बिहार सरकार के पास वेतन देने के पैसे नहीं हैं, दस लाख नौकरियाँ कहाँ से देंगे?
बिहार चुनाव में भाजपा ने बड़ी संख्या में रोजगार का वायदा किया है, युवाओं में सरकारी नौकरियों के लिए इतनी ललक है और सरकारी सेवाओं में लोगों की कमी लगातार दिख रही है, तब सरकारें आखिर ज्यादा लोगों को नौकरी देती क्यों नहीं हैं?
बिहार के चुनाव का सबसे प्रभावी एवं चमत्कारी मुद्दा रोजगार बन रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने माहौल की नजाकत को समझते हुए अपने संकल्प पत्र में 19 लाख रोजगार देने का वायदा किया है, जबसे यह संकल्प-पत्र चुनावी समरांगण में आया है, बिहार के चुनावी माहौल का रंग ही बदल गया है। क्योंकि इससे पहले तक प्रांत के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री दस लाख नौकरियों का वायदा करने से तरह-तरह की आर्थिक विवशताओं के तर्क देते हुए किनारा करते हुए देखे जा रहे थे। भले ही भाजपा ने अपने संकल्प-पत्र में जो वायदा किया गया है, वह रोजगार का वायदा है, सरकारी नौकरियों का नहीं? जो भी हो, बिहार चुनाव यदि रोजगार का माध्यम बनता है जो मुरझाये युवा-चेहरों में नई ताजगी एवं विश्वास का उदय होगा।
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बिहार के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री की दलीलों को मानें तो राज्य सरकार के पास इतने लोगों को वेतन देने के लिये पैसा नहीं है। यानी यह वायदा पूरा हो ही नहीं सकता, बस हवा-हवाई है। फिर भाजपा ने कैसे यह वायदा किया? क्या यह चुनाव की हवा बदलने एवं प्रांत के युवाओं को लुभाने का कोरा दिखावटी घोषणा पत्र है? कोरोना महामारी के कारण चौपट हो चुकी अर्थ-व्यवस्था एवं लगातार रोजगार छीनने के बढ़ते आंकड़ों के बीच सभी राज्य-सरकारों के सामने अपने कर्मचारियों का वेतन देने के लिये फण्ड नहीं है। फिर पहले के कर्मचारियों के जितने ही नये रोजगार देने के वायदों को पूरा करने के लिये फण्ड कहां से आएगा? समस्या बड़ी है और समाधान की राह भी बड़ी ही चुननी होगी, राजनीति ऐसी ही बाजीगरी एवं करिश्माई तौर-तरीकों का खेल है, जो जितना साहस एवं हौसलों से जितने बड़े वायदे करता है, वह उतना ही चुनावों में अपना जादू दिखाता है, इस दृष्टि से नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह लगातार चुनावी परिदृश्यों को अपनी पार्टी के पक्ष में करने के जादुई करतब दिखाते रहे हैं। बिहार चुनाव में भी ऐसा ही घटित हो तो कोई आश्चर्य नहीं है।
बिहार में बड़ी संख्या में रोजगार का वायदा भले ही एक राजनीतिक वायदा हो, लेकिन यही चुनाव में जीत का सशक्त आधार होगा। जिस तरह पहली बार मतदाता के रूप में अपने मताधिकार का प्रयोग करने जा रहे युवाओं के दर्द को समझने और उस पर नरेन्द्र मोदी का निरंतर ध्यान देना अकारण नहीं था। पर बड़ा प्रश्न है कि फिर भी वे युवाओं के लिये रोजगार के विषय पर क्यों नाकाम रहे? क्यों लगातार युवाओं का दर्द बढ़ता गया, क्यों उनके सपने चकनाचूर होते रहे, क्यों उनकी मुस्कान गायब है? जबकि सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार मतदान करने वालों ने भाजपा को सर्वाधिक समर्थन दिया था। इसके मुताबिक 18−22 वर्ष आयु वर्ग के लोगों ने कांग्रेस की तुलना में भाजपा को दोगुना समर्थन दिया था। लंदन के राजनीतिविज्ञानी ऑलिवर हीथ ने 2015 में एक विश्लेषण में पाया था कि कांग्रेस से मतदाताओं के विमुख होने की आम धारणा के विपरीत 2014 में भाजपा की भारी जीत का कारण उसकी नए मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता थी। मोदी भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं और यही कारण है कि वे बिहार चुनाव में रोजगार को एक बड़े मुद्दे के रूप में लेकर आये हैं।
आज भारत में युवाओं की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। विश्व का हर पांचवां युवा भारत में रहता है, इस युवा शक्ति को अच्छी तरह से शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण दिया जाये तो इनको न केवल अच्छा रोजगार मिलेगा बल्कि यह देश के आर्थिक विकास में भी अच्छा योगदान दे सकते हैं, कोरोना से ध्वस्त हुई अर्थ-व्यवस्था को पटरी पा ला सकते हैं लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ समय से देश में पर्याप्त रोजगार का सृजन नहीं हो रहा है और विशेषकर युवाओं के बीच बेरोजगारी बढ़ रही है, इसके परिणास्वरूप कई नई समस्याएं उभर रही हैं। कोरोना महामारी ने इस समस्या को अधिक गहराया है। अप्रैल से अगस्त-2020 के बीच 2.1 करोड़ वेतनभोगी अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठे हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के मुताबिक जुलाई में लगभग 48 लाख और अगस्त में 33 लाख वेतनभोगियों की नौकरियां गई हैं। सीएमआईई ने कहा है कि आर्थिक विकास के संकुचन के दौरान वेतनभोगी नौकरियां सबसे अधिक प्रभावित हो रही हैं। वेतनभोगी नौकरियां आर्थिक विकास या उद्यमशीलता में वृद्धि के साथ बढ़ती हुई भी दिखाई नहीं दे रही हैं, जो अधिक चिन्ता का विषय है। इससे स्पष्ट होता है कि आज के युवाओं में बेरोजगारी के कारण असंतोष फैल रहा है। यह स्थिति सरकारों के लिये रोजगार के मुद्दे पर अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता को उजागर कर रही है।
युवा नौकरियां नरेन्द्र मोदी के दौर में विस्तार पाने की बजाय सिकुड़ती गयी है। अगर पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि देश के आर्थिक सर्वे के अनुसार, कुल बेरोजगारी दर 2011-12 में 3.8 पर्सेंट से बढ़कर 2015-16 में 5.0 पर्सेंट हो गई है। विशेष रूप से युवाओं में बेरोजगारी दर अधिक तेजी से बढ़ रही है। श्रम ब्यूरो के 2015-16 के सर्वे के अनुसार, 18-21 के आयु वर्ग में बेरोजगारी दर 13.2 पर्सेंट है और स्नातक या उससे अधिक शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा 34.8 पर्सेंट है, इसी तरह अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ‘ओईसीडी’ के 2017 के भारत के आर्थिक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भी देश में 30 पर्सेंट से अधिक 15-21 आयु वर्ग के युवा किसी भी तरह की नौकरी, शिक्षा या प्रशिक्षण से नहीं जुड़े हुए हैं।
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बेरोजगारी की समस्या विश्वव्यापी समस्या है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर जैसे कई विकसित देश भी बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे हैं और वे संरक्षणवाद और स्थानीय लोगों को रोजगार देने के लिए वीजा नीतियों में बदलाव कर रहे हैं। इससे देश के आईटी सेक्टर में हजारों लोगों की छंटनी हो रही है, जो देश में एक बड़े शिक्षित युवा वर्ग को रोजगार मुहैया कराता रहा है। हालांकि केंद्र सरकार ने युवाओं के लिए नए रोजगार सृजन करने के लिए ‘स्टार्टअप’ और ‘स्टैंडअप’ जैसी योजनाएं भी लागू की हैं लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुकूल नहीं निकल रहा है क्योंकि फंड और अच्छे स्किल्ड लोगों की कमी के कारण ज्यादातर ‘स्टार्टअप’ आज बंद हो गए हैं। वर्तमान सरकार की सबसे महत्वपूर्ण योजना ‘मेक इन इंडिया’ भी नई नौकरियों का सृजन करने में असफल रही है, ऐसे में सरकार को सिर्फ चीन और कुछ गिने चुने पूर्वी एशिया के देशों के ‘मैन्युफैक्चरिंग’ विकास के मॉडल का उदाहरण न देते हुए, देश में सर्विस सेक्टर को भी बढ़ावा देने की जरूरत है, जहां भविष्य में नई नौकरियों के सृजन की सम्भावना ज्यादा है।
कुछ दिनों पहले नीति आयोग के सदस्य विबेक देबरॉय ने यही बात कही ‘आने वाले समय में ज्यादातर रोजगार सर्विस सेक्टर में होगा न कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में’, जिसमें टूरिज्म, हॉस्पिटैलिटी, हेल्थ केयर, नवीकरणीय ऊर्जा, शिक्षा, टेलिकॉम और बैंकिंग प्रमुख क्षेत्र हो सकते हैं। अगर सरकार ने जल्द इस दिशा में सकारात्मक कदम नहीं उठाए तो जिस युवा वर्ग को देश एवं समाज की शक्ति कहा जाता है, वह कहीं देश के लिए विभाजन एवं आपदा का कारण न बन जाए। आज नरेन्द्र मोदी सरकार एवं राज्य-सरकारों का लक्ष्य सिर्फ देश-प्रदेश की आर्थिक विकास दर ही नहीं बल्कि नए रोजगार का सृजन करना भी होना चाहिए। इससे ही देश की आर्थिक विकास दर अपने आप तेज होगी। पिछले 20 वर्षों में देश की आर्थिक विकास दर काफी अधिक होने के बाद भी नए रोजगार का बहुत कम सृजन हुआ, जिसके कारण ही इस अवधि को ‘जॉबलेस ग्रोथ पीरियड’ भी कहा जाता है।
बिहार चुनाव में भाजपा ने बड़ी संख्या में रोजगार का वायदा किया है, युवाओं में सरकारी नौकरियों के लिए इतनी ललक है और सरकारी सेवाओं में लोगों की कमी लगातार दिख रही है, तब सरकारें आखिर ज्यादा लोगों को नौकरी देती क्यों नहीं हैं? और एक लोकतांत्रिक समाज के तौर पर भी हम यह तर्क क्यों बर्दाश्त कर लेते हैं कि सरकार के पास पैसा नहीं है, इसलिए वह आवश्यक सेवाओं के लिए स्टाफ रखने का बुनियादी काम भी पूरा नहीं करेगी? यह विरोधाभास नहीं, दुर्भाग्य है। सरकार को इस बड़ी विसंगति को दूर करना ही होगा, भले ही सरकार अपनी फिजूलखर्ची पर लगाम लगाए और वह अपनी कमाई बढ़ाए।
फिजूलखर्ची रोकने के दर्जनों उपाय अलग-अलग आयोग सुझा चुके हैं, लेकिन रस्म निभाने से आगे कोई ठोस काम होता दिखता नहीं है। कमाई बढ़ाना भी कोई आसान राह नहीं है खासकर कोरोना महामारी के समय में। सरकार की ज्यादातर कमाई टैक्स से आती है, टैक्स वसूली तभी होगी, जब लोगों की आय या व्यापार में कमाई अच्छी हो रही हो। अब कुछ अच्छी खबरें जरूर आ रही हैं। जितनी कंपनियों के दूसरी तिमाही के नतीजे अभी तक आ चुके हैं, उनके आधार पर कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है। इस पटरी पर लौटती अर्थ-व्यवस्था एवं सरकारों की प्रथम प्राथमिकता रोजगार ही होना चाहिए। अन्यथा भीतर-ही-भीतर युवाओं में पनप रहा असंतोष एवं आक्रोश किसी बड़ी क्रांति एवं विद्रोह का कारण न बन जाये?
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)
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