मंदी से उबारने के लिए कठोर आर्थिक नीतियों को लचीला बनाना जरूरी

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ललित गर्ग । Aug 29 2019 2:02PM

कॉरपोरेट घरानों द्वारा बैंकों से लिये गये कर्जों को चुका नहीं पाने के कारण यह संकट गम्भीर रूप में सामने आया है। जो संकट भारत की अर्थव्यवस्था पर मँडरा रहा है, वह अतिउत्पादन का भी संकट है।

भारत आर्थिक मंदी की मार से त्रस्त होता दिख रहा है, आर्थिक अंधेरा चहुं ओर परिव्याप्त हुआ है। अर्थव्यवस्था इस समय बहुत नाजुक दौर से गुजर रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है, व्यापार ठप्प है, बाजार सूने हैं, बड़ी कम्पनियां अपने कर्मियों की छंटनी कर रही हैं, ऐसे कई आंकड़े एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के चरमराने के संकेत दे रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी दर पिछले 45 सालों में सबसे नीचे के स्तर पर पहुंच चुकी है और ऑटोमोबाइल सेक्टर मंदी की ओर अग्रसर है। सरकार को अर्थव्यवस्था का संकट गहराने से पहले जल्द कदम उठाने होंगे और नाजुक होती स्थिति को देखते हुए यदि सरकार जागी है तो यह शुभ संकेत है। एक तरफ केन्द्र सरकार ने अर्थव्यवस्था में सुधार के लिये प्रोत्साहन या पैकेज की घोषणा की है, तो दूसरी ओर भारतीय रिजर्व बैंक के खजाने से भी केन्द्र सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये मिलने वाले हैं। चौतरफा अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का इंतजार है और उम्मीद भी है। थोड़े से सकारात्मक प्रयासों से ही हम आर्थिक रफ्तार पकड़ सकते हैं।

आर्थिक मंदी को टक्कर देने के लिए सरकार को लम्बे समय तक सक्रिय रहना होगा, कठोर आर्थिक नीतियों को लचीला बनाना होगा। अभी कुछ ही दिनों पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उद्योग जगत को कई तरह की राहतें देने की घोषणाएं की थीं। इन घोषणाओं ने हालांकि सरकार की नीयत स्पष्ट कर दी थी, लेकिन उद्योग जगत और अर्थशास्त्रियों ने आमतौर पर इन्हें नाकाफी ही बताया था। इसके अतिरिक्त राहत तभी दी जा सकती थी, जब सरकार को कुछ अतिरिक्त संसाधन मिलें।

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भारतीय रिजर्व बैंक ने जो फैसला किया है, उसके सीधे तौर पर ये दो पक्ष हैं। यह फैसला ऐसे समय में हुआ है, जब अर्थव्यवस्था संकट में फंसती दिखाई दे, तो उम्मीदें सरकार से ही बंधती हैं। लेकिन जिस तरह से मंदी का विस्तार हुआ है, उसमें सरकार के हाथ भी बंधे हुए हैं। कारोबार कम हो रहा है, इसलिए सरकार के खजाने में राजस्व भी कम पहुंच रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा प्रदत्त धन का इस्तेमाल इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर करना चाहिए। जबकि एक दूसरी सोच यह कहती है कि पहली प्राथमिकता सार्वजनिक बैंकों के पूंजीकरण की होनी चाहिए। अगर बैंकों को कर्ज देने के लिए अतिरिक्त धन मिलता है, तो निजी क्षेत्र में नया निवेश होगा, नई इकाइयां लगेंगी और रोजगार के अवसर पैदा होंगे। इन तरीकों से मंदी को सीधे तौर पर टक्कर दी जा सकेगी। एक डर यह भी है कि अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त धन आने से महंगाई भी बढ़ सकती है। जाहिर है, यह फूंक-फूंककर कदम बढ़ाने का समय है।

भले ही कतिपय लोग एवं विरोधी दल सरकार की नीतियों को गलत बता रहे हों और इन्हें ही अर्थव्यवस्था के अस्त-व्यस्त होने का कारण मान रहे हों, जबकि सच्चाई यह है कि समूची दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है। दुनिया की आर्थिक गिरावट का असर भारत पर आना स्वाभाविक है। भारत को दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जा रहा था, यही कारण है कि दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्तियां भारत में निवेश के लिये तत्पर भी हुईं, इन सकारात्मक परिदृश्यों के बावजूद भीतर-ही-भीतर यह भी महसूस किया जाने लगा कि कुछ-न-कुछ गलत हो रहा था। इस तरह जागृत होना एवं ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना अच्छा हुआ। लेकिन निराशा की बात यह है कि केन्द्र सरकार के पास इस गिरावट को एकदम से नियंत्रित कर देने की कोई रणनीति नहीं है, उसके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। कई आंकड़े अर्थव्यवस्था की नाजुक स्थिति का संकेत दे रहे हैं।

राष्ट्रीय राजमार्गों का सन्नाटा हो या जरूरी सामानों से लेकर मोटरसाइकिल तक की बिक्री का घटना- इन परेशान करने वाली आर्थिक स्थितियों ने सरकार को भी फिक्रमंद किया है। यही कारण है कि वित्त मंत्री जल्द देश के अलग-अलग हिस्सों का दौरा कर जानकारों के समूहों से इस विषय पर बात करने वाली हैं। ग्रोथ की रफ्तार तेज करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक भी लगातार ब्याज दरों में कटौती कर रहा है। देश में रेपो रेट 9 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया है। मगर विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसका असर देखने को नहीं मिल रहा है। ग्राहकों को ब्याज दरों में कमी का फायदा नहीं मिला है। कर्ज की मांग में भी बढ़ोतरी नहीं हो रही है। इस मंदी की चपेट में फिलहाल गाड़ियाँ, मकान और छोटे उद्यम आये हैं। इसके पीछे असल कारण गैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनियों का संकट है जो कि मुख्यतः इन तीनों ही क्षेत्रों में ऋण देने का काम करती थीं।

कॉरपोरेट घरानों द्वारा बैंकों से लिये गये कर्जों को चुका नहीं पाने के कारण यह संकट गम्भीर रूप में सामने आया है। जो संकट भारत की अर्थव्यवस्था पर मँडरा रहा है, वह अतिउत्पादन का भी संकट है। अतिउत्पादन संकट कैसे बन जाता है? जब लोग भूख से मर रहे हों, लोगों के पास रहने को घर न हो, पीने का पानी न हो, रोजगार न हो, अतिउत्पादन को खपाना असंभव हो जाये तो यह संकट का रूप ले लेता है। देश-भर में ऑटोमोबाइल कम्पनियों के 300 से ज्यादा शोरूम बन्द हो चुके हैं। करीब 52 हजार करोड़ रुपये मूल्य की 35 लाख अनबिकी कारें और दोपहिया वाहन पड़े सड़ रहे हैं। इसके कारण न सिर्फ ठेका मजदूरों को काम से निकालने का नया दौर शुरू हो रहा है बल्कि पक्के मजदूरों को भी कम्पनियों से निकालने की तैयारी हो रही है। पहले से बेरोजगारी की विकराल समस्या को झेल रहे देश के सामने बेरोजगारी का संकट और गहरा रहा है।

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राष्ट्र अचानक अपने को विवशता की अवस्था में महसूस कर रहा है, ऐसा लग रहा है कि जीवन-निर्वाह के तमाम साधनों को किसी अकाल या सर्वनाशी युद्ध ने एकबारगी खत्म कर दिया है। उद्योग और वाणिज्य नष्ट हो गये मालूम होते हैं। निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था एक नाजुक दौर से गुजर रही है। न केवल कई उद्योगों के आंकड़े कठिन स्थिति का संकेत दे रहे हैं, बल्कि सरकार की राजस्व वसूली उम्मीद से कम है। ऐसे जटिल दौर में जब सरकार पर इन्फ्रास्ट्रचर में अधिक-से-अधिक निवेश के जरिये मांग पैदा करने का दबाव है, तब फंड की कमी उसके हाथ बांध रही थी। ऐसे में अगर रिजर्व बैंक के पास कुछ सरप्लस फंड है तो उसे यूं ही पड़ा रहने के बजाय इस कठिन एवं संकटकालीन दौर से उबरने में इसका इस्तेमाल करना सूझबूझ भरा निर्णय है। अपेक्षा यही है कि इस फंड का उपयोग करने में पूरी सावधानी बरती जाये। इस फंड के उपयोग की चुनौती बड़ी है कि इसके जरिये भारत की अर्थव्यवस्था को गति कैसे दें, नये उद्योग लगायें और उद्योगों की उत्पादन क्षमता को बढ़ायें ताकि अमेरिका के चीन से आयात पर लगाये अंकुश का फायदा हमें मिले। लोगों की नौकरियां बचाने तथा नई नौकरियां पैदा करने में कामयाबी हासिल करें, बाजारों की रौनक लौटायें, ऐसा हुआ तो रिजर्व बैंक का फंड भारत की अर्थव्यवस्था के लिये रामबाण औषधि साबित होगा, उससे आर्थिक संकटों के बादल छंट सकेंगे।

-ललित गर्ग

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