अकेले लड़ने की जिद पर अड़ीं मायावती के समक्ष बसपा को टूट से बचाने की चुनौती खड़ी है
लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहा है, नेताओं का पाला बदलने का खेल शुरू हो गया है। इसकी एक बानगी तब देखने को मिली जब बहुजन समाज पार्टी से सांसद कुंवर दानिश अली की एक तस्वीर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ दिखाई पड़ने लगी।
बसपा सुप्रीमों मायावती की एकला चलो वाली थ्योरी ने कांग्रेस-समाजवादी पार्टी वाले आईएनडीआईए गठबंधन की धड़कनें बढ़ा दी हैं, सब जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में यदि बीजेपी के खिलाफ सपा-बसपा को साथ लिए बिना कोई गठबंधन बनता है तो ऐसे गठबंधन की कोई अहमियत नहीं रह जाती है क्योंकि कांग्रेस का तो यूपी में वजूद ही नहीं बचा है। बीजेपी को सपा-बसपा से जरूर थोड़ी-बहुत चुनौती मिलती रही है, लेकिन बसपा का दर्द अलग है। उसका हमेशा से मानना रहा है कि जब भी उनकी पार्टी बीजेपी के खिलाफ अन्य किसी दल के साथ गठबंधन करती है तो उसका वोट तो दूसरे दल के प्रत्याशी के पक्ष में ट्रांसफर हो जाता है, लेकिन बसपा प्रत्यशी को गठबंधन में दूसरे दलों के वोट नहीं मिलते हैं। इसीलिए अपने पुराने अनुभव के आधार पर अबकी से बसपा ने अकेले चलने का निर्णय लिया है, यह बीएसपी का एक राजनैतिक निर्णय हो सकता है, लेकिन इससे फायदा भारतीय जनता पार्टी को होगा इसमें भी कोई दो राय नहीं है। परंतु बसपा सुप्रीमो मायावती को इसकी चिंता नहीं है, वह तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही एक ही थाली का बैगन बताती हैं। दोनों पर ही दलितों के साथ अत्याचार का आरोप लगाती हैं। मायावती कोई भी निर्णय लेने में सक्षम हैं। परंतु उनको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि जब भी बहुजन समाज पार्टी कमजोर नजर आती है, तब उसमें टूट हो जाती है। अतः इससे भी मायावती को बचकर चलना होगा। यानी उनके सामने दोहरी चुनौती है, एक तरफ पार्टी को जीत की राह पर ले जाना है तो दूसरी ओर उन्हें पार्टी को टूट से भी बचाने की चुनौती होगी।
बसपा की रणनीति अपनी जगह है, मगर इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि आज की बसपा में वह दमखम नहीं रह गया है जो उसमें 2012 से पहले देखने को मिलता था। पिछले कई चुनावों में बसपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। मायावती कभी बड़ी-बड़ी रैलियों के लिए जानी जाती थीं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मायावती ने ऐसी कोई रैली नहीं की है जिससे उनकी ताकत का अंदाजा विरोधियों को लग पाए। चुनावी मौसम में एक ओर जहां पार्टियां अपनी तैयारियों और उम्मीदवारो के चयन पर मंथन कर रही हैं, अपने राजनीतिक भविष्य की नैय्या पार लगाने के लिए नेता भी हाथ पांव मार रहे हैं, ऐसे में बसपा आलाकमान को यह समझना होगा कि यदि वह आम चुनाव में थोड़ी भी कमजोर नजर आईं तो बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे नेता कमजोर राजनैतिक हालात में दूसरी नाव पर सवार होने में कतई देर नहीं लगाएंगे।
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वैसे भी लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहा है, नेताओं का पाला बदलने का खेल शुरू हो गया है। इसकी एक बानगी तब देखने को मिली जब बहुजन समाज पार्टी से सांसद कुंवर दानिश अली की एक तस्वीर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ दिखाई पड़ने लगी। दानिश की इस तस्वीर ने बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को टेंशन में जरूर डाल दिया होगा, यदि दानिश अपनी पार्टी अध्यक्ष मायावती को बिना बताए नीतीश कुमार से मिले होंगे तो जल्द उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उधर, दानिश अली ने नीतीश कुमार से इस मुलाकात को शिष्टाचार भेंट बताया है।
नीतीश कुमार से मुलाकात को लेकर बसपा सांसद ने बताया कि उनके साथ राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न मुद्दों और देश में शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने के लिए मिलकर काम करने पर चर्चा की। हाल ही में लखनऊ स्थित बसपा कार्यालय में मायावती के नेतृत्व में हुई बैठक में भी दानिश अली कहीं नजर नहीं आये थे। वहीं दावा किया जा रहा है कि सिर्फ दानिश अली ही नहीं बसपा के कई अन्य सांसद भी दूसरे दलों के नेताओं के साथ मिल रहे हैं।
ज्ञातव्य हो कि बहुजन समाज पार्टी ने 2019 लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था और सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, मेरठ, अमरोहा, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती, लालगंज, घोसी, गाजीपुर समेत 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि उस अनुपात में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी नहीं जीत पाए थे। राजनैतिक पंडितों के लिए यह चौंकाने वाला है कि 2024 के लोकसभा चुनाव भी बसपा सुप्रीमो मायावती 2014 की तरह फिर से अकेले दम पर लड़ने जा रही हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था। देखा जाये तो 2024 में 2019 के रिजल्ट को बरकरार रखना ही बसपा के लिए एक बड़ी चुनौती होगी क्योंकि यूपी की 80 की 80 सीटों को जीतने के लक्ष्य के साथ बीजेपी अपनी तैयारियों में जुटी है। उधर सपा भी अपनी तैयारियों में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती है। मायावती ने आगामी लोकसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ने की बात कही है। इसके लिए उन्होंने पदाधिकारियों को खर्चीले तामझाम और नुमाइशी कार्यक्रमों से दूर रहने की सलाह दी है। साथ ही छोटी-छोटी बैठकों के जरिये गांव गांव में बसपा की पकड़ मजबूत बनाकर सर्वसमाज में जनाधार बढ़ाने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही बसपा सुप्रीमो ने पदाधिकारियों को तन मन धन के साथ जुट जाने के भी निर्देश दिए हैं। मायावती ने गठबंधन को लेकर कहा कि यूपी में गठबंधन करके बसपा को फायदे की बजाए नुकसान ज्यादा हुआ है।
बसपा सुप्रीमो ने कहा कि हमारी पार्टी का वोट गठबंधन वाली पार्टी को ट्रांसफर हो जाता है लेकिन दूसरी पार्टियां अपना वोट हमारे उम्मीदवार को दिलाने की ना सही नीयत रखती हैं और ना ही क्षमता। इससे पार्टी के लोगों का मनोबल प्रभावित होता है। मायावती सपा-कांग्रेस गठबंधन को भी आड़े हाथों लेती रहती हैं। वह कहती हैं कि सत्ता और विपक्षी पार्टियां अपना-अपना गठबंधन करके केंद्र की सत्ता में आने के लिए अपने अपने दावे ठोंक रही है, जबकि सत्ता में आने के बाद जनता के लिए किए गए वायदे और आश्वासन खोखले ही साबित हुए हैं। बसपा सुप्रीमो कहती हैं उनकी पार्टी दलित समाज को जोड़कर आगे बढ़ने का प्रयास करती है जबकि यह लोग उन्हें तोड़कर कमजोर करने की संकीर्ण राजनीति में ही ज्यादातर व्यस्त रहते हैं। इसीलिए इनसे दूर रहना बेहतर है।
-अजय कुमार
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