क्या सचमुच जाति आधारित गणना कराना नीतीश कुमार का मास्टर स्ट्रोक है?

Nitish Kumar
ANI

बिहार मंत्रिमंडल ने पिछले साल दो जून को जाति आधारित गणना कराने की मंजूरी देने के साथ इसके लिए 500 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की थी। जरा सोचिये, यदि यह राशि विकास कार्यों में लगाई गयी होती तो राज्य के लोगों को इसका कितना लाभ मिलता।

बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने जाति आधारित गणना करवा कर उसके आंकड़े जारी कर दिये हैं। बिहार सरकार के इस कदम को बहुत बड़ा मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है और दावा किया जा रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम पर इसका व्यापक असर पड़ सकता है। जो लोग नीतीश कुमार सरकार के इस कदम को मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं उन्हें समझना होगा कि यह मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार को पिछड़ेपन से आजादी मिल जाती, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में स्कूलों की हालत सुधर जाती, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में अस्पतालों की हालत सुधर जाती, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में गुंडाराज और माफिया राज का खात्मा हो जाता, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में पेपर लीक होना बंद हो जाता, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में भ्रष्टाचार समाप्त हो जाता, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में बेरोजगारी समाप्त हो जाती और पलायन रुक जाता, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में शराबबंदी के बावजूद जहरीली शराब पीने से होने वाली मौतें बंद हो जातीं, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में सड़कों की हालत सुधर जाती। मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में उद्योग-धंधे लग जाते, मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार में नौकरी की मांग पर पुलिस लाठीचार्ज होना बंद हो जाता। मास्टर स्ट्रोक तब होता जब बिहार भी जीएसटी संग्रहण में कुछ योगदान कर पाता। इसलिए नीतीश कुमार का यह फैसला मास्टर स्ट्रोक नहीं बिहार को पीछे धकेलने का प्रयास है।

यह बात सही है कि सरकार के पास जनसंख्या संबंधी विस्तृत आंकड़े होंगे तो विकास योजनाएं बनाने में आसानी होगी लेकिन जब जाति जनगणना के आंकड़े जल्द ही होने वाली राष्ट्रीय स्तर पर जनगणना से भी हासिल किये जा सकते हैं तो राज्यों को अपनी मशीनरी का इस्तेमाल जाति आधारित राजनीति के लिए करने से बचना चाहिए। हम आपको बता दें कि बिहार मंत्रिमंडल ने पिछले साल दो जून को जाति आधारित गणना कराने की मंजूरी देने के साथ इसके लिए 500 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की थी। जरा सोचिये, यदि यह राशि विकास कार्यों में लगाई गयी होती तो राज्य के लोगों को इसका कितना लाभ मिलता। जरूरत इस बात की थी कि नीतीश कुमार अपने लंबे कार्यकाल में किये गये कार्यों का रिपोर्ट कार्ड जारी कर अपनी उपलब्धियां बताते लेकिन उन्होंने जाति आधारित गणना करवा कर चर्चा को दूसरी ओर मोड़ने का प्रयास किया है।

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बिहार सरकार में शामिल नेता अब हुँकार भर रहे हैं कि वह राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना के लिए माहौल बनाएंगे। कुछ लोग इसे मंडल पार्ट-2 कह रहे हैं। ऐसे नेताओं को याद रखना चाहिए कि मंडल भाग-1 के दौरान कुछ लोगों द्वारा जिस तरह की राजनीति की गयी थी उससे समाज को बहुत नुकसान हुआ था और देश में अशांति फैली थी इसलिए बिहार सरकार ने जो कुछ किया उसे मंडल पार्ट-2 की संज्ञा देकर माहौल को बिगाड़ा नहीं जाना चाहिए। आज जब देश तरक्की के रास्ते पर तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। दुनिया भर में मंदी के माहौल के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत हो रही है और हम विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर कदम बढ़ा चुके हैं, ऐसे में विकास की बात ना कर जाति को महत्व देना गलत है। जरा दुनियाभर में नजर उठा कर देखिये किस विकसित देश ने आगे बढ़ने के लिए जाति या धर्म को महत्व दिया है?

हम आपको यह भी याद दिला दें कि बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में जाति आधारित गणना का आदेश पिछले साल तब दिया था, जब केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह आम जनगणना के हिस्से के रूप में एससी और एसटी के अलावा अन्य जातियों की गिनती नहीं कर पाएगी। देखा जाये तो मोदी सरकार का यह कहना पूर्णतया तर्कसंगत था कि जनगणना करते समय अन्य पिछड़ी जातियों की गणना नहीं की जाएगी। जहां तक पिछड़ों की गणना का सवाल है, पहली बात तो यह है कि अक्सर हर जाति के लोग अपने आप को पिछड़ा बताने के लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलेगा। उसका नतीजा यह होता है कि किसी प्रदेश के एक जिले में जो जाति सवर्ण है, वही दूसरे प्रदेश के अन्य जिले में पिछड़ी है।

हम आपको यह भी बता दें कि देश में आखिरी बार सभी जातियों की गणना 1931 में की गई थी। 1931 की जनगणना में जातियों की संख्या पूरे भारत में 4147 थी लेकिन 2011 की जनगणना में उनकी संख्या छलांग मारकर 46 लाख तक पहुंच गई। देखा जाये तो किसी भी व्यक्ति की जाति को निर्धारित करने का कोई निश्चित वैज्ञानिक पैमाना नहीं है। वह जो कह दे, वही सही है। सच्चाई तो यह है कि पिछड़ा, पिछड़ा होता है। उसकी कोई जाति नहीं होती। हर जाति में पिछड़े हैं और हर जाति में अगड़े हैं। इसीलिए जनगणना करने वाले बाबू लोग कभी-कभी बड़े विभ्रम में पड़ जाते हैं। वे देखते हैं कि गांवों के बड़े-बड़े जमींदार, जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं, वह अपनी जाति के आधार पर अपने को पिछड़ों में शामिल करवा लेते हैं। हम आपको यह भी याद दिला दें कि सरकार ने 2011 में पिछड़ेपन का सर्वेक्षण करवाया था। उसमें जाति संबंधी जानकारी भी मांगी गयी थी लेकिन 2010-11 में चले ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन ने इतना तगड़ा दबाव बनाया कि सरकार ने उन आंकड़ों को जारी ही नहीं किया था।

बहरहाल, मोदी सरकार का यह संकल्प स्वागत योग्य है कि वह जातीय जनगणना नहीं करवाएगी। वैसे भी जाति जनगणना पिछड़ों के भले के लिए नहीं नेताओं ने अपने भले के लिए कराई है ताकि हिंदू समाज को बांट कर अपने राजनीतिक हितों को साधा जाये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो इस मुद्दे पर विपक्ष पर हमला यह कहते हुए बोल ही दिया है कि कांग्रेस ने गरीबों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है और छह दशकों तक देश को जाति के आधार पर विभाजित किया है और यह "पाप" वह अब भी कर रही है। जो लोग इस बात की गलतफहमी पाले बैठे हैं कि जाति आधारित गणना के चलते अगले लोकसभा चुनावों के लिए माहौल पूरी तरह भाजपा के खिलाफ हो जायेगा, उन्हें यह समझना होगा कि देश का कोई एक भाग भले जाति आधारित राजनीति के कुचक्र से अब तक बाहर नहीं निकला हो लेकिन बाकी देश विकास की मुख्यधारा से जुड़कर आगे बढ़ रहा है और चुनाव में मतदान देशहित से जुड़े मुद्दों को देखते हुए ही करेगा।

-नीरज कुमार दुबे

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