गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही शंकर
गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरु यानी शिक्षक की महिमा अपार है। उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। शास्त्रों में ‘गु’ का अर्थ ‘अंधकार या मूल अज्ञान’ और ‘रू’ का अर्थ ‘उसका निरोधक’ बताया गया है, जिसका अर्थ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’ अर्थात अज्ञान को मिटाकर ज्ञान का मार्ग दिखाने वाला ‘गुरु’ होता है। गुरु को भगवान से भी बढ़कर दर्जा दिया गया है। सन्त कबीर कहते हैं:-
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।।
अर्थात, गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
इसके साथ ही संत कबीर गुरु की अपार महिमा बतलाते हुए कहते हैं:
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड।।
अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।
संत शिरोमणि तुलसीदास ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है। वे अपनी कालजयी रचना रामचरितमानस में लिखते हैं:
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
अर्थात, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता।
संत तुलसीदास जी तो गुरू/शिक्षक को मनुष्य रूप में नारायण यानी भगवान ही मानते हैं। वे रामचरितमानस में लिखते हैं:
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
गुरु हमारा सदैव हितैषी व सच्चा मार्गदर्शी होता है। वह हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचता है और एक अच्छे मार्ग पर चलने की पे्ररणा देता है। गुरु चाहे कितना ही कठोर क्यों न हो, उसका एकमात्र ध्येय अपने शिक्षार्थी यानी शिष्य का कल्याण करने का होता है। गुरु हमें एक सच्चा इंसान यानी श्रेष्ठ इंसान बनाता है। हमारे अवगुणों को समाप्त करने की हरसंभव कोशिश करता है। इस सन्दर्भ में संत कबीर ने लाजवाब अन्दाज में कहा है:
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।
अर्थात, गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील करता है।
महर्षि अरविंद शिक्षक की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि ‘अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं।’ साईं बाबा कहते थे कि, 'अपने गुरु में पूर्ण रूप से विश्वास करें, यही साधना है।’ प्रख्यात दर्शनशास्त्री अरस्तु कहते हैं कि ‘जन्म देने वालों से अच्छी शिक्षा देने वालों को अधिक सम्मान दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने तो बस जन्म दिया है, पर उन्होंने जीना सिखाया है।’ अलेक्जेंडर महान का कहना था कि ‘मैं जीने के लिए अपने पिता का ऋणी हूँ, पर अच्छे से जीने के लिए अपने गुरू का।’
सन्त कहते हैं कि गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है। सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है। इसलिए हमें अपने गुरू का पूर्ण सम्मान करना चाहिए और उनके द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान का भलीभांति अनुसरण करना चाहिए। कोई भी ऐसा आचरण कदापि नहीं करना चाहिए, जिससे गुरु यानी शिक्षक की मर्यादा अर्थात छवि को धक्का लगता हो। इस सन्दर्भ में महर्षि मनु अपनी अमर कृति में बतलाते हैं:
‘गुरु के समीप एक शिष्य का आसन सर्वदा अपने गुरू की अपेक्षा नीचे होना चाहिए। गुरु की पीठ पीछे बुराई या निन्दा न करें और न ही उनके किसी आचरण या वकतव्य की नकल करें। गुरु की अनुपस्थिति में शिष्य को अपने गुरु का नाम शिष्टतापूर्वक लेना चाहिए और गुरु की बुराई जहां कहीं भी हो रही हो, वह या तो वहां से चला जााए, या फिर कानों में उंगली डाल डाल ले। गुरु जहां कहीं भी मिलें, निष्ठापूर्वक शिष्य को अपने गुरु के चरण-स्पर्श करने चाहिएं।’
अगर आज के सन्दर्भ में गुरु-शिष्य के सम्बंध देखें तो बड़ा दुःख होता है। बेहद विडम्बना का विषय है कि आज गुरु-शिष्य के बीच वो मर्यादित एवं स्नेहमयी सम्बंध देखने को सहज नहीं मिलते हैं, जो अतीत में भारतीय संस्कृति की पहचान होते थे। इसके कारण चाहे जो भी हों। लेकिन, हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जब तक गुरू के प्रति सच्ची श्रद्धा व निष्ठा नहीं होगी, तब तक हमें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी और हमें सद्मार्ग कभी हासिल नहीं होगा। इसी सन्दर्भ में भगवान श्रीकृष्ण अलौकिक कृति गीता में अपने सखा अर्जुन को सुझाते हुए कहते हैं:
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिा माम शुचः ।।
अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
- राजेश कश्यप
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