इंडिया गठबंधन को स्वीकार नहीं राहुल का नेतृत्व

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बीजेपी को सत्ता से बाहर करने की नीयत से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गठबंधन के गठन के लिए भागदौड़ की थी। नीतीश के प्रयासों के चलते ही बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की पहली बैठक हुई थी।

इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस यानी इंडिया की चौथी बैठक दिल्ली में संपन्न हो गई। इस बैठक से उम्मीद थी कि गठबंधन अपना संयोजक या फिर प्रधानमंत्री पद के चेहरे को लेकर कोई निर्णय ले सकता है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। छह महीने में चार बैठकें करने बावजूद गठबंधन के दल साथ चलने, बीजेपी को हराने की हवा हवाई बातों से ज्यादा कुछ कर नहीं पाए हैं। लेकिन इस बैठक में एक खास बात हुई कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव दिया। ममता का समर्थन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किया। हालांकि इस मुद्दे पर कोई अंतिम निर्णय नहीं हो सका। लेकिन ममता बनर्जी और केजरीवाल ने बड़ी चालाकी से खरगे का नाम आगे करके राहुल गांधी के नेतृत्व को खारिज कर दिया। मामले की संवेदनशीलता और गंभीरता समझते हुए खरगे ने कहा, पहले जीतें, फिर देखेंगे। इस मसले पर भले ही कोई फैसला नहीं हुआ, लेकिन ममता और केजरीवाल ने राहुल की पीएम पद की दावेदारी को तो डाउन कर दिया।

बीजेपी को सत्ता से बाहर करने की नीयत से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गठबंधन के गठन के लिए भागदौड़ की थी। नीतीश के प्रयासों के चलते ही बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की पहली बैठक हुई थी। इसके बाद बेंगलुरु और मुंबई में दूसरी और तीसरी बैठक हुई। लगभग छह महीने में गठबंधन की चार बैठकें हुई। पहली बैठक से ही कांग्रेस अपने को ऐसे पेश कर रही थी कि, विपक्षी दल उसके प्रयासों से एकजुट हुए हैं। कांग्रेस ने हर बैठक में अपना हाथ और एजेंडा ऊपर रखा। कांग्रेस ने ऐसे प्रोजेक्ट किया कि इस गठबंधन को लीड करेगी और राहुल गांधी  गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री का चेहरा होंगे। गठबंधन में शामिल कई दल राहुल गांधी के चेहरे और नाम पर सहमत नहीं थे। वो स्वयं को प्रधानमंत्री पद का सशक्त दावेदार समझते हैं।

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कर्नाटक में शानदार जीत के बाद कांग्रेस का उत्साह सातवें आसमान पर था। 13 मई को कर्नाटक चुनाव नतीजों के ठीक एक महीना दस दिन बाद यानी 23 जून को विपक्षी गठबंधन की पहली बैठक हुई। पहली बैठक में ही संयोजक, सीट शेयरिंग आदि मुद्दों पर सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। विपक्षी पार्टियों के नेताओं की दूसरी बैठक जुलाई को बेंगलुरु में हुई थी जहां गठबंधन का नाम इंडिया गठबंधन होगा, इस बात का ऐलान किया गया था। गठबंधन की तीसरी बैठक शिवसेना की मेजबानी में इस साल 31 अगस्त और 1 सितंबर को मुंबई में हुई थी। इस बैठक में गठबंधन की कोआर्डिनेशन कमेटी का गठन हुआ था। कोऑर्डिनेशन कमेटी की भी एक बैठक हुई थी। हालांकि, वह बैठक पांच राज्यों के चुनाव कार्यक्रम के ऐलान से पहले हुई थी।

इन तीन बैठकों में कांग्रेस जानबूझकर सीट शेयरिंग और संयोजक के नाम के अहम मुद्दे का टालती रही। कांग्रेस की मंशा यह थी कि पांच राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव के बाद इन मसलों पर बात की जाएगी। असल में कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि कर्नाटक की भारी जीत और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से उसके पक्ष में माहौल बना हुआ है, और वो इन राज्यों में शानदार जीत हासिल करेगी। विधानसभा चुनाव में जीत के बाद उसका पलड़ा भारी होगा और वो अपने शर्तों के हिसाब से गठबंधन में शामिल दलों से तमाम मुद्दों पर तोल-मोल कर सकेगी। लेकिन कांग्रेस की चालाकी, रणनीति और हथकंडे फेल साबित हुए। और हिंदी पट्टी के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से उसका सफाया हो गया। तेलंगाना में कांग्रेस को जीत तो मिली लेकिन तीन राज्यों की हार ने इस जीत का मजा किरकिरा कर दिया।

बीती 3 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा हुई। उसी दिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 6 दिसंबर को इंडी अलायंस की बैठक की चौथी बैठक की घोषणा की। लेकिन ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार ने कोई न कोई बहाना लगाकर बैठक में आने से इंकार कर दिया। असल में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन में शामिल दलों समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय लोकदल में सीटों के बंटवारे को लेकर तनातनी हुई थी। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस नेताओं के बीच शर्मनाक बयानबाजी खूब चर्चा में रही थी। कांग्रेस के इस व्यवहार से घटक दलों में रोष व्याप्त था। इसलिये 6 दिसंबर की बैठक को कांग्रेस को टालना पड़ा था।

विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस भी सातवें आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी। चुनाव नतीजों के बाद से ही उसके तेवर ढीले हैं। अब वो घटक दलों के साथ सहयोग और साथ चलने की कसमें खा रही है, लेकिन उसके रवैये से घटक दल चौकन्ने हैं। वो कांग्रेस के साथ चलना चाहते हैं लेकिन अपनी शर्तों के आधार पर। चूंकि गठबंधन में शामिल हर दल का नेता स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानता है, ऐसे में संयोजक और प्रधानमंत्री के चेहरे पर कोई अंतिम निर्णय नहीं हो पा रहा है।

खरगे के नाम का समर्थन करने का सीधा मतलब है राहुल के नाम और चेहरे को खारिज करना। कांग्रेस भी सारी कहानी को बखूबी समझ रही है। लेकिन विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद उसमें उतना दम नहीं बचा कि वो गठबंधन में शामिल दलों पर प्रेशर बना सके। चूंकि कांग्रेस का मतलब गांधी परिवार ही है तो ऐसे में गठबंधन के दलों ने खरगे का नाम का प्रस्ताव करके सीधेतौर पर गांधी परिवार को ही खारिज किया है। रही बात सीट शेयरिंग की तो वो बड़ा पेचीदा मसला है। यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब और दिल्ली में क्रमशः 80, 40, 42, 13 और 7 कुल मिलाकर 182 संसदीय सीटें आती हैं। यूपी में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड, पंजाब  और दिल्ली में आम आदमी पार्टी और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का प्रभाव है। सपा और तृणमूल कांग्रेस अपने राज्यों में कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने के मूड में नहीं हैं। क्षेत्रीय दल अपने प्रभाव क्षेत्र में किसी दूसरे दल पांव पसारने का मौका नहीं देना चाहते हैं। कर्नाटक और तेलंगाना में मुस्लिम वोटरों के कांग्रेस के प्रति झुकाव को देखते हुए ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव काफी चौकन्ने हो गए हैं।  

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गठबंधन की चौथी बैठक में राहुल गांधी को लेकर इंडिया गठबंधन की असहजता अब खुलकर सामने आने लगी है। इंडिया गठबंधन के भीतर यह बात बेहद चर्चा में है कि राहुल गांधी की वजह से मुद्दों में भटकाव होता है और बीजेपी को फायदा पहुंचता है। हालिया विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जनता को मुफ्त योजनाओं का लालच दिया, जाति जनगणना का वादा किया, अदानी का मुद्दा उठाया, सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मोदी पर हमला किया, लेकिन हिंदी पट्टी के जिन तीन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर थी, वहां नतीजे उसके पक्ष में नहीं गये। जनता ने राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया। जनता को कांग्रेस के वादों से ज्यादा पीएम मोदी की गारंटी पर ज्यादा भरोसा जताया। पिछले दो दशकों के राजनीतिक करियर में राहुल गांधी के बायोडाटा में सफलता से ज्यादा असफलता की कहानियां दर्ज हैं। अधिकांष देशवासी राहुल को गंभीर और सकारात्मक सोच वाला नेता नहीं मानते। नतीजतन प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी पीएम मोदी के सामने कमजोर उम्मीदवार दिखाई देते हैं।

शरद पवार, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे और इंडी अलायंस में शामिल लगभग हर नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना देखता है। चूंकि कांग्रेस समेत गठबंधन में शामिल किसी दल की अपने बलबूते बीजेपी से मुकाबला करने की ताकत नहीं है। इसलिए मजबूरी में ये सभी दल एक बैनर तले इकट्ठे हुए हैं। खरगे के बयान के बाद यह तो तय हो ही गया है कि गठबंधन किसी का नाम पीएम के तौर पर घोषित नहीं करेगा। मतलब गठबंधन के सभी दलों के नेता लोकसभा चुनाव के नतीजों के ऐलान तक प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सकते हैं।

- आशीष वशिष्ठ

स्वतंत्र पत्रकार

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