सिर्फ इंदिरा गांधी जैसा दिखना ही क्या प्रियंका वाड्रा के लिए काफी है ?
उत्तर प्रदेश के गिने-चुने जिलों में छोड़कर न तो पार्टी के पास कार्यकर्ता हैं और न ही नेता। ऐसे में केवल इंदिरा गांधी के नाम पर या प्रियंका गांधी की तुलना इंदिरा गांधी से करके कोई चमत्कार या करिश्मे की उम्मीद बेमानी ही है।
इसमें कोई शक नहीं है कि 2019 के चुनाव कांग्रेस के लिए ‘करो या मरो’ की लड़ाई हैं। इसको इसी से समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने ट्रंप कार्ड प्रियंका को मैदान में उतारने का ऐलान कर दिया है। पिछले काफी वर्षों से कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता प्रियंका को सक्रिय राजनीति में उतारने की मांग कर रहे थे। लेकिन प्रियंका ने खुद को रायबरेली और अमेठी तक ही समेटे रखा। अब चूंकि प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस की महासचिव बना चुकी हैं। ऐसे में प्रियंका को लेकर राजनीतिक गलियारों में खबरों का बाजार गर्म है। प्रियंका कहां से चुनाव लड़ेंगी ? प्रियंका के आने से यूपी की राजनीति में क्या असर होगा ? प्रियंका सपा-बसपा और भाजपा का खेल बिगाड़ेंगी ? प्रियंका के आने से यूपी में कांग्रेस का कायापलट हो जाएगा ? इन सबके बीच प्रियंका के बारे में एक भावुक दलील दी जा रही है कि वह अपनी दादी एवं दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला ने प्रियंका की उनकी दादी इंदिरा गांधी से मिलती-जुलती फोटो ट्विट भी की थी। ऐसे में सवाल यह है कि कांग्रेस प्रियंका को इंदिरा जैसा बताकर राजनीति के मैदान में क्यों उतारना चाहती है ? क्या कांग्रेस इंदिरा के नाम पर इमोशनल राजनीति करना चाहती है ? क्या कांग्रेस प्रियंका को इंदिरा बताकर देश की राजनीति की दशा और दिशा बदलने का सपना देख रही है ? इन सबके बीच एक बड़ा व अहम सवाल यह भी है कि क्या 2019 की नौजवान और मार्डन विचारधारा की पीढ़ी इसी तुलना पर कांग्रेस के पक्ष में लामबंद होकर वोट दे देगी ?
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राहुल और प्रियंका की दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या को भी तीन दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है। इंदिरा गांधी देश की आजादी के बाद कांग्रेस में सक्रिय हुईं और चार बार प्रधानमंत्री भी चुनी गईं। उन्होंने लोकतंत्र का गला घोंटने वाला इमरजेंसी लगाने का अलोकतांत्रिक और संविधान-विरोधी फैसला भी देश पर थोपा था। उन्होंने कई ऐतिहासिक काम भी किए, लेकिन वह कालखंड और पीढ़ियां बीत चुकी हैं। आज जो युवा 25-35 साल की उम्र के हैं, उन्हें इंदिरा गांधी की सरकारों और उनकी सियासी शख्सियत के बारे में ज्यादा मालूमात नहीं हैं। पिछले तीन दशकों में कई सरकारें आयीं और गयीं। तब और अब की राजनीति का माहौल और वक्त दोनों बदल चुके हैं। सोशल मीडिया और संचार के दूसरे साधनों के चलते गांव का अनपढ़, कम पढ़ा लिखा, किसान, मजदूर और औसत वोटर भी काफी हद तक जागरूक हो चुका है। वहीं पिछले दो दशकों में खासकर यूपी में कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरा है। प्रदेश के गिने-चुने जिले छोड़कर न तो पार्टी के पास कार्यकर्ता हैं और न ही नेता। ऐसे में केवल इंदिरा गांधी के नाम पर या प्रियंका गांधी की तुलना इंदिरा गांधी से करके कोई चमत्कार या करिश्मे की उम्मीद बेमानी ही है। वहीं आम वोटर भी राहुल और प्रियंका गांधी से सवाल करेंगे कि आपने हमारे लिए क्या किया है, जिसके आधार पर कांग्रेस का आकलन किया जा सके और हम आपको वोट दे सकें ? अमेठी और रायबरेली गांधी परिवार की परंपरागत सीटें हैं। इन क्षेत्रों की बदहाली और पिछड़ापन किसी से छिपा नहीं है। अमेठी और रायबरेली के अलावा अगल-बगल की चंद सीटों पर ही इंदिरा गांधी के नाम का इमोशनल कार्ड असरकारी साबित हो सकता है। ऐसे में प्रियंका को ‘दूसरी इंदिरा’ सरीखे इमोशनल जुमले बेहद सीमित रूप से असर डाल पाएंगे।
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प्रियंका यूपी की बेटी और बहू दोनों हैं। गांधी परिवार की बेटी होने के नाते प्रियंका हमेशा सुर्खियों में बनी रहीं। अपनी मां और भाई के चुनाव प्रचार के लिये वो जब भी अमेठी और रायबरेली आयीं, वहां की जनता ने उनके लिये पलक-पांवड़े बिछा डाले। चूंकि अब वो राजनीति के क्षेत्र में विधिवत तरीके से प्रवेश कर चुकी हैं ऐसे में एक ऐसा अहम सवाल भी है, जो प्रियंका की निजी जिंदगी से भी जुड़ा है। कानूनी और तकनीकी तौर पर अब वह गांधी नहीं, बल्कि ‘वाड्रा’ हैं। और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा पर भ्रष्टाचार व गंभीर घोटालों के आरोप हैं। इन्कम टैक्स, इनफोर्समेंट डाक्टरेट और सीबीआई सरीखी सरकारी जांच एजेंसियां अपना काम कर रही हैं। निश्चित है कि उन आरोपों और कर्मों की ‘काली छाया’ प्रियंका पर पड़ना लाजिमी है। वहीं मीडिया रिपोर्ट के हवाले से जो खबरें सामने आयी हैं उनमें एक और तथ्य दिखाया जा रहा है कि 47 वर्षीय प्रियंका करीब 450 करोड़ रुपए की मालकिन हैं। न नौकरी और न ही कारोबार। तो इन 450 करोड़ रुपए का भी जवाब देना होगा। यदि भाजपा इन तथ्यों का दुष्प्रचार करने लगे, तो चुनाव किसी भी दिशा में जा सकते हैं।
प्रियंका को लंबे समय बाद मैदान में उतारा तो गया है, लेकिन उनकी भूमिका पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित की गयी है। इसका एक अर्थ यह भी है कि अभी कांग्रेस प्रियंका की भूमिका और मैदान पर असर को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। इंदिरा जी का प्रभाव केवल यूपी ही नहीं कश्मीर से कन्याकुमारी तक था। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम से लेकर तमाम आंदोलनों और संघर्षों को भोगा था। उनकी राजनीतिक समझ और दूरदर्शिता बेजोड़ थी। प्रियंका का लालन-पालन इंदिरा जी से बिल्कुल अलग परिवेश में हुआ है। एक राजनीतिक परिवार की बेटी होने के नाते उनकी राजनीतिक समझ पर सवाल खड़े नहीं किये जा सकते। लेकिन इससे पूर्व उनके पास जमीन पर राजनीति का कोई भी अनुभव नहीं है, सिवाय अपनी मां और भाई के चुनाव प्रचार में हिस्सा लेने के।
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इंदिरा जी की देशसेवा, त्याग और बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। सकारात्मक पक्ष के साथ ही साथ उनके कार्यकाल में हुये तमाम नकारात्मक कार्यों को भी देश की जनता जानती-समझती है। आज देश में वोटरों का जो बड़ा हिस्सा है जो खुद को जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा, अटल जी, राजीव गांधी, लाल बहादुर शास्त्री की बजाय नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जिग्नेश मवाणी, हार्दिक पटेल, सचिन पायलट सरीखे नेताओं से ज्यादा कनेक्ट करते हैं। ऐसे में युवा वोटर इंदिरा की छवि वाली प्रियंका गांधी से खुद को कैसे कनेक्ट कर पाएंगे, ये बड़ा सवाल है ? इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले पांच साल में मोदी सरकार ने अब तक गुमनामी में रहे ऐसे तमाम नेताओं का मान-सम्मान किया और बढ़ाया है, जिनका मूल्यांकन कांग्रेसी सरकारों के दौर में एक सोची समझी रणनीति के तहत नहीं हुआ। नर्मदा के किनारे सरदार वल्लभ भाई पटेल की विशालकाय प्रतिमा इसका जीता जागता सुबूत है। आज का युवा जितनी जल्दी सरदार पटेल से कनेक्ट हो जाता है उतना वो इंदिरा गांधी से नहीं हो पाता है।
प्रियंका के राजनीति में प्रवेश से कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में खुशी का माहौल है। विशेषकर यूपी में कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता यह मान बैठे हैं कि बहन प्रियंका सारे विरोधियों का अकेले दम पर सफाया कर देंगी। लेकिन जमीन हकीकत इससे कोसों दूर हैं। आंकड़े इसके उलट जुगाली करते दिखाई देते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पूरे यूपी में मात्र 7.53 फीसदी वोट हासिल हुये थे। वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में वोट शेयर घटकर 6.25 फीसदी हो गया। 2014 के आम चुनाव में इन दोनों सीटों से सोनिया गांधी व राहुल गांधी जीत तो गये लेकिन उनके लिये ये चुनाव आसान नहीं था। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस रायबरेली और अमेठी की लगभग सभी सीटें गंवा बैठी थी। ये नतीजे जमीनी हकीकत का खुलासा करते हैं कि प्रियंका की राह में कांटे ही कांटे बिछे हैं। ऐसे में प्रियंका की तुलना उनकी दादी इंदिरा से करके कांग्रेस सपा-बसपा और भाजपा से मुकाबला कर पाएगी, समझ से परे है। बाजार का भी यही नियम और दस्तूर है कि डुप्लीकेट प्राडक्ट ज्यादा समय तक मार्केट में टिक नहीं पाता है। प्रियंका युवा और शिक्षित हैं। उनकी रगों में गांधी परिवार का खून दौड़ता है। अभी तो प्रियंका ने राजनीति में पहला कदम रखा है। उन्हें राजनीति के कई पड़ाव अभी पार करने हैं। कई उतार-चढ़ाव देखने हैं। देशवासी चाहते हैं कि प्रियंका अपनी दादी की तरह राजनीति में सफल होकर देशसेवा करें। सिर्फ इंदिरा गांधी की पोती के आधार पर प्रियंका से चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी है।
-आशीष वशिष्ठ
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