी दलों ने फिलहाल राष्ट्रपति से उद्घाटन ना करने को मुद्दा बनाया है। लेकिन लोक का एक बड़ा हिस्सा यह भी मानता है कि अगर राष्ट्रपति उद्घाटन करतीं, तब भी विपक्ष नई संसद का विरोध करता। तब उसके मुद्दे कुछ और होते। वह इसका तालियां बजाकर स्वागत नहीं करता।
हिंदी का एक मुहावरा है, मौके पर चौका मारना। अवसर हाथ लगा नहीं कि उसका फायदा उठा लिया जाए। फायदा उठाने का तरीका जायज हो या नाजायज, कम से कम मौजूदा राजनीति इससे प्रभावित नहीं होती। नई संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर बीस विपक्षी दलों ने जो रणनीति अपनाई है, वह मौके पर चौका मारने वाली कहावत का बेहतरीन उदाहरण है। 28 मई को नई बनी संसद के भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करने जा रहे हैं, विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाकर इस समारोह के बहिष्कार का ऐलान कर दिया है। विपक्षी दलों की मांग है कि इस भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से कराया जाना चाहिए। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि मोदी सरकार ने ऐसा करके राष्ट्रपति पद की गरिमा और सम्मान को चोट पहुंचाई है।
यह ठीक है कि संविधान के अनुच्छेद 79 के तहत अपनी संसद के दोनों सदनों राज्यसभा और लोकसभा के अलावा एक अंग राष्ट्रपति भी हैं। यह देखते हुए तो विपक्ष की मांग प्रथम दृष्टया वाजिब भी लगती है। लेकिन इस मांग के लिए बाल हठ पकड़ते हुए उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार करना भी ठीक नहीं कहा जा सकता। संसदीय लोकतंत्र में संसद ना सिर्फ राष्ट्र की संप्रभुता की गारंटी है, बल्कि वह सबसे पवित्र और सर्वोच्च पंचायत भी है। वह ना सिर्फ देश को दिशा देती है, बल्कि राष्ट्र की संप्रभुता का संरक्षण भी करती है। इसलिए प्रधानमंत्री के नाम पर उसके उद्घाटन अवसर का बहिष्कार करना एक तरह से संसद की पवित्रता पर शुरुआत में ही आशंका की नींव बनाना है।
वैसे भी साल 2014 से जिस तरह विपक्ष राजनीतिक दांवपेंच चल रहा है, जिस तरह से आए दिन विपक्षी राजनीतिक एजेंडे वाले टूलकिट सामने आते रहे हैं, उससे देश में एक धारणा भी पुष्ट हुई है। धारणा यह कि चूंकि देश की कार्यपालिका के सर्वोच्च पद पर विपक्षी नजर में अनचाही शख्सियत नरेंद्र मोदी पहुंच चुकी है, इसलिए उसका विरोध करना है। यह अवधारणा भी स्थापित हुई है कि विपक्षी विरोध का एक मात्र लक्ष्य मोदी के विरोध के लिए विरोध करना है। इससे यह भी स्थापित हुआ है कि विपक्षी दल कार्यपालिका के सर्वोच्च पद पर मोदी के नाम को पचा नहीं पाया है। इसलिए वह अक्सर किसी न किसी बहाने वाजिब कम, गैर वाजिब मुद्दों पर विरोध करता रहता है। तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली के जंतर-मंतर पर चले लंबे धरना हो, जिसमें कई बार जुगुप्सा पैदा करने वाले विद्रूप दृश्य भी नजर आए, या फिर नागरिकता संशोधन कानून में बदलाव का देशव्यापी विरोध, अफजल की फांसी का विरोध हो या फिर शिक्षा के कथित भगवाकरण के विरोध में जामिया, जादवपुर और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चला विरोध, रोहित वेमुला के नाम पर चला कथित दलित विरोधी मोदी सरकार के रुख के विरोध में चला आंदोलन हो या फिर किसान आंदोलन, ऐसे तमाम आंदोलन रहे, जिनके बारे में मोटे तौर पर देश में यह अवधारणा बनी है कि विपक्ष की शह पर ये सारे विरोधी आंदोलन सिर्फ और सिर्फ मोदी विरोध के लिए किए जा रहे हैं।
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भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा पहले बिहार, फिर जम्मू-कश्मीर, फिर गोवा और बाद में मिजोरम के राज्यपाल बनाए गए सतपाल मलिक के विरोधी तेवर के पीछे भी अवधारणा यही बनी है कि चूंकि मोदी का विरोध करना है, इसलिए वे भी विरोध कर रहे हैं। पुलवामा हमले के पीछे विपक्षी दल मोदी सरकार की साजिश भी बताने से नहीं हिचके। पाकिस्तान की सीमा के भीतर घुसकर भारतीय सेनाओं ने जब सर्जिकल स्ट्राइक किया तो उसके भी सबूत मांगे गए। और तो और न्यायपालिका में हस्तक्षेप के नाम पर भी मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चे खोले गए। इस पूरी प्रक्रिया में खुलकर कुछ यूट्यूबर भी विरोधी हवाबाजी का खेल खेलने लगे। हर विरोध प्रदर्शन और आंदोलन खड़ा करते वक्त विपक्षी दलों और मोदी विरोधी यूट्यूबरों को उम्मीद रही कि इससे मोदी की राष्ट्रीय छवि में दरार पड़ेगी। लेकिन हुआ ठीक उलटा। मोदी ब्रांड पर खास असर नहीं पड़ा। अतीत के ये अनुभव ही हैं कि संसद भवन के उद्घाटन को लेकर मचे सियासी घमासाल को लेकर भी यही माना जा रहा है कि विपक्षी दल हाथ लगे इस मौके का इस्तेमाल मोदी विरोध के लिए जानबूझकर कर रहे हैं।
विपक्षी दलों ने फिलहाल राष्ट्रपति से उद्घाटन ना करने को मुद्दा बनाया है। लेकिन लोक का एक बड़ा हिस्सा यह भी मानता है कि अगर राष्ट्रपति उद्घाटन करतीं, तब भी विपक्ष नई संसद का विरोध करता। तब उसके मुद्दे कुछ और होते। वह इसका तालियां बजाकर स्वागत नहीं करता। आम चौराहे हों, या चायपान की दुकानें या फिर ट्रेन-बस की यात्राएं, यह चर्चा आम है। वैसे अक्टूबर 2020 में नई संसद की जमीन के लिए एजेंसियों ने काम शुरू किया। दस दिसंबर 2020 को प्रधानमंत्री ने इसका शिलान्यास किया। वैसे नई संसद बनाने की योजना भारतीय जनता पार्टी सरकार की है भी नहीं। साल 2010 में लोकसभा की तत्कालीन स्पीकर मीरा कुमार की अध्यक्षता में नए संसद भवन पर विचार करने के लिए एक समिति संसद ने बनाई थी। उसी समिति ने भविष्य की चुनौतियों से निबटने और भविष्य में बढ़ने वाली सांसद संख्या के लिहाज से नई संसद बनाने का प्रस्ताव दिया था। जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वीकार किया। इसी सरकार ने सेंट्रल विस्टा परियोजना शुरू की, जिसमें नया सचिवालय, नई संसद, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति के निवास आसपास के परिसर में बनाने का फैसला किया। उसी कड़ी में तैयार संसद भवन के उद्घाटन पर विवाद हो रहा है।
वैसे यह भी याद करना चाहिए कि संसदीय सौध, जिसे पार्लियामेंट एनेक्सी के नाम से जाना जाता है, का उद्घाटन 24 अक्टूबर 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति ने नहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। इसी तरह 15 अगस्त 1987 को संसद के पुस्तकालय भवन का शिलान्यास तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने किया था। संसदीय सौध विस्तार यानी पार्लियामेंट हाउस एनेक्सी एक्टेंशन का शिलान्यास भी राष्ट्रपति से तत्कालीन सरकार या लोकसभा के स्पीकर ने नहीं कराया था। बल्कि इसे पांच मई 2009 को लोकसभा के तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी और तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया था। छत्तीसगढ़ विधानसभा का उद्घाटन अजीत जोगी ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से कराया था...राज्यपाल या राष्ट्रपति को नहीं बुलाया गया था।
अगले आम चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो गई है। फिर कुछ ही दिन पहले विपक्षी कांग्रेस ने कर्नाटक को भारतीय जनता पार्टी से छीन लिया है। इससे विपक्ष उत्साहित है। उसे लगता है कि अगर नरेंद्र मोदी को घेर लिया जाए तो साल 2024 के चुनावी नतीजे बदल सकते हैं। संसद के उद्घाटन का मौके के ठीक पहले कर्नाटक की कांग्रेसी जीत ने उत्साहित विपक्ष को मौका दे दिया और विपक्ष इसे भुनाने में जुट गया। इस पूरी प्रक्रिया में विपक्षी दलों की ओर से लोकसभा स्पीकर को जानबूझकर निशाना नहीं बनाया जा रहा। जबकि लोकसभा का अध्यक्ष ही संसद परिसर का असली प्रशासक होता है। जाहिर है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने ही प्रधानमंत्री को नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया है।
विपक्षी बहिष्कार की घटना से 2001 के संसद के बहिष्कार की याद आना स्वाभाविक है। तब ताबूत घोटाले के बाद जार्ज फर्नांडिस को अटल बिहारी वाजपेयी ने फिर से रक्षा मंत्री बना दिया था। उन दिनों संसद में जिस दिन रक्षा मंत्रालय से संबंधित सवाल पूछे जाने होते, समूचा विपक्ष जार्ज का बहिष्कार करते हुए संसद से बाहर हो जाता। विपक्ष खुलेआम उन्हें रक्षा मंत्री मानने से इंकार कर रहा था। संसद के शीतकालीन सत्र में यह रवायत जारी थी, इसी बीच 13 दिसंबर को संसद पर आतंकवादियों का हमला हुआ। भयभीत सांसद संसद के केंद्रीय कक्ष में डर और आशंका के साये में परेशान थे। इसी बीच वहां रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस पहुंचे। तब तक हमलावर आतंकी मार गिराए गए थे और संसद भवन पर सेना की टुकड़ियों ने मोर्चा संभाल लिया था। केंद्रीय कक्ष में पहुंचे जार्ज फर्नांडिस ने सांसदों को आश्वस्त किया था, कि समूचे देश पर सरकार का नियंत्रण है। आतंकवादी मार दिए गए हैं। संसद भवन पर सेना पहरेदारी कर रही है। संसद परिसर में विमानभेदी तोपें तक तैनात कर दी गईं हैं, ताकि आसमान से भी खतरा न रहे। जार्ज अभी यह बोल ही रहे थे कि उन्हें विपक्षी सांसदों ने घेर लिया। कोई उनसे हाथ मिलाने को लपक रहा था, तो कोई उन्हें अब तक का सबसे बेहतरीन रक्षा मंत्री बता रहा था। वही विपक्ष, जो कुछ देर पहले तक उन्हें रक्षा मंत्री मानने से इंकार कर रहा था। नए संसद भवन को लेकर भविष्य में विपक्षी दलों का भी रवैया कुछ वैसा ही होगा...ठीक साढ़े इक्कीस साल पहले वाले नजारे की तरह।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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