सिर्फ चालान काटने की होड़ है, जनता की परेशानियों से किसी को लेना-देना नहीं
जनता ईमानदारी चाहती है, सुशासन भी चाहती है, जीवन-सुरक्षा भी उसकी प्राथमिकता है, सड़कों पर बढ़ रही दुर्घटनाओं पर नियंत्रण भी अपेक्षित है, यातायात को नियोजित होते हुए देखना भी उसकी चाहत है।
नया बना मोटर व्हीकल एक्ट देश को राहत पहुंचाने की बजाय परेशानी का सबब बन रहा है। अनेकों विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरे इस कानून से मेरा देश परेशान है। यह कानून विरोधाभासी होने के साथ-साथ समस्या को और गंभीर बना रहा है। एक नये किस्म के भ्रष्टाचार को पनपने का मौका मिल रहा है, इंस्पैक्टरी राज की चांदी ही चांदी है। भारी भरकम चालान से सड़क पर चल रहे लोगों में काफी खौफ है, डर है और गुस्सा भी है। इस डर एवं खौफ में वे ऐसी गलतियां कर जाते हैं, जो दुर्घटनाओं का कारण बन जाती है।
अतिशयोक्तिपूर्ण जुर्माने एवं कानून को लागू करने पर तृणमूल कांग्रेस के शासन वाले पश्चिम बंगाल एवं कांग्रेस शासित राज्य सरकारों ने सवाल खड़े किये हैं। गुजरात की भाजपा सरकार ने ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के 24 मामलों में जुर्माने की दर 90 पर्सेंट तक कम कर दी है। दिल्ली सरकार भी ऐसे कुछ जुर्माने कम करने पर विचार कर रही है। इन स्थितियों से साफ प्रतीत होता है कि इस नये मोटर व्हीकल एक्ट में अवश्य ही कुछ खामियां हैं।
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ट्रैफिक पुलिस द्वारा नियमों का उल्लंघन करने वालों से भारी-भरकम चालान वसूल किए जा रहे हैं लेकिन वीआईपी गाड़ियों को अनदेखा किया जा रहा है। जनता ईमानदारी चाहती है, सुशासन भी चाहती है, जीवन-सुरक्षा भी उसकी प्राथमिकता है, सड़कों पर बढ़ रही दुर्घटनाओं पर नियंत्रण भी अपेक्षित है, यातायात को नियोजित होते हुए देखना भी उसकी चाहत है। इसके लिये कानून ही माध्यम है, ऐसा माना जाता है। लेकिन कानून भी व्यावहारिक होना चाहिए। भारी जुर्माने की व्यवस्था से क्या समस्या का समाधान हो जायेगा? प्रश्न है कि सरकार आम जनता पर भारी जुर्माने को लाद कर सरकारी खजाना भरना चाहती है या वास्तविक में यातायात के नियमों में बरती जा रही लापरवाही पर काबू पाना चाहती है?
लाइसेंस पर लाइसेंस देकर दुपहिये वाहनों, कारों और मोटर वाहनों का उत्पादन कई गुना बढ़ा दिया पर उनके चलाने के लिए पैट्रोल नहीं है, चलने के लिए सड़कें नहीं हैं, प्रदूषण जांच केन्द्रों का अभाव है, यातायात पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। आम-जनता कानूनों की मार झेलने के लिये तैयार रहे, लेकिन व्यवस्था-पक्ष की खामियों के लिये कोई कानून नहीं है। यह कैसी शासन-व्यवस्था है, यह कैसा कानून का राज है? जिस शासन-व्यवस्था में कानून कम-से-कम होते हैं, उसे ही एक आदर्श शासन-व्यवस्था कहा जाता है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसी ही व्यवस्था के हिमायती रहे हैं, लेकिन यह क्या उनके शासन में आम-जनता कानूनों से अधिक संत्रस्त, पीड़ित एवं प्रताड़ित होती जा रही है।
संसद में नये-नये कानून बन रहे हैं, इतने जल्दी-जल्दी कानून बन रहे हैं कि उनके दूरगामी परिणामों के बारे में सोचा ही नहीं जा रहा है। आम आदमी के जीवन से जुड़ी समस्याएं सुलझने के बजाय उलझती जा रही है, लगता है समस्या की जड़ को समाप्त करने के लिये हम केवल पत्तों को सींच रहे हैं। यह एक नये विरोधाभास एवं विसंगति का द्योतक है। केवल दंड और जुर्माने के डर से लोगों में कानून तोड़ने की प्रवृत्ति को खत्म करने का दावा करने वाले शासक इसी विरोधाभास के शिकार हैं। वैसे ही मंदी, आर्थिक अस्थिरता, महंगाई, बेरोजगारी आदि अनगिनत समस्याएं राष्ट्रीय भय का रूप ले चुकी हैं, ऊपर से यातायात कानून ने कमर ही तोड़ दी है, ऐसा लग रहा है कि आज व्यक्ति बौना हो रहा है, परछाइयां बड़ी हो रही हैं। अन्धेरों से तो हम अवश्य निकल जाएंगे क्योंकि अंधेरों के बाद प्रकाश आता है। पर व्यवस्थाओं का और राष्ट्र संचालन में जो अन्धापन है वह निश्चित ही गढ्ढे में गिराने की ओर अग्रसर है।
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कोई भी पुलिसकर्मी नियमों में हुई लापरवाही या त्रुटि को सुधारने की बात नहीं कर रहा है, यातायात को व्यवस्थित करने का या सड़कों पर सुरक्षित चलने का कोई प्रशिक्षण या प्रेरणा देने की बात नहीं हो रही है, बस चालान काटने में इतनी अस्त-व्यस्तता है कि उन्हें कार और बाइक में फर्क ही नहीं समझ आ रहा है। पुलिस की ज्यादतियां शुरू हो चुकी हैं। एक कार चालक का हैलमेट न पहनने पर चालान काट दिया गया। गाजियाबाद में वाहन चैकिंग के दौरान पुलिस से नोकझोंक में एक युवक की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। आम-जन चालान के नाम पर पुलिस उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। प्रदूषण केन्द्रों पर लम्बी-लम्बी लाइने लगी है, ऑनलाइन चालान जमा करने की व्यवस्था ठप्प है। डीजल वाहनों की प्रदूषण जांच से मना किया जा रहा है, कहां जायेगा आम-आदमी? कौन सुनेगा उसका दर्द?
सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करने वाला ऑटो चालक एक हजार रूपये भी नहीं कमाता होगा, लेकिन एक ही बार में उसे 20-25 हजार का जुर्माना भरना पड़े तो कैसे वह एक महीने तक परिवार का गुजारा करेगा? केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि नियम सबके लिए समान है और मुम्बई के बांद्रा वर्ली सी लिंक पर ओवर स्पीडिंग के लिए उन्हें भी जुर्माना देना पड़ा था। वो जुर्माना भरने में सक्षम हैं, लेकिन अधिसंख्य भारतवासी इस स्थिति में नहीं हैं, कितना अच्छा होता जुर्माना लादने की बजाय यातायात नियमों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती? जुर्माने के नाम पर वसूली जा रही राशि से तत्काल नियम उल्लंघन की स्थिति को हमेशा के लिये समाप्त किया जाता, जैसे हेलमेट न पहनने वाले व्यक्ति को हेलमेट दिया जाता, प्रदूषण प्रमाण पत्र न होने की स्थिति में तत्काल प्रदूषण जांच की व्यवस्था होती, रंगीन शीशों को हटाया जाता या ऐेसे ही उल्लंघनों का तत्काल समाधान दिया जाता।
गडकरी ने दावा किया है कि यातायात नियमों के उल्लंघन के लिए भारी जुर्माने से पारदर्शिता आएगी, भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन उनके दावे पर आम लोगों का संदेह बढ़ गया है। आम लोगों का कहना है कि इससे भ्रष्टाचार बढ़ेगा। अमीर लोग तो जुर्माना चुका देंगे लेकिन आम आदमी भारी भरकम जुर्माना कैसे चुका पाएगा। डर इस बात का है कि यह रकम उगाही का हथकंडा न बन जाए, इससे एक नये भ्रष्टाचार को पनपने का अवसर मिलेगा।
सच्चाई है कि बढ़ती सड़क दुर्घटनाएं देश की बड़ी समस्या है, उन पर काबू पाना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। अब सवाल यह है कि क्या भारी जुर्माना लादना ही इस चुनौती का समाधान है? क्या जुर्माने के डर से लोग यातायात नियमों का पालन करने लगेंगे? क्या उनमें सुरक्षित वाहन चलाने की आदत विकसित होगी? संभवतः भारत में अस्तव्यस्त होते यातायात एवं बढ़ती दुर्घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिये सरकारों ने अब तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया। आम जनता में यातायात नियमों के प्रति जन-चेतना जगाने का कोई उपक्रम नहीं हुआ। यहां तक कि लाइसेंस जारी करने की व्यवस्था को भी सुरक्षित यातायात के प्रशिक्षण का कोई जरिया नहीं बनाया गया। जबकि पूर्ण प्रशिक्षण एवं जांच के बाद ही लाइसैंस जारी किया जाये तो दुर्घटनाओं का बड़ा हिस्सा रोका जा सकता है। सड़कों पर हर समय अफरा-तफरी का माहौल भी अच्छा नहीं होता, उसके लिये ट्रैफिक पुलिस को भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।
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भारत में समस्या यह है कि हमने कभी ट्रैफिक नियमों को गम्भीरता से लिया ही नहीं। ट्रैफिक नियमों की जानकारी को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। नियम भी तब टूटने शुरू होते हैं जब सुविधाएं नहीं होतीं। अब तक की सरकारों ने सुविधाएं देने के नाम पर मौन धारण किया है, जब स्थितियां विकराल होती हुई नजर आई, नये कानून थोप दिये, जुर्माने लाद दिये। महानगरों में पार्किंग की भयंकर समस्या है। पार्किंग का अभाव है लेकिन ट्रैफिक पुलिस अवैध पार्किंग करने वालों की गाड़ियां उठा ले जाती है और गाड़ी छुड़ाने में ही पूरा दिन लग जाता है। चालान जमा कराना हो या प्रदूषण जांच प्रक्रिया से गुजरना- एक-एक प्रक्रिया में पूरा-पूरा दिन लग जाता है, आम आदमी ऐसी सजाएं भुगतने को विवश है। लेकिन कब तक?
बढ़ती सड़क दुर्घटनाएं एवं मरने वालों की बढ़ती संख्या एक गंभीर समस्या है। इस समस्या के प्रति आम आदमी को जागरूक करने की जरूरत है, सुरक्षित जीवन के लिए हमें ट्रैफिक नियमों का पालन करना होगा और अपनी गलत आदतों को बदलना होगा। लेकिन यह कानून के बन जाने से संभव नहीं है, भारी जुर्माना भी इस समस्या का समाधान नहीं है।
- ललित गर्ग
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